नागेन्द्र हाराय त्रिलोचनाय भस्माङगरागाय महेश्र्वराय
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः
शिवायमन्दाकिनिसलिल चन्द्नचर्चिताय नन्दीश्र्वर प्रमथनाथ महेश्र्वराय
मंदार पुष्पबहुपुष्प सुपूजिताय तस्मै मकाराय नमः शिवाय
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वर नाशाकाय
श्री नीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शिकाराय नमः शिवाय
वसिष्ठकुम्भोद्भव गौतामार्य मुनीन्द्र देवार्चित शेखराय
चंद्रार्कावैश्वानर लोचनाय तस्मै वकाराय नमः शिवाय
यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराय नमः शिवाय
पंचाक्षर मिंद पुण्यं यः पठेच्छीव् सन्नदै l
शिवलोक कमवाप्नोति शिवेन सहमोदते l l
l l इति श्री शिव पंचाक्षर स्त्रोत्रम l l
Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Monday, July 18, 2011
shiv panchakeshar stotra maha mantra
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श्री शिव पंचाक्षर स्त्रोत्रम
Friday, July 15, 2011
Dr. Narayan Dutta Shrimali Ji ke Pravachan
DOWNLOADABLE Audio Pravachans by Dr.narayan Dutt Shrimaliji.
कुबेरपति शिव शक्ति साधना प्रयोग
शिव तांडव स्तोत्र
शिव महिम्न स्तोत्र
शिव सूत्रं
पारदेश्वर शिवलिंग पूजनं
पारदेश्वर शिवलिंग पूजनं तथा विवेचन :-
पारदेश्वर शिवलिंग पूजनं -१
पारदेश्वर शिवलिंग पूजनं -२
पारदेश्वर शिवलिंग पूजनं -१
पारदेश्वर शिवलिंग पूजनं -२
तिब्बती साधना
तिब्बती साधना पर गुरुदेव :-
तिब्बती साधना -१
तिब्बती साधना -२
तिब्बती साधना -१
तिब्बती साधना -२
कुण्डलिनी विवेचन
डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी द्वारा कुण्डलिनी शक्ति का सूक्ष्म विवेचन:-
कुण्डलिनी विवेचन -१
कुण्डलिनी विवेचन -२
कुण्डलिनी विवेचन -१
कुण्डलिनी विवेचन -२
दुर्लभोपनिषद
डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी द्वारा दुर्लभोपनिषद का सूक्ष्म विवेचन :-
दुर्लभोपनिषद - १
दुर्लभोपनिषद - २
दुर्लभोपनिषद - १
दुर्लभोपनिषद - २
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Dr. Narayan Dutta Shrimali Ji,
Pravachan
Friday, July 8, 2011
Ganesh destruction crisis ode
संकट नाशन गणेश स्तोत्र
प्रणम्य शिरसा देवं गौरी पुत्रं विनायकं |भक्तावासं स्मरेन्नित्य-मायुः कामार्थ सिद्धये || 1 ||
प्रथमं वक्रतुंडम च एकदंतं व्दितीयकम |
तृतीयं कृष्ण - पिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम || 2 ||
लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च |
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टकम || 3 ||
नवमं भलाचंद्रम च दशमं तु विनायकं |
एकादशं गणपति व्दादशम तु गजाननं || 4 ||
व्दाद -शैतानी नामानी त्रिसंध्यं यः पठैन्नरः |
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम || 5 ||
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम |
पुत्रार्थी लभते पुत्रान मोक्षार्थी लभते गतिम् || 6 ||
जपेद गणपति-स्तोत्रं षड्भिर्मासै: फलं लभेत |
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः || 7 ||
अष्ठभ्यो ब्राह्मनेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत |
तस्य विद्या भवेत् सर्व गणेशस्य प्रसादतः || 8 ||
| इति श्री नारद पुराने संकट नाशनं गणेश स्तोत्रं सम्पूर्णं |
प्रणम्य शिरसा देवं गौरी पुत्रं विनायकं |भक्तावासं स्मरेन्नित्य-मायुः कामार्थ सिद्धये || 1 ||
प्रथमं वक्रतुंडम च एकदंतं व्दितीयकम |
तृतीयं कृष्ण - पिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम || 2 ||
लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च |
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टकम || 3 ||
नवमं भलाचंद्रम च दशमं तु विनायकं |
एकादशं गणपति व्दादशम तु गजाननं || 4 ||
व्दाद -शैतानी नामानी त्रिसंध्यं यः पठैन्नरः |
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम || 5 ||
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम |
