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Friday, August 2, 2019

jaap Kyon AUR KESE KARE जप!! क्यों और कैसे?

जप!! क्यों और कैसे?



मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥

जप-उपासना के क्षेत्र में ‘नये साधकों’ के लिए जप संबंधी कुछ जिज्ञासाएं सहज हैं, उन्ही पाठकों के हितार्थ, मैंने अपने अनुभवों व अध्ययन के आधार पर एक ‘ब्लॉग’ तैयार किया है, जो आपके सम्मुख है-
शरीर को साफ रखने के लिए नित्य नहाना जरूरी है, उसी प्रकार कपड़े नित्य धोने आवश्यक हैं, घर की सफार्इ नित्य की जाती है। उसी प्रकार मन पर भी नित्य वातावरण में उड़ती-फिरती दुष्प्रवृतितयों की छाप पड़ती है, उस मलीनता को धोने के लिए नित्य “जप-उपासना” करनी आवश्यक है।

जप’ के द्वारा ”र्इश्वर” को स्मृति-पटल पर अंकित किया जाता है। ‘जप’ के आधार पर ही किसी सत्ता का ‘बोध’ और ‘स्मरण’ हमें होता है। स्मरण से आह्वान, आह्वान से स्थापना और स्थापना से उपलब्धि का क्रम चल पड़ता है। ये क्रम लर्निग-रिटेन्शन-रीकाल-रीकाग्नीशन के रूप में मनौवेज्ञानिकों द्वारा भी समर्थित है।

जप’ करने से जो घर्षण प्रक्रिया गतिशील होती है, वो ‘सूक्ष्म शरीर’ में उत्तेजना पैदा करती है और इसकी गर्मी से अन्तर्जत नये जागरण का अनुभव करता है। जो जप कर्ता के शरीर एवं मन में विभिन्न प्रकार की हलचलें उत्पन्न करता है तथा अनन्त आकाश में उड़कर सूक्ष्म वातावरण को प्रभावित करता है। इस ब्लॉग में हम केवल ”सात्विक मन्त्रों” के जप के संबंध में चर्चा करेंगें।
विभिन्न प्रकार के मन्त्रों के लिए भिन्न-2 प्रकार की मालाओं द्वारा जप किये जाने का विधान है। गायत्री-मंत्र या अन्य कोर्इ भी सात्विक साधना के लिए तुलसी या चंदन की माला लेनी चाहिए। कमलगट्टे, हडिडयों व धतूरे आदि की माला तांत्रिक प्रयोग में प्रयुक्त होती हैं 

कैसे करें मंत्र का जप सही विधि से, आप भी जानिए ..

जमीन पर बिना कुछ बिछाये साधना नहीं करनी चाहिए, इससे साधना काल में उत्पन्न होने वाली ‘विधुत’ जमीन में उतर जाती है। आसन पर बैठकर ही जप करना चाहिए। ‘कुश’ का बना आसन श्रेष्ठ है, सूती आसनों का भी प्रयोग कर सकते हैं। ऊनी, चर्म के बने आसन, तांत्रिक जपों के लिए प्रयोग किये जाते हैं।

उस अवस्था में पालथी लगाकर बैठे, जिससे शरीर में तनाव उत्पन्न न हो, इसे ‘सुखासन’ भी कह सकते हैं। यदि लगातार एक स्थिति में न बैठा जा सकें, तो आसन (मुद्रा) बदल सकते हैं। परन्तु पैरों को फैलाकर जप नहीं करना चाहिए। वज्रासन, कमलासन या सिद्धासन में बैठकर भी साधना की जा सकती है, परन्तु गृहस्थ मार्ग पर चलने वाले साधक व्यक्तियों को ‘सिद्धासन’ में में ज्यादा देर तक नहीें बैठना चाहिए।

