ध्यान क्या है ?
ध्यान-सादक लिंची अपने गुरु के पास गए और पूछा--मैं अपने मन को कैसा
बनाऊं, जिससे सत्य को जान सकूँ? गुरु हंसने लगे और बोले--प्रिय ! तुम
अपने मन को कैसा भी बनाओ, सत्य को नहीं जान सकोगे. शिष्य का चेहरा उदास हो
गया. उसे बड़ी निराशा हुई. दु:खी स्वर से उसने फिर प्रश्न किया--क्या मैं
सत्य को नहीं जान सकूंगा? मुस्कराते हुए गुरु बोले--वत्स ! यह मैंने नहीं
कहा कि तुम सत्य को जानने में योग्य नहीं हो. तो फिर मुझे क्या करना
चाहिए--लिंची ने जिज्ञासा के स्वर में पूछा ? गुरु कहा--यदि सत्य को
जानना चाहते हो तो अपने साथ मन को लेकर मत चलो. मन को यहीं छोड़ दो. मन
सत्य क नहीं जान सकता. उसका मौन होना अपेक्षित है. अमन की अवस्था में ही
सत्य की झांकी मिलती है.
एक सन्त से किसी ने जिज्ञासा की--ध्यान क्या है? उसका उत्तर बड़ा संयमित,
सटीक और सत्य था. उसने कहा--जो सबसे निकट है, उसमें होना ही ध्यान है. जब मैं
कहीं नहीं होता हूं तब अपने आप में होता हूं. स्वयं में होना ही ध्यान
है. किसी पहंचे हुए साधक की संक्षिप्त परिभाषा में इसे इस प्रकार समझा जा
सकता है--"जाणे सो ही आत्मा, जावै को मन जाण"--जो जानता है वह आत्मा है
और जो ठहरता नहीं, वह मन है. उस जानने वाले में रहना, यही ध्यान है.
अध्यवसाओं/सूक्ष्मतम चित्त वृत्तियों की स्थिरता ध्यान है. वृत्तियों की
तरंगे चित्त हैं. आचार्य कहते है--जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं, जं चलं तयं
चित्तं"
ज़ेन साधक इसी सत्य दिशा का संकेत करते हैं. वे कहते हैं--ढो नोट् सेएक्,
इङ् योउ तन्ट् ओट् सेएक्, स्टोप्. खोजो मत, अगर खोजना चाहते हो तो रुक जाओ. खोज
करना मनका काम है. खोजने से व्यक्ति और चेतना की दूरी पाटी जा सकती.
प्लेटो अनेक वर्षों के बाद जब सुकरात के पास पहुंचा तब भी वह वैसा ही था
जैसा गया था. सुकरात ने कहा--"तुम जिन्दगी भर भी खोज करते रहोगे तब भी
उसे नहीं पा सकोगे, क्योंकि वह खोज का विषय नहीं है. इसलिए खोज करना छोड़
दो. "
कबीर की दृष्टि भी यही है. उन्होंने कहा है --ध्यान तो सहज योग है. वह करने
की क्रिया से सर्वथा दूर है. साधक असहजावस्था से बचता रहे तो जीवन की
सहजता स्वत: स्फुरित हो जाती है. उनके शब्द हैं--
"सहज सहज सब कोई कहे, सहज न चोन्हे कोय.
जो सहजे साहिब मिले, सहज कहावे सोय."
सब कोई सहज-सहज की रट लगाते हैं किन्तु सहज का बोध कोई नहीं करते. वही
सहजावस्था है, जिसमें आप बिना किसी प्रयत्न के अपने भीतर विद्यमान
आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं. इसी विचार को एक साधक ने
छन्द में यों बांधा है--
"सहजे-सहजे सहजानन्द, अन्तर्दृष्टि परमानन्द.
जहां देखो वहां आत्मानन्द, सहजे छुटे विषयानन्द.."
जब साधक अपनी सहज दशा में प्रवेश पा जाता है तब विषयों का रस स्वत; विरस
हो जाता है. अन्तर दृष्टि खुल जाती है. सर्वत्र आत्मानन्द का स्रोत फूट
पड़ता है. भगवान् महावीर के शब्दों में इसे संवर-ढहर जाना कहते हैं. वे
कहते हैं--अकम्मेजाणइ पासई"-- जो कुछ नहीं करता, वही जानता और देखता है.