पुत्रार्थी लभते पुत्रान मोक्षार्थी लभते गतिम् || 6 ||
जपेद गणपति-स्तोत्रं षड्भिर्मासै: फलं लभेत |
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः || 7 ||
अष्ठभ्यो ब्राह्मनेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत |
तस्य विद्या भवेत् सर्व गणेशस्य प्रसादतः || 8 ||
| इति श्री नारद पुराने संकट नाशनं गणेश स्तोत्रं सम्पूर्णं |
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Ganesh destruction crisis ode
Dharma disciple of Guru
शिष्य धर्म
शिष्य वह है जो नित्य गुरु मंत्र का जप उठते, बैठते, सोते जागते करता रहता है।
चाहे कितना ही कठिन एवं असंभव काम क्यो न सोपा जाए, शिष्य का मात्र कर्तव्य बिना किसी ना नुकर के उस काम में लग जाना चाहिए।
गुरु शिष्य की बाधाओं को अपने ऊपर लेते है, अतएव यह शिष्य का भी धर्म है की वह अपने गुरु की चिंताओं एवं परेशानियों को हटाने के लिए प्राणपण से जुटा रहे।
शिष्य का मात्र एक ही लक्ष्य होता है, और वह है, अपने ह्रदय में स्थायी रूप से गुरु को स्थापित करना।
और फिर ऐसा ही सौभाग्यशाली शिष्य आगे चलकर गुरु के ह्रदय में स्थायी रूप से स्थापित हो पाता है।
जब ओठों से गुरु शब्द उच्चारण होते ही गला अवरूद्ध हो जाए और आँखे छलछला उठें तो समझे कि शिष्यता का पहला कदम उठ गया है।
और जब २४ घंटे गुरु का अहसास हो, खाना खाते, उठते, बैठते, हंसते गाते अन्य क्रियाकलाप करते हुए ऐसा लगे कि वे ही है मैं नहीं हूं, तों समझें कि आप शिष्य कहलाने योग्य हुए है।
जो कुछ करते हैं, गुरु करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्ही की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।
गुरु से बढ़कर न शास्त्र है न तपस्या, गुरु से बढ़कर न देवी है, व देव और न ही मंत्र, जप या मोक्ष। एक मात्र गुरुदेव ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं
शिव शासनतः शिव शासनतः शिवन शासनतः, शिव शासनतः
जो इस वाक्य को अपने मन में बिठा लेता है, तो वह अपने आप ही शिष्य शिरोमणि बन कर गुरुदेव का अत्यन्त प्रिय हो जाता है। गुरु जो भी आज्ञा देते है, उसके पीछे कोई-रहस्य अवश्य होता है। अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरु कि आज्ञा का पूर्ण तत्परता से, अविलम्ब पालन करना चाहिए, क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यो आया है, इस युग में क्यो जन्मा है, वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है, इस सबका ज्ञान केवल गुरु ही करा सकता है।
शिष्य को न गुरु-निंदा करनी चाहिए और न ही निंदा सुननी चाहिए। यदि कोई गुरु कि निंदा करता है तो शिष्य को चाहिए कि या तो अपने वाग्बल अथवा सामर्थ्य से उसको परास्त कर दे, अथवा यदि वह ऐसा न कर सके, तो उसे ऐसे लोगों की संगति त्याग देनी चाहिए। गुरु निंदा सुन लेना भी उतना दोषपूर्ण है, जितना गुरु निंदा करना।
गुरु की कृपा से आत्मा में प्रकाश सम्भव है। यही वेदों में भी कहा है, यही समस्त उपनिषदों का सार निचोड़ है। शिष्य वह है, जो गुरु के बताये मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लाभ लेकर अपने जीवन में चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
सदगुरु के लिए सबसे महत्वपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है और जो शिष्य बन गया, वह कभी भी अपने गुरु से दूर नहीं होता। क्या परछाई को आकृति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो सदगुरु कि परछाई की तरह होते है।
जिसमे अपने आप को बलिदान करने की समर्थता है, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खडा कर देने और अपनी पहचान के साथ-साथ गुरु की मर्यादा, सम्मान समाज में स्थापित कर देने की क्षमता हो वही शिष्य है।
गुरु से जुड़ने के बाद शिष्य का धर्म यही होता है, कि वह गुरु द्वारा बताये पथ पर गतिशील हो। जो दिशा निर्देश गुरु ने उसे दिया है, उनका अपने दैनिक जीवन में पालन करें।