जप के तीन प्रकार होते हैं-

  • (1) वाचिक जप-वह होता है जिसमें मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है।
  • (2) उपांशु जप-वह होता है जिसमें थोड़े बहुत जीभ व होंठ हिलते हैं, उनकी ध्वनि फुसफुसाने जैसी प्रतीत होती है।
  • (3) मानस जप-इस जप में होंठ या जीभ नहीं हिलते, अपितु मन ही मन मन्त्र का जाप होता है। ‘जप साधना’ की हम इन्हें तीन सीढि़यां भी कह सकते हैं। नया साधक ‘वाचिक जप’ से प्रारम्भ करता है, तो धीरे-धीरे ‘उपांशु जप’ होने लगता है, ‘उपांशु जप’ के सिद्ध होने की स्थिति में ‘मानस जप’ अनवरत स्वमेव चलता रहता है। 
  • जप जितना किया जा सकें उतना अच्छा है, परन्तु कम से कम एक माला (108 मन्त्र) नित्य जपने ही चाहिए। जितना अधिक जप कर सकें उतना अच्छा है।

  • किसी योग्य सदाचारी, साधक व्यक्ति को गुरू बनाना चाहिए, जो साधना मार्ग में आने वाली विध्न-बाधाओं को दूर करता रहें व साधना में भटकने पर सही मार्ग दिखा सकें। यदि कोर्इ गुरू नहीं है तो ”कृपा करो गुरूदेव की नायी” वाली उक्ति मानकर ”हनुमान” जी को ‘गुरू’ मान लेना चाहिए।
  • प्रात:काल पूर्व की ओर तथा सायंकाल पश्चिम की ओर मुख करके जप करना चाहिए। “गायत्री मंत्र” उगते “सूर्य” के सम्मुख जपना सर्वश्रेष्ठ हैै। क्योंकि गायत्री जप, सविता (सूर्य) की साधना का ही मन्त्र है।
  • एकांत में जप करते समय माला को खुले रूप में रख सकते हैं, जहां बहुत से व्यक्तियों की दृषिट पड़े। वहां ‘गोमुख’ में माला को डाल लेना चाहिए या कपड़े से ढक लेना चाहिए।
  • माला जपते समय सुमेरू (माला के आरम्भ का बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। एक माला पूरी करके उसे ‘मस्तक व नेत्रों’ पर लगाना चाहिए तथा पीछे की ओर उल्टा ही वापस कर लेना चाहिए।
जन्म एवं मृत्यु के सूतक हो जाने पर, माला से किया जाने वाला जप स्थगित कर देना चाहिए, केवल मानसिक जप मन ही मन चालूू रखा जा सकता हैं।
  • जप के समय शरीर पर कम कपड़े पहनने चाहिये, यदि सर्दी का मौसम है तो कम्बल आदि ओढ़कर सर्दी से बच सकते हैं।
  • जप के समय ध्यान लगाने के लिए जिस जप को कर रहे उनसे संबंधित देवी-देवता की तस्वीर रख सकते हैं, यदि र्इश्वर के ‘निराकार’ रूप की साधना करनी है, तो दीपक जला कर उसका ‘मानसिक ध्यान’ किया जा सकता है, दीपक को लगातार देख कर जप करने की क्रिया ‘दीपक त्राटक’ कहलाती है। इसे ज्यादा देर करने से आंखों पर विपरित प्रभाव पड़ सकता है, अत: बार-बार दीपक देखकर, फिर आंखे बन्द करके उसका मानसिक ध्यान करते रहना चाहिए। सूर्य के प्रकाश का मानसिक ध्यान करके भी जप किया जा सकता है।
माला को कनिषिठका व तर्जनी उगली से बिना स्पर्श किये जप करना चाहिये। कनिषिठका व तर्जनी से जप, तांत्रिक साधनाओं में किया जाता है। 
  • ब्रह्ममुहुर्त जप, ध्यान आदि के लिए श्रेष्ठ समय होता है, हम शाम को भी जप कर सकते हैं, परन्तु रात्रि-अर्धरात्रि में केवल तांत्रिक साधनाएं ही की जाती हैं।
  • गायत्री’ व ‘महामृत्युंजय’ मन्त्र के जप प्रारम्भ में कठिन लगते हैं, परन्तु लगातार जप करने से जिव्हा इनकी अभ्यस्त हो जाती है और कठिन उच्चारण वाले मन्त्र भी सरल लगने लगते हैं। 
  • मन्त्र जप का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, जप में एक निश्चित लय-ताल-गति का होना, तभी ये प्रभावशाली होते हैं। इसके प्रभाव का अन्दाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि ‘सैनिकों’ को पुल पर पैंरों को मिलाकर चलने से उत्पन्न क्रमबद्ध ध्वनि उत्पन्न करने के लिए इसलिए मना कर दिया जाता है, कि इस क्रमबद्धता की साधारण क्रिया से पुल तोड़ देने वाला असाधारण प्रभाव उत्पन्न हो सकता है।
  • अन्त में, जप-साधना का एक मात्र उद्देश्य भगवान व भक्त के बीच एकात्म भाव की स्थापना करना है, ‘इष्ट’ का चित्र देखते रहने से, काम नहीें चलता। ‘साकार उपासना’ में ‘इष्ट देव’ का सामीप्य, अति सामीप्य होने के साथ-साथ उच्चस्तरीय प्रेम के आदान-प्रदान की गहरी कल्पना करनी चाहिए। 
  • साधक-भगवान के साथ, स्वामी-सखा-पिता-पुत्र किसी भी रूप में ‘सघन संबंध’ स्थापित कर सकता है, इससे आत्मीयता बढ़ती है और हम र्इश्वर के निकट व अति निकट होते जाते हैं।
एक ‘दोहे’ के साथ ‘ब्लॉग’ समाप्त करता हूँ-
           जब  मैं  था हरी नहीें अब हरी है मैं नाय,
           प्रेम गली अति सांकरी ता मैं दो न समाय।