करने में कर्तव्य का अहं गिरता नहीं है,"मैं" जीवित रहता है. "मैं" की
बाधा को तोड़ने के लिए शान्त, कुछ भी न करना अमोघ उपाय है.
समता और ध्यान
भगवान् महावीर ने इसकी साधना के लिए साधना के लिए सूत्र दिया सामायिक का.
सामायिक प्रश्न से मुक्त है. ध्यान में जहां प्रश्न खड़ा होता है कि
ध्यान किसका करें? कैसे करें? आदि. वहां सामायिक में ऐसा कुछ नहीं है.
सामायिक समता के पूर्ण अभ्यास से निष्पन्न अवस्था है. जहां मन न इधर
झुकता है और न उधर, वह बीच में ठहर जाता है. संतुलित हो जाता है.राग और
द्वेष दोनों से मुक्त स्थिति का नाम सामायिक है और वह है--अपनी आत्मा.
समता और ध्यान एक हैं. समता और ध्यान-दोनों अभिन्न हैं. समता को साध लेने
पर ध्यान साध जाता है और ध्यान को साध लेने पर समता मता सध जाती है.
गुरु के पास एक व्यक्ति संन्याल लेने आया. गुरु ने संन्यास का सूत्र देते
हुए कहा--"जाओ, सामने जो कब्रें दिखाई दे रही हैं, एक-एक को गाली देकर
आओ. शिष्य कुछ समझ नहीं सका. गुरु का आदेश था. गया. गाली देकर पुन: लौट
आया. गुरु ने कहा--एक बार फिर जाओ. इस बार सबकी स्तुति करके आओ. आदेश का
पालन कर पुन: चला आया. गुरु ने पूछा--बोलो, तुम जब गालियां देकर आये थे
और सतुति करके आये थे तब उन्होंने कोई उत्तर दिया? उन पर कोई प्रतिक्रिया
हुई? शिष्य ने कहा--न कोई उत्तर था और न कोई प्रतिक्रिया ? गुरु ने
संन्यास-सूत्र देते हुए कहा--`अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में
सदा-सर्वत्र सम रहना, यही सन्यांस है."
जीवन द्वन्द्व है. इस द्वन्द्व में से गुजरने की कला है समता. जिसके पास
समता का शस्त्र नहीं है, वह द्वन्द्वो पर विजयी नहीं बन सकता. योगवित्
आचार्य हेमचन्द्र साधक को सूचित करते हुए कहते हैं--साधक को समता का
सहारा लेकर योग-मार्ग पर आरूढ़ होना चाहिए. समता को बिना साथ लिए जो
ध्यान का प्रारम्भ करता है, वह अपनी आत्मा को विडंबित करता है. आगे कहते
हैं--समत्व के बिना ध्यान नहीं है और ध्यान के बिना समत्व नहीं है. चेतना
के स्थिरीकरण में दोनों की उपादेयता है, अत: दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.
योगनिष्ठ आचार्य शुभचन्द्र ने समत्व का मूल्यांकन करते हुए लिखा
है--विश्वद्रष्टा ऋषियों ने साम्य को सर्वोत्कृष्ट ध्यान कहा है. मैं
मानता हूं, जितना भी शास्त्रों का विस्तार है, वह इसी की अभिव्यक्ति के
लिए है.
योग-वशिष्ठ में भी `शम' की महिमा का जो वर्णन किया है, वह इसी भावना का
परिपोषक है. शम कौन होता है? उसके विस्तार का संक्षिप्त सार है--जो न
प्रसन्न होता है और न अप्रसन्न. समस्त स्थितियों में जिसका मन संतुलित
रहता है. गीता में स्थितप्रज्ञ के लक्षणों में भी हमें इसका स्पष्ट दर्शन
होता है--
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्त्य प्राप्य शुभाशुभम्.
नाभिनन्दति न च द्वेष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता..
जो व्यक्ति सर्वत्र स्नेहरहित है, उस-उस शुभ तथा अशुभ (वस्तुओँ) को
प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, वह स्थितप्रज्ञ होता
है.
असत् का त्याग
उपरोक्त प्रतिपादन से ध्यान की वास्तविक स्थिति अपरिचित नहीं रहती .