यदि कोई मंत्र लें, साधना विधि लें, तो गुरु से ही लें, अथवा गुरुदेव रचित साहित्य से लें, अन्य किसी को भी गुरु के समान नहीं मानना चाहिए।
शिष्य के लिए गुरु ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाए तो उसे छोटे-मोटे अधिकारी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए श्रेष्ठ शिष्य वहीं है, जो अपने मन के तारों को गुरु से ही जोड़ता है।
शिष्य यदि सच्चे ह्रदय से पुकार करे, तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर गुरुदेव तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरुदेव तक पहुंचती ही है, इसमे कभी संदेह नहीं करना चाहिए।
मलिन बुद्धि अथवा गुरु भक्ति से रहित, क्रोध लोभादी से ग्रस्त, नष्ट आचार-विचार वाले व्यक्ति के समक्ष गुरु तंत्र के इन दुर्लभ पवित्र रहस्यों को स्पष्ट नहीं करना चाहिए।
वास्तविकता को केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आम का स्वाद उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना द्वारा विकसित ज्ञान द्वारा ही परम सत्य का साक्षात्कार सम्भव है।
-सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमालीजी
शिष्य वह है जो नित्य गुरु मंत्र का जप उठते, बैठते, सोते जागते करता रहता है।
चाहे कितना ही कठिन एवं असंभव काम क्यो न सोपा जाए, शिष्य का मात्र कर्तव्य बिना किसी ना नुकर के उस काम में लग जाना चाहिए।
गुरु शिष्य की बाधाओं को अपने ऊपर लेते है, अतएव यह शिष्य का भी धर्म है की वह अपने गुरु की चिंताओं एवं परेशानियों को हटाने के लिए प्राणपण से जुटा रहे।
शिष्य का मात्र एक ही लक्ष्य होता है, और वह है, अपने ह्रदय में स्थायी रूप से गुरु को स्थापित करना।
और फिर ऐसा ही सौभाग्यशाली शिष्य आगे चलकर गुरु के ह्रदय में स्थायी रूप से स्थापित हो पाता है।
जब ओठों से गुरु शब्द उच्चारण होते ही गला अवरूद्ध हो जाए और आँखे छलछला उठें तो समझे कि शिष्यता का पहला कदम उठ गया है।
और जब २४ घंटे गुरु का अहसास हो, खाना खाते, उठते, बैठते, हंसते गाते अन्य क्रियाकलाप करते हुए ऐसा लगे कि वे ही है मैं नहीं हूं, तों समझें कि आप शिष्य कहलाने योग्य हुए है।
जो कुछ करते हैं, गुरु करते हैं, यह सब क्रिया कलाप उन्ही की माया का हिस्सा है, मैं तो मात्र उनका दास, एक निमित्त मात्र हूं, जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यता के उच्चतम सोपानों को प्राप्त कर लेता है।
गुरु से बढ़कर न शास्त्र है न तपस्या, गुरु से बढ़कर न देवी है, व देव और न ही मंत्र, जप या मोक्ष। एक मात्र गुरुदेव ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं
शिव शासनतः शिव शासनतः शिवन शासनतः, शिव शासनतः
जो इस वाक्य को अपने मन में बिठा लेता है, तो वह अपने आप ही शिष्य शिरोमणि बन कर गुरुदेव का अत्यन्त प्रिय हो जाता है। गुरु जो भी आज्ञा देते है, उसके पीछे कोई-रहस्य अवश्य होता है। अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरु कि आज्ञा का पूर्ण तत्परता से, अविलम्ब पालन करना चाहिए, क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यो आया है, इस युग में क्यो जन्मा है, वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है, इस सबका ज्ञान केवल गुरु ही करा सकता है।
शिष्य को न गुरु-निंदा करनी चाहिए और न ही निंदा सुननी चाहिए। यदि कोई गुरु कि निंदा करता है तो शिष्य को चाहिए कि या तो अपने वाग्बल अथवा सामर्थ्य से उसको परास्त कर दे, अथवा यदि वह ऐसा न कर सके, तो उसे ऐसे लोगों की संगति त्याग देनी चाहिए। गुरु निंदा सुन लेना भी उतना दोषपूर्ण है, जितना गुरु निंदा करना।
गुरु की कृपा से आत्मा में प्रकाश सम्भव है। यही वेदों में भी कहा है, यही समस्त उपनिषदों का सार निचोड़ है। शिष्य वह है, जो गुरु के बताये मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लाभ लेकर अपने जीवन में चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
सदगुरु के लिए सबसे महत्वपूर्ण शब्द शिष्य ही होता है और जो शिष्य बन गया, वह कभी भी अपने गुरु से दूर नहीं होता। क्या परछाई को आकृति से अलग किया जा सकता है? शिष्य तो सदगुरु कि परछाई की तरह होते है।