Friday, April 21, 2017

Mahakaal Mahima by Gurudev (Dr. Narayan Dutt Shrimali)

In this pravachan Gurudev (Dr. Narayan Dutt Shrimali) talks about how we can take control devtas by mantras and further he also gives mahakaal vivechan and the importance of 'Kaal' (samay) in our lives 

Finally at the end gurudev declares that if he equal to Krishna and Buddha 




Thursday, September 13, 2012

Diksha methodology, significance, kinds


दीक्षा-पद्धति, महत्व, प्रकार, आदि.
Diksha - methodology, significance, kinds

दीक्षा क्या हैं?

मेरे शिष्य मेरी सम्पदा -सदगुरुदेव

“दीक्षा” सदगुरु दर्शन, स्पर्श और शब्द के द्वारा शिष्य के भीतर शिवभाव उत्पन्न करने की क्रिया हैं | ‘दीक्षा’ज्ञान देने की क्रिया हैं, जिसके द्वारा जीव का उद्धार होता हैं, और वह अपने मूल स्वरुप ब्रह्म तक जाकर अखंडानंद में लीन हो जाता हैं | ‘दीक्षा’ का रहस्य इतना गूढ़ और जटिल हैं, कि उसे मात्र कुछ शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता हैं, क्योंकि यह तो साक्षात् ईश्वर द्वारा गुरु रूप में उपस्थित होकर मनुष्य को पूर्णता प्रदान करने की क्रिया हैं | ‘दीक्षा’ को ही सम्पूर्ण साधना कहा गया हैं, सदगुरु यदि शक्तिपात द्वारा अपनी शक्ति का कुछ अंश दीक्षा के माध्यम से अपने शिष्य को देते हैं, तो फिर किसी भी प्रकार की, उससे सम्बंधित साधना की उसे आवश्यकता ही नहीं पड़ती, क्योंकि ‘दीक्षा’ साधना सिद्धि का द्वार खोलने की क्रिया हैं, जिससे साधक अपने जीवन को निश्चित अर्थ दे सकता हैं |

“दीक्षा” का तात्पर्य यही हैं, कि सदगुरु के पास तपस्या का जो विशेष अंश हैं, जो आध्यात्मिक पूँजी हैं, उसे वे अपने नेत्रों के माध्यम से शक्तिपात क्रिया द्वारा, शिष्य को दैहिक, भौतिक, आध्यात्मिक आवश्यकतानुसार उसके हृदय में उतार सकें | यदि शिष्य का शरीर रुपी कपडा मैला हो गया हैं, तो सदगुरुदेव उसे बार-बार दीक्षा के माध्यम से धोकर स्वच्छ कर सकें!