ध्यान का मूल प्रतिपाद्य है-विवेक. विवेक का अर्थ है--जागृति के अभाव में
चेतना की जो दूरी बढ़ गई है उसे पाट देना, असत् के सथ जो सम्बन्ध हो गया
है, उसे मिटा देना और असत् में जो आस्था दृढ़तम हो गई है, उसके मूल को
हिला देना. जब तक असत् का आकर्षण नहीं टूटता, तब तक ध्यान का कार्य फलित
नहीं होता. सत् के मिलन में सबसे बड़ी बाधा असत् का व्यामोह ही .एक का
आकर्षण दूसरे का नाश है.
असत् यानि जो स्थिर नहीं है, शाश्वत नहीं है. ऐसी वस्तुओं, व्यक्तियों
और परिस्थितियों में अपनी चेतना को उलझाये रखना सबसे बड़ा अज्ञान है. जब
तक उसका त्याग नहीं होता तब तक सम्यक् साधन की उपादेयता भी सिद्ध नहीं
होती. क्योंकि बाह्रा आकर्षण और पद-प्रतिष्ठा का मोह अनुचित उपायों से
व्यक्ति को मुक्त नहीं होने देता. हिंसा, असत्य, दूसरों की बुराई, कसी को
नीचा दिखाने का भाव आदि-आदि वृत्तियां व्यक्ति को छोड़ नहीं पातीं. जो
जाने वाला है, विमुक्त होने वाला है, पकड़ने पर टिक नहीं पाता, उसके पीछे
समय, श्रम, और शक्ति का व्यय कर कोई व्यक्ति सुखी कैसे हो सकता है? साधक
को यह निर्णय कर लेना चाहिए कि मुझे किससे प्रेम करना है? असत् और सत्
दोनों को साथ लेकर चलने की भूल उसे नहीं करनी चाहिए. दो घोड़ों पर सवार
होकर कोई भी घुड़सवार सुरक्षित नहीं पहुंच सकता.
लोकैषणा (यश, प्रतिष्ठा, पद आदि की आकांक्षा), वित्तैषाणा और पुत्रैषणा
में आकृष्ट व्यक्ति साधना का दम्भ कर सकता है किन्तु साधना से उसका कोई
प्रयोजन नहीं रहता. सभी प्रकार की कामनाएं साधक के लिए वर्जनीय हैं.
योगजन्य सिद्धियों और चमत्कारों का मोह भी उसमें नहीं होना चाहिए.
सिद्धि-मार्ग में वे भी विध्न हैं. उनकी शाश्वतता भी कहां है? साधक के
सामने सत्य का ही ध्येय रहना चाहिए.
दो प्रकार के साधक
व्यक्ति बुद्धि और अव्यक्त बुद्धि की दृष्टि से साधकों की दो श्रेणियां
हो जाती हैं. जो व्यक्त हैं, उनके लिए साधना के सामान्य प्रयोगों की
अपेक्षा नहीं रहती. थोड़े से हिलाते ही उनकी नींद टूट जाती है या किसी
विशिष्ट निमित्त को पाकर स्वत: शीघ्र ही जग जाते हैं. जैसे ही वस्तु-सत्य
की मीमांसा करते हैं, देखते हैं और जान लेते हैं, उसी क्षण अवास्तविकता
से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लेते हैं. उनके लिए सिर्फ यथार्थ बोध
पर्याप्त होता है. ध्यान के साथ ही आचरण की घटना घट जाती है. वे हेय से
असंगत होकर स्वयं के संग में स्थित हो जाते हैं. स्व-स्थिति ही ध्यान है.
व्युत्पन्न--व्यक्त साधकों के लिए विचार-विवेक प्रयाप्त है. उनके लिए
कैसे बैठना, कैसे ध्यान करना, किसका करना, कौन-कौन से आल-~म्बनों को
ग्राहण करना आदि सब गौण होते हैं. वे सहजतया असत्--विनाशी वस्तुओं का
तादात्म्य तोड़कर स्वयं में उतर जाते हैं. राग-द्वेष आदि अवस्थाएं सब मनकृत
हैं. आत्मृ-तत्त्व से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है. इसलिए वे भी उन्हें बांध
नही सकती. आचार्य अमितगति ने इसका बड़ा सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया
है--ध्यान करने के लिए पाषाण की शिला, कुश या पृथ्वी के आसन की आवश्यकता
नहीं है. विद्वानों के लिए वह आत्मा ही स्वयं पवित्र आसन है, जिसने क्रोध
आदि कषाय व इन्द्रिय-वासना रूपी शत्रुओं का संहार कर दिया है. हे मित्र !