जिसमे अपने आप को बलिदान करने की समर्थता है, अपने को समाज के सामने छाती ठोक कर खडा कर देने और अपनी पहचान के साथ-साथ गुरु की मर्यादा, सम्मान समाज में स्थापित कर देने की क्षमता हो वही शिष्य है।
गुरु से जुड़ने के बाद शिष्य का धर्म यही होता है, कि वह गुरु द्वारा बताये पथ पर गतिशील हो। जो दिशा निर्देश गुरु ने उसे दिया है, उनका अपने दैनिक जीवन में पालन करें।
यदि कोई मंत्र लें, साधना विधि लें, तो गुरु से ही लें, अथवा गुरुदेव रचित साहित्य से लें, अन्य किसी को भी गुरु के समान नहीं मानना चाहिए।
शिष्य के लिए गुरु ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाए तो उसे छोटे-मोटे अधिकारी की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए श्रेष्ठ शिष्य वहीं है, जो अपने मन के तारों को गुरु से ही जोड़ता है।
शिष्य यदि सच्चे ह्रदय से पुकार करे, तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर गुरुदेव तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरुदेव तक पहुंचती ही है, इसमे कभी संदेह नहीं करना चाहिए।
मलिन बुद्धि अथवा गुरु भक्ति से रहित, क्रोध लोभादी से ग्रस्त, नष्ट आचार-विचार वाले व्यक्ति के समक्ष गुरु तंत्र के इन दुर्लभ पवित्र रहस्यों को स्पष्ट नहीं करना चाहिए।
वास्तविकता को केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आम का स्वाद उसे चख कर ही जाना जा सकता है। साधना द्वारा विकसित ज्ञान द्वारा ही परम सत्य का साक्षात्कार सम्भव है।
-सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमालीजी
Saturday, July 2, 2011
Is dedicated to you
Is dedicated to you
त्वदीयं वस्तु गोविन्द
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षो बाद जब निखिलश्वेरानंद के सेवा ,एक निष्ठा एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामी जी प्रभावित हुए तो अक दिन पूछा-निखिल |मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ ,तुम जो कुछ भी चाहो मांग सकते हो ,असंभव मांग भी पूरी करूंगा ,मांगो ?निखिलश्वेरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे ,बोले -"त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " जब 'मेरा ' कहने लायक मेरे पास कुछ है ही नहीं ,तो मैं क्या मांगू ,किसके लिए मांगू ,मेरा मन ,प्राण ,रोम -प्रतिरोम तो आपका है ,आपका ही तो आपको समर्पित है ,मेरा अस्तित्व ही कहाँ है ?| उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सदृश गुरु की आँखे डबडबा गयी और शिष्य को आपने हाथो से उठा कर सीने से चिपका दिया ,एकाकार कर दिया ,पूर्णत्व दे दिया |
शिष्य की व्यक्तिगत कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं होती, जब वह मुक्त गुरु के सामने होता हैं, तब सरल बालक की तरह ही होता हैं, गुरु के सामने तो शिष्य कच्ची मिटटी के लौन्दे की तरह होता हैं, उस समय उसका स्वयं का कोई आकर नहीं होता, ऐसी स्थिति होने पर ही वह सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी हो सकता हैं. इसीलिए शिष्य को चाहिए की वह जब भी गुरु के सामने उपस्थित हो, तब वह सारी उपाधियों और विशेषताओं को परे रखकर उपस्थित हो, ऐसा होने पर ही परस्पर पूर्ण तादात्म्य सम्भव हैं.शिष्य का अर्थ निकटता होता हैं, और वह जितना ही गुरु के निकट रहता हैं, उतना ही प्राप्त कर सकता हैं, आप अपने शरीर से गुरु के चरणों में उपस्थित रह सकते हैं. यदि सम्भव हो तो साल में तिन या चार बार स्वयं उनके चरणों में जाकर बैठे, क्योंकि गुरु परिवार का ही एक अंश होता हैं, परिवार का मुखिया होता हैं, अतः समय-समय पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना, उससे कुछ प्राप्त करना, शिष्य का पहला धर्म हैं, यदि आप गुरु के पास जायेंगे ही नहीं, तो उनसे कुछ प्राप्त ही किस प्रकार से कर सकेंगे? गुरु से बराबर सम्बन्ध बनाये रखना और गुरु के साथ अपने को एकाकार कर लेना ही शिष्यता हैं.
गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि हैं, जब आप शिष्य हैं तो यह आपका धर्म हैं, कि आप गुरु की आज्ञा का पालन करें गुरु की आज्ञा में कोई ना कोई विशेषता अवश्य छिपी रहती हैं. जितनी क्षमता और शक्ति के द्वारा. जितना ही जल्दी सम्भव हो सकें, गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्यता का धर्म मन गया हैं.The Hunger Games
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
त्वदीयं वस्तु गोविन्द
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षो बाद जब निखिलश्वेरानंद के सेवा ,एक निष्ठा एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामी जी प्रभावित हुए तो अक दिन पूछा-निखिल |मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ ,तुम जो कुछ भी चाहो मांग सकते हो ,असंभव मांग भी पूरी करूंगा ,मांगो ?निखिलश्वेरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे ,बोले -"त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " जब 'मेरा ' कहने लायक मेरे पास कुछ है ही नहीं ,तो मैं क्या मांगू ,किसके लिए मांगू ,मेरा मन ,प्राण ,रोम -प्रतिरोम तो आपका है ,आपका ही तो आपको समर्पित है ,मेरा अस्तित्व ही कहाँ है ?| उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सदृश गुरु की आँखे डबडबा गयी और शिष्य को आपने हाथो से उठा कर सीने से चिपका दिया ,एकाकार कर दिया ,पूर्णत्व दे दिया |
शिष्य की व्यक्तिगत कोई इच्छा या आकांक्षा नहीं होती, जब वह मुक्त गुरु के सामने होता हैं, तब सरल बालक की तरह ही होता हैं, गुरु के सामने तो शिष्य कच्ची मिटटी के लौन्दे की तरह होता हैं, उस समय उसका स्वयं का कोई आकर नहीं होता, ऐसी स्थिति होने पर ही वह सही अर्थों में शिष्य बनने का अधिकारी हो सकता हैं. इसीलिए शिष्य को चाहिए की वह जब भी गुरु के सामने उपस्थित हो, तब वह सारी उपाधियों और विशेषताओं को परे रखकर उपस्थित हो, ऐसा होने पर ही परस्पर पूर्ण तादात्म्य सम्भव हैं.शिष्य का अर्थ निकटता होता हैं, और वह जितना ही गुरु के निकट रहता हैं, उतना ही प्राप्त कर सकता हैं, आप अपने शरीर से गुरु के चरणों में उपस्थित रह सकते हैं. यदि सम्भव हो तो साल में तिन या चार बार स्वयं उनके चरणों में जाकर बैठे, क्योंकि गुरु परिवार का ही एक अंश होता हैं, परिवार का मुखिया होता हैं, अतः समय-समय पर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना, उससे कुछ प्राप्त करना, शिष्य का पहला धर्म हैं, यदि आप गुरु के पास जायेंगे ही नहीं, तो उनसे कुछ प्राप्त ही किस प्रकार से कर सकेंगे? गुरु से बराबर सम्बन्ध बनाये रखना और गुरु के साथ अपने को एकाकार कर लेना ही शिष्यता हैं.
गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि हैं, जब आप शिष्य हैं तो यह आपका धर्म हैं, कि आप गुरु की आज्ञा का पालन करें गुरु की आज्ञा में कोई ना कोई विशेषता अवश्य छिपी रहती हैं. जितनी क्षमता और शक्ति के द्वारा. जितना ही जल्दी सम्भव हो सकें, गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्यता का धर्म मन गया हैं.The Hunger Games
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
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shadhna : In practice the formula for success
shadhna : In practice the formula for success
साधना में सफलता के सूत्र :-
साधक को चाहिए वह आपने पाप कार्य ,गलत कार्य और असामाजिक कार्य यदि किये हो तो गुरु के सामने साफ़ -साफ़ लिखकर प्रायश्चित कर ले |ऐसा करते ही साधक उन दोषों से मुक्त हो जाता है और इसके बाद गुरु आपने तपस्या के बल से उन दोषों को समाप्त कर देता है |
.गुरु पर पूर्ण और प्रगाढ़ आस्था रखे |किसी भी हालत में मन में भ्रम या संशय पैदा न करे |विपरीत परिस्थिति में भी गुरु के प्रति आस्था में किसी प्रकार के न्यूनता न लावे |
गुरु की आज्ञा जीवन में सर्वोच्च आज्ञा मानकर साधक को उसका पालन करना चाहिए |किसी भी प्रकार की ,कोई भी आज्ञा गुरु दे तो उसके बारे में कुछ भी विचार न करते हुए साधक को आज्ञा पालन करना चाहिए चाहे वह उसकी रूचि के अनुकूल हो या प्रतिकूल |
गुरु किसी भी प्रकार की परीक्षा ले तो उस परीक्षा के बारे में तर्क -वितर्क नहीं करे अपितु उसे सहर्ष शिरोधार्य कर परीक्षा में उतीर्ण होने का पूर्ण प्रयत्न करे |
गुरु जिस प्रकार से साधना क्रम बताये उसी प्रकार से साधना संपन्न करे |
आपने मन में पुरुष या नारी होने का अहम् न रखे अपितु आपने आप को साधक माने |पुरुष या नारी का भेद और अहम् समाप्त होने पर ही वह साधक कहलाने में समर्थ हो पाता है |
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
साधना में सफलता के सूत्र :-
साधक को चाहिए वह आपने पाप कार्य ,गलत कार्य और असामाजिक कार्य यदि किये हो तो गुरु के सामने साफ़ -साफ़ लिखकर प्रायश्चित कर ले |ऐसा करते ही साधक उन दोषों से मुक्त हो जाता है और इसके बाद गुरु आपने तपस्या के बल से उन दोषों को समाप्त कर देता है |
.गुरु पर पूर्ण और प्रगाढ़ आस्था रखे |किसी भी हालत में मन में भ्रम या संशय पैदा न करे |विपरीत परिस्थिति में भी गुरु के प्रति आस्था में किसी प्रकार के न्यूनता न लावे |
गुरु की आज्ञा जीवन में सर्वोच्च आज्ञा मानकर साधक को उसका पालन करना चाहिए |किसी भी प्रकार की ,कोई भी आज्ञा गुरु दे तो उसके बारे में कुछ भी विचार न करते हुए साधक को आज्ञा पालन करना चाहिए चाहे वह उसकी रूचि के अनुकूल हो या प्रतिकूल |
गुरु किसी भी प्रकार की परीक्षा ले तो उस परीक्षा के बारे में तर्क -वितर्क नहीं करे अपितु उसे सहर्ष शिरोधार्य कर परीक्षा में उतीर्ण होने का पूर्ण प्रयत्न करे |
गुरु जिस प्रकार से साधना क्रम बताये उसी प्रकार से साधना संपन्न करे |
आपने मन में पुरुष या नारी होने का अहम् न रखे अपितु आपने आप को साधक माने |पुरुष या नारी का भेद और अहम् समाप्त होने पर ही वह साधक कहलाने में समर्थ हो पाता है |
सस्नेह तुम्हारा
नारायण दत्त श्रीमाली.
Tuesday, June 21, 2011
A hundred years later, the same strength, will power in front of you.