दीक्षाओं की आवश्यकता क्यों और किसलिए?
दीक्षाओं की आवश्यकता क्यों और किसलिए?

युग परिवर्तन की इस संधिबेला में दिन-प्रतिदिन ऐसी अनहोनी घटनाएं घट रही हीं, कि हर मानव-मन अपने जीवन की सुरक्षा को लेकर भयभीत व चिंतित हैं, वह किसी ऐसी सत्ता के आश्रय की खोज में हैं, जो उसे, उसके परिवार को, सुरक्षा कवच पहिनाकर, उसकी सारी परेशानियों को अपने ऊपर लेकर उसे भयमुक्त कर सकें, और यह सुरक्षा उसे सदगुरु के द्वारा प्रदान की गई दीक्षाओं से ही प्राप्त हो सकती हैं | दीक्षाओं को लेने की आवश्यकता हमारे जीवन में इसलिए भी हैं क्योंकि :

1. दीक्षा प्राप्ति के उपरांत शिष्य को उससे सम्बंधित किसी भी प्रकार की साधना करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती|
2. सदगुरु अपनी ऊर्जा के प्रवाह द्वारा शिष्य के शरीर में वह शक्ति प्रवाहित कर देते हैं, जिससे उसे मनोवांछित सफलता प्राप्त होती ही हैं|
3. यह शास्त्रीय विधान हैं, कि जब तक साधक या शिष्य किसी साधना से सम्बंधित दीक्षा विशेष को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक वह सफलता प्राप्त नहीं कर सकता|
4. जीवन के दुःख, दैन्य, भय, परेशानी, बाधा एवं अडचनों को दूर कर शारीरिक, मानसिक, आर्थिक लाभ हेतु भी दीक्षाओं की आवश्यकता होती हैं|
5. नैतिक उत्थान के साथ-साथ जीवन में बासंती हवा जैसी मधुरता और सूर्य जैसा प्रकाश दीक्षाओं के माध्यम से ही संभव हैं|
6. जीवन में अनवरत उन्नति, सफलता, विजय, सुख-शांति, ऐश्वर्य, यश व कीर्ति पाने के लिए|
7. भविष्य ज्ञान, भविष्य कथन की विद्या ज्ञात करने, वर्तमान को संवारने हेतु!
8. शारीरिक सौंदर्य, सम्मोहन, निरोगी काया, प्रेम में सफलता व अनुकूल विवाह हेतु|
9. सभी प्रकार की अपनी गुप्त इच्छाओं की पूर्ती हेतु|
10. सभी प्रकार के कष्टों, समस्याओं का निवारण, मनोवांछित कार्य एवं इच्छाओं की पूर्ति हेतु जीवन को सही दिशा प्रदान करने के लिए दीक्षाओं की आवश्यकता प्रत्येक मानव को पड़ती ही हैं|

-: दीक्षाओं के प्रकार :-
-: दीक्षाओं के प्रकार :-
दीक्षाओं को शास्त्रों में 108 प्रकार से वर्णित किया गया हैं| इन 108 दीक्षाओं में भौतिक, शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान और सभी सभी प्रकार के सुखों की उपलब्धि छिपी हुई हैं| स्त्री हो या पुरुष, बालक हो या वृद्ध, चाहे किसी भी समुदाय, जाति, संप्रदाय का व्यक्ति क्यों न हो, इन दीक्षाओं को पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी से कसी भी शिविर में या जोधपुर स्थित उनके गुरुधाम में पहुँच कर प्राप्त कर सकता हैं| व्यक्ति चाहे तो इनमें से एक, दो या कुछ चुनी हुई दीक्षाएं या समस्त दीक्षाएं अपनी इच्छानुसार ले सकते हैं| इन दीक्षाओं को 108 भागों में इस प्रकार बांटा गया हैं-