आत्म-ध्यान के लिए न किसी आसन की, न किसी लोक-पूजा की और न किसी संघ में
मिलने की आवश्यकता है. जिस किसी भी तरह अपने ह्रदय से बाह्रा वस्तुओं कि
वासना निकालकर अपने ही स्वरूप में प्रतिफल लीन रहना, यही ध्यान एवं समाधि
है"--
"न संस्तरोस्श्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो यो फलको विनिर्मित:.
यतो निरस्ताक्षकषायविद्विष:, सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मत:..
न संस्तरो भद्र ! समाधि-साधनं, न लोक-पूजा न च संघमेलनम्.
यतस्ततोस्ध्यात्मरतो भवानिशं, विमुछय सर्वामपि बाह्मावासनाम्..
योग-वशिष्ट के जनक, बलि, प्रह्लाद आदि प्रकरणों में इसी सत्य का दर्शन
होता है. प्रह्लाद अपने पिता , प्रपितामह आदि पूर्वजों की सूर्खता पर
हँसता है. वह सोचता है--कैसे थे वे लोग, जो भोग, राज्य आदि बन्धनों में
गिरकर आत्म-वैभव से वंचित रह गए. जिन्होनें अपने को नहीं जाना, उन्होंने
सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया. इस प्रकार बड़े गहन चिन्तन में उतर कर, वह
स्वयं प्रतिष्ठित हो जाता है.
ध्यान का द्वार उनके लिए सहजतया अनावृत हो जाता है, जिन्हें वर्तमान जीवन
से सर्वथा असंतोष हो गाया है, संसार के नश्वर स्वरूप की जिन्होंने अच्छी
तरह से अनुभव कर लिया है और प्रत्येक सुख के पीचे छिपे दु:ख को देख लिया
है. आत्म-दर्शन की तीव्र प्यास जिनमें जागृत हो जाती है वे उसकी खोज के
लिए निकल पड़ते हैं. अव्युत्पन्न/अव्यक्त बुद्धि के व्यक्तियों की
संख्या सर्वदा से अधिक रही है. बिना किसी प्रेरणा व माध्यम के उनके जीवन
में सहजतया कोई परिवर्तन नही होता. निमित्त के मिलने पर भी अनेक लोग
स्वाभाविक/यथार्थ विचार से बहुत दूर रहते हैं. यथार्थ का विचार करना भी
मार्ग पर अग्रसर होने का एक उपाय है. लेकिन जो विचार नहीं करते हैं उनके
लिए वह मार्ग कैसे खुलेगा ? अव्यक्त व्यक्ति जब निमित्त पाकर जागृत होते हैं
तब उनके लिए साधना की अपेक्षा होती है. साधना के विभिन्न प्रयोग उन लोगों
के लिए हैं. साधना में वे मन्दगति होते हैं. मल, विक्षेप और आवरण भी उनके
अधिक होते हैं. इस सबकी शुद्धि के लिए पहले उन्हें अनेक उपायों और
सामान्य प्रयोगों से गुजरना होता है. तब कहीं उनका ध्यान का मार्ग
प्रशस्त होता है. वे उसके योग्य बन जाते हैं. साधना में उनकी गति तेज हो
जाती है.
ध्यान क्यों ?
ध्यान क्यों?--इसका उत्तर एक प्रकार से नहीं दिया जा सकता. मनुष्य विविध
रुचि वाले हैं. उनकी विविधता के पीछे छिपा है--अतीत का संस्कार या
पूर्वोपार्जित कर्म. कर्म की औदयिक, क्षायोप-~शमिक व क्षायिक अवस्था के
कारण मनुष्य की वृत्तियां रूपान्तरित होती हैं. कर्म की औदयिक अवन्था में
प्राणी, स्वंय के निकट नहीं रहता. वह अपने से दूर रहता है. उसकी
चिन्तनधारा राग, द्वेष, मोह, वासना, ईर्ष्या, लोभ आदि भावों की और
प्रवाहित रहती है. कर्मों के आवरणों के हटने पर चित्र का रूझान
अन्तर्मुखी बनता है. दृष्टिकोण में परिवर्तन आता है. भावधारा निर्मल बनती
है. सात्विक भावों का अभ्युदय होता है. उसका चिन्तन पवित्र बनता है.