मैं तुम्हे गिडगीडाने वाला नहीं बनाना चाहता, मैं बना ही नहीं सकता। बन भी नहीं सकता, जब मैं खुद बना ही नहीं तो तुम्हे कैसे बनाउंगा। पहले हाथ उठाऊंगा नहीं, और हाथ उसका उठा और मेरे गाल तक पहुंचे उससे पहले छः थप्पड़ मार कर निचे गिरा दूंगा, आज भी इतनी ताक़त क्षमता रखता हूँ, आज से सौ साल बाद भी इतनी ही ताक़त, क्षमता रखूंगा आपके सामने।
सम्राट होते होंगे, मैंने देखा नही सम्राट कैसे होते है, मगर सम्राटों के सिर भी गुरू के चरणों मे झुकते है, उनके मुकुट भी गुरू के चरणों मे पड़ते हैं यदि वह सही अर्थों मे गुरू है, ज्ञान, चेतना युक्त है।
आज से हजारों वर्ष पहले सिंधु नदी के किनारे पहली बार आर्यों ने आंख खोली, हमारी पूर्वजों ने पहली बार अनुभव किया कि ज्ञान भी कुछ चीज़ होती है, पहली बार उन्होने एहसास किया कि जीवन मे कुछ उद्देश्य भी होता है, कुछ लक्ष्य भी होता है, तब उन्होने सबसे पहले गुरू मंत्र रचा, गुरू की ऋचाओँ को आवाहन किया। और भी देवताओं का कर सकते थे, भगवान रुद्र का कर सकते थे, विष्णु का कर सकते थे, उन ऋंषियों के सामने ब्रह्मा थे, इंद्र थे, वरुण थे, यम थे, कुबेर थे, सैकड़ों थे।
मगर सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना कि या संसार मे सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना हुई, वह गुरू मंत्र था।
जो कहूं वह करना ही है आपको। शास्त्रों ने कहा है- जैसे गुरू करे ऐसा आप मत करिए, जो गुरू कहे वह करिए। जो गुरू कहे वह करिए। आपको यह करना है तो करना है।
आप गुरू के बताए मार्ग चलेंगे, गतिशील होंगे, तो अवश्य आपको सफ़लता मिलेगी, गारंटी के साथ मिलेगी। और साधना आप पूर्ण धारण शक्ति के साथ करेंगे तो अवश्य ही पौरुषवान, हिम्मतवान, क्षमतावान बन सकते है। आप अपने जीवन मे उच्च से उच्च साधनाएं, मंत्र और तंत्र का ज्ञान गुरू से प्राप्त कर सके और प्राप्त ही नहीं करें, उसे धारण कर सकें, आत्मसात कर सके ऐसा मैं आपको ह्रदय से आर्शीवाद देता हूं, कल्यान कामना करता हूं
सम्राट होते होंगे, मैंने देखा नही सम्राट कैसे होते है, मगर सम्राटों के सिर भी गुरू के चरणों मे झुकते है, उनके मुकुट भी गुरू के चरणों मे पड़ते हैं यदि वह सही अर्थों मे गुरू है, ज्ञान, चेतना युक्त है।
आज से हजारों वर्ष पहले सिंधु नदी के किनारे पहली बार आर्यों ने आंख खोली, हमारी पूर्वजों ने पहली बार अनुभव किया कि ज्ञान भी कुछ चीज़ होती है, पहली बार उन्होने एहसास किया कि जीवन मे कुछ उद्देश्य भी होता है, कुछ लक्ष्य भी होता है, तब उन्होने सबसे पहले गुरू मंत्र रचा, गुरू की ऋचाओँ को आवाहन किया। और भी देवताओं का कर सकते थे, भगवान रुद्र का कर सकते थे, विष्णु का कर सकते थे, उन ऋंषियों के सामने ब्रह्मा थे, इंद्र थे, वरुण थे, यम थे, कुबेर थे, सैकड़ों थे।
मगर सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना कि या संसार मे सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना हुई, वह गुरू मंत्र था।
जो कहूं वह करना ही है आपको। शास्त्रों ने कहा है- जैसे गुरू करे ऐसा आप मत करिए, जो गुरू कहे वह करिए। जो गुरू कहे वह करिए। आपको यह करना है तो करना है।
आप गुरू के बताए मार्ग चलेंगे, गतिशील होंगे, तो अवश्य आपको सफ़लता मिलेगी, गारंटी के साथ मिलेगी। और साधना आप पूर्ण धारण शक्ति के साथ करेंगे तो अवश्य ही पौरुषवान, हिम्मतवान, क्षमतावान बन सकते है। आप अपने जीवन मे उच्च से उच्च साधनाएं, मंत्र और तंत्र का ज्ञान गुरू से प्राप्त कर सके और प्राप्त ही नहीं करें, उसे धारण कर सकें, आत्मसात कर सके ऐसा मैं आपको ह्रदय से आर्शीवाद देता हूं, कल्यान कामना करता हूं
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