-: कब कौन सी दीक्षा ली जाएँ :-
1. सामान्य दीक्षा : शिष्यत्व धारण करने हेतु यह प्रारंभिक गुरु दीक्षा हैं|
2. ज्ञान दीक्षा : अद्वितीय ज्ञान की प्राप्ति और मेधा में वृद्धि हेतु|
3. जीवन मार्ग : जीवन के सारे अवरोधों, अशक्तता को समाप्त करके जीवन को चैतन्यता प्रदान करने वाली दीक्षा|
4. शाम्भवी दीक्षा : शिवत्व प्राप्त कर शिवमय होने के लिए|
5. चक्र जागरण दीक्षा : समस्त षट्चक्रों को जाग्रत कर अद्वितीय बनाने वाली दीक्षा|
6. विद्या दीक्षा : जड़मति को सूजन कालीदास बना देने वाली दीक्षा|
7. शिष्याभिषेक दीक्षा : पूर्ण शिष्यत्व प्राप्त करने के लिए|
8. आचार्याभिषेक दीक्षा : ज्ञान की पूर्णता के लिए|
9. कुण्डलिनी जागरण : इस दीक्षा के सात चरण हैं| इसे एक-एक करके भी लिया जा सकता हैं या एक साथ सातों चरणों की दीक्षा द्वारा कुण्डलिनी का जागरण कर अद्वितीय व्यक्तित्व का धनी बना जा सकता हैं|
10. गर्भस्थ शिशु चैतन्य : गर्भस्थ बालक को अभिमन्यु की भांति मनोनुकूल बनाने हेतु दीक्षा!
11. शक्तिपात से कुण्डलिनी : गुरु की तपस्या के अंश, दीक्षा द्वारा प्राप्त कर प्रथम व जागरण दीक्षा जीवन का अंतिम सत्य प्राप्त करने हेतु|
12. फोटो द्वारा कुण्डलिनी जागरण दीक्षा : यह दीक्षा व्यक्ति के उपस्थित न होने पर फोटो से भी प्राप्त की जा सकती हैं|
13. धन्वंतरी दीक्षा : निरोगी काया प्राप्त करने हेतु|
14. साबर दीक्षा : तांत्रिक साधना में सफलता व सिद्धि के लिए|
15. सम्मोहन दीक्षा : अपने अंदर अद्भुत सम्मोहन पैसा करने हेतु|
16. सम्पूर्ण सम्मोहन दीक्षा : सभी को सम्मोहित करने की कला प्राप्ति हेतु|
17. महालक्ष्मी दीक्षा : सुख-सौभाग्य, आर्थिक लाभ की प्राप्ति हेतु|
18. कनकधारा दीक्षा : लक्ष्मी के निरंतर आवागमन के लिए|
19. अष्टलक्ष्मी दीक्षा : धन प्रदायक विशेष दीक्षा|
20. कुबेर महादीक्षा : कुबेर की भांति स्थायी सम्पन्नता पाने हेतु|
21. इन्द्र वैभव दीक्षा : इन्द्र जैसा वैभव, यश प्राप्त करने हेतु|
22. शत्रु संहारक दीक्षा : शत्रु से बदला लेने हेतु|
23. प्राण वल्लभा अप्सरा : प्राणवल्लभा अप्सरा की सिद्धि हेतु|
24. सामान्य ऋण मुक्ति : ऋण से मुक्त होने हेतु|
25. शतोपंथी दीक्षा : शिव की अद्वितीय शक्ति प्राप्ति हेतु|
26. चैतन्य दीक्षा : स्फूर्तिदायक, पूर्ण चैतन्यता प्रदान करने वाली दीक्षा|
27. उर्वशी दीक्षा : वृद्धता मुक्ति एवं यौवन प्राप्ति हेतु|
28. सौन्दर्यौत्तमा अप्सरा : पुरुष व स्त्री दोनों का ही पूर्ण कायाकल्प करने हेतु|
29. मेनका दीक्षा : विश्वामित्र की तरह पूर्ण साधनात्मक व भौतिक सफलता प्राप्ति हेतु|
30. स्वर्ण प्रभा यक्षिणी : आकस्मिक धन प्राप्ति के लिए|
31. पूर्ण वैभव दीक्षा : समस्त प्रकार के आनन्द, वैभव की प्राप्ति हेतु|
32. गन्धर्व दीक्षा : गायन संगीत में दक्षता के लिए|
33. साधना दीक्षा : पूर्वजन्म की साधना को इस जन्म से जोड़ने हेतु|
34. तंत्र दीक्षा : तांत्रिक साधनाओं में सफलता हेतु|
35. बगलामुखी दीक्षा : शत्रु को परास्त कर अपने अंदर अद्वितीय साहस भरने वाली दीक्षा|
36. रसेश्वरी दीक्षा : रसायन-शास्त्र में दक्षता के लिए तथा पारद -संस्कार विद्या प्राप्त करने हेतु|
37. अघोर दीक्षा : शिवोक्त साधनाओं की पूर्ण सफलता के लिए|
38. शीघ्र विवाह दीक्षा : विवाह सम्बन्धी रुकावटों को मिटाकर शीघ्र विवाह हेतु|