उसमें "मैं कौन हूँ" की जिज्ञासा उभरती है. यही जिज्ञासा लक्ष्य की दिशा
में उसे उत्प्रेरित करती है.
कर्म के उदयकाल में प्राणियों का रहन-सहन और दृष्टिकोण भौतिकता प्रधान
होता है. काम, क्रोध, अहंकार, ममत्व, स्वार्थ आदि क्षुद्रतम भावों का
प्राबल्य रहता है. उस स्थिति में "ध्यान क्यों" का संभवत: प्रश्न ही खड़ा
नहीं होता. यह प्रश्न कर्म की अनावृत स्थिति में खड़ा होता है. अनावरण
दशा में भी बड़ा तारतम्य रहता है. वह अवस्था भी सर्वथा मोह से शान्त नहीं
होती. मोह शुद्ध अवस्था का बाधक है. इसलिए ध्यान को भी अनेक व्यक्ति
शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक शान्ति के लिए मेडिशन की तरह इस्तेमाल करते
हैं. उनकी दृष्टि शरीर से उपर नहीं उठती.
आज का व्यक्ति कायिक व्याधियों और मानसिक आधियों का शिकार है. मनोकायिक
रोगों का फैलाव तीव्रता से बढ़ रहा है. जितना अधिक पदार्थवादी दृष्टिकोण
बनता है, उतना ही अधिक व्यक्ति परेशान दिखाई देता है. उस परेशानी से बचने
कि लिए वह विविध प्रकार की ड्रेग्स नशीली औषधियों का सेवन करता है. उनसे
उसे राहत मिलती है, किन्तु पूर्णरूपेण नहीं. बेचैनी शान्त नहीं होती. वह
औक उग्र रूप धारण करती है. उस उग्रता के शमन के लिए आदमी योग के पास जाता
है. योग शीरीरिक, मानसिक और भावात्मक तनावों से मुक्ति देता है. इसलिए
अनेक व्यक्तियों की दृष्टि इन्हीं के लिए बन जाती है. वे ध्यान को
स्वास्थ्य और मानसिक शान्ति के लिए प्रयुक्त करते हैं. जब कि ध्यान का यह
मूलभूत उद्देश्य नहीं है. मोह की उच्चतर क्षायोपशमिक अवस्था में ही कुछेक
साधक ध्यान के मौलिक उद्देश्य को पकड़ पाते हैं. ध्यान का प्रमुखतम ध्येय
है--आत्म-साक्षात्कार. अपने आपको, देखना या अनुभव करना ही ध्यान की मुख्य
देन है. इसलिए कहा है--आत्म-~ध्यानरतिर्ज्ञेयं, विद्वत्ताया परं
फलम्--पांडित्य का परम फल है--आत्म-ध्यान में अनुरक्त होना.
शुद्धात्मा का ध्यान ही साधक को जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, शोक से पार
करता है. "शोकं तरति आत्मवित्" श्रुति का कथन है कि आत्मवेवा पुरुष ही
शोक को तरता है. भगवान् महावीर ने कहा है--
"जत्रम दुक्खं, जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य.
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो..
यह संसार दु:ख-बहुल है जिसमें प्राणी शोक, क्लेश, आदि को प्राप्त हो रहे
हैं. उस दु:ख का रूप है--जन्म, जरा, मृत्यु और रोग. आत्मा का ध्यान इनसे
मुक्ति देता है. इसलिए उच्चकोटि के साधक का ध्येय आत्मा के अतिरिक्त अन्य
कुछ नहीं होता. सन्त दादू के पास "रज्जब" पहुँचे. वे दूल्हे की पोशाक में
थे. दादू ने उस मुसलमान युवक को देखा. चेहरे पर शांति और ज्ञान-पिपासा की
झलक देखी. दादू ने सोचा--यह जीव संसार से पार उतरने योग्य हैं. रज्जब की
और वे एकटक निहारते रहे. रज्जब की आत्मा भी इस स्नेह-दर्शन से तृप्त हो
गई. जब कुछ बातचीत हुई तो दादू के मुख से यह वाणी निकली--
Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Wednesday, January 6, 2010
ध्यान क्या है ?
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