39. सम्मोहन दीक्षा : यह तीन चरणों वाली महत्वपूर्ण दीक्षा हैं|
40. वीर दीक्षा : वीर साधना संपन्न कर, वीर द्वारा इच्छानुसार कार्य संपन्न कराने के लिए|
41. सौंदर्य दीक्षा : अद्वितीय सौंदर्य प्रदान करने वाली दीक्षा|
42. जगदम्बा सिद्धि दीक्षा : देवी को सिद्ध करने वाली दीक्षा|
43. ब्रह्म दीक्षा : सभी दैवीय शक्तियों को प्राप्त करने वाली दीक्षा|
44. स्वास्थ्य दीक्षा : सदैव स्वस्थ व निरोगी बनने हेतु|
45. कर्ण पिशाचिनी दीक्षा : सभी के भूत-वर्तमान को ज्ञात करने के लिए|
46. सर्प दीक्षा : सर्प दंश से मुक्ति व सर्प से आजीवन सुरक्षा हेतु|
47. नवार्ण दीक्षा : त्रिशक्ति की सिद्धि के लिए|
48. गर्भस्थ शिशु की कुण्डलिनी जागरण दीक्षा : इससे गर्भस्थ बालक के संस्कार महापुरुषों जैसे होते हैं|
49. चाक्षुष्मती दीक्षा : नेत्र ज्योति बढ़ाने के लिए|
50. काल ज्ञान दीक्षा : सही समय पहिचान कर उसका सदुपयोग करने हेतु|
51. तारा योगिनी दीक्षा : तारा योगिनी की सिद्धि हेतु, जिससे जीवन भर अनवरत रूप से धन प्राप्त होता रहे|
52. रोग निवारण दीक्षा : समस्त रोगों को मिटने हेतु|
53. पूर्णत्व दीक्षा : जीवन में पूर्णता प्रदान करने वाली दीक्षा|
54. वायु दीक्षा : अपने-आप को हल्का, हवा जैसा बनाने हेतु|
55. कृत्या दीक्षा : मारक सिद्धि प्रयोग की दीक्षा|
56. भूत दीक्षा : भूतों को सिद्ध करने की दीक्षा|
57. आज्ञा चक्र जागरण दीक्षा : दिव्य-दृष्टि प्राप्ति के लिए|
58. सामान्य बेताल दीक्षा : बेताल शक्ति को प्रसन्न करने के लिए|
59. विशिष्ट बेताल दीक्षा : बेताल को सम्पूर्ण सिद्ध करने के लिए|
60. पञ्चान्गुली दीक्षा : हस्त रेखा-शास्त्र में निपुणता प्राप्त करने के लिए|
61. अनंग रति दीक्षा : पूर्ण सौंदर्य एवं यौवन शक्ति प्राप्त करने के लिए|
62. कृष्णत्व गुरु दीक्षा : जगत गुरुत्व प्राप्त करने के लिए|
63. हेरम्ब दीक्षा : गणपति की सिद्धि हेतु|
64. हादी, कादी, मदालसा : नींद व भूख-प्यास पर नियंत्रण के लिए|
65. आयुर्वेद दीक्षा : आयुर्वेद के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि के लिए|
66. वराह मिहिर दीक्षा : ज्योतिष के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि के लिए|
67. तांत्रोक्त गुरु दीक्षा : गुरु से हठात (बल पूर्वक) शक्ति प्राप्ति हेतु|
68. गर्भ चयन दीक्षा : अपने मनोनुकूल गर्भ की प्राप्ति हेतु|
69. निखिलेश्वरानंद दीक्षा : संन्यास की विशेष भावभूमि प्राप्ति हेतु|
70. दीर्घायु दीक्षा : लंबी आयु की प्राप्ति हेतु दीक्षा|
71. आकाश गमन दीक्षा : इससे मन, आत्मा, आकाश का भ्रमण करती हैं|
72. निर्बीज दीक्षा : जन्म-मरण, कर्म-बंधन की समाप्ति के लिए|
73. क्रिया-योग दीक्षा : जीव-ब्रह्म ऐक्य ज्ञान प्राप्ति हेतु|
74. सिद्धाश्रम प्रवेश दीक्षा : सिद्धाश्रम में प्रवेश पाने हेतु|
75. षोडश अप्सरा दीक्षा : जीवन में समस्त सुख-सौभाग्य, संपत्ति प्राप्ति के लिए|
76. षोडशी दीक्षा : सोलह कला पूर्ण, त्रिपुर सुंदरी साधना हेतु|
77. ब्रह्माण्ड दीक्षा : ब्रह्माण्ड के अनंत रहस्यों को जानने के लिए|
78. पशुपातेय दीक्षा : शिवमय बनने के लिए|
79. कपिला योगिनी दीक्षा : राज्य बाधा एवं नौकरी में आने वाली अडचनों को दूर करने हेतु|
80. गणपति दीक्षा : भगवान गणपति की विशिष्ट कृपा प्राप्ति हेतु|
81. वाग्देवी दीक्षा : वाक् चातुर्य एवं वाक् सिद्धि के लिए|


इसके अतिरिक्त कुछ विशिष्ट उच्च कोटि की दीक्षाएं भी हैं, जो पूज्य गुरुदेव से परामर्श कर प्राप्त की जा सकती हैं|

“दीक्षा का तात्पर्य यह नहीं हैं कि आप जिस उद्देश्य के लिए दीक्षा ले रहे हैं, वह कार्य संपन्न हो ही जाएँ, अपितु दीक्षा का तात्पर्य तो यह हैं कि, आप जिस उद्देश्य के लिए दीक्षा ले रहे हैं, उस कार्य के लिए आपका मार्ग प्रशस्त हो|”

नोट: मेरी सलाह यह हैं कि किसी भी दीक्षा की प्राप्ति के पूर्व हो सके तो गुरुदेव से अवश्य परामर्श ले ले...
जिससे कि आपका कार्य अतिशीघ्र पूर्ण हो सकें.


दीक्षाओं के लिए निश्चित न्यौछावर राशि देने की आवश्यकता क्यों:-


1. क्योंकि यह हमारी भारतीय परम्परा रही हैं, कि हम गुरु का ज्ञान बिना गुरु दक्षिणा के प्राप्त नहीं कर सकते|
2. बिना गुरु आज्ञा के विद्या सीखने पर एकलव्य को भी अंगूठा दान देना ही पड़ा था|
3. व्यक्ति के पास इतना समय, साधना व आध्यात्मिक शक्ति नहीं हैं, कि वह कठोर साधना कर सकें, इसलिए दीक्षा की कुछ दक्षिणा-राशि गुरु-चरणों में अर्पित कर, वह उस साधना के रूप में तपस्या के अंश को प्राप्त करता हैं| अपने समय, श्रम द्वारा गुरु-सेवा न कर सकने के बदले वह अपना अंशदान देता हैं|
4. आपकी दीक्षा के बदले दी गई राशि अनगिनत साधू-सन्यासियों, तपस्वियों, योगियों का भरण-पोषण करती हैं|
5. इस धन के माध्यम से स्थान-स्थान पर निःशुल्क चिकित्सा, प्याऊ, निर्धनों के लिए कम्बल एवं वस्त्र वितरण आदि समाजोपयोगी कार्य संपन्न होते हैं|
6. गरीबों एवं निर्धन विद्यार्थियों की शिक्षण सुविधा के लिए भी आपका दिया हुआ यह अंशदान उन्हें सहायता के रूप में प्राप्त होता हैं|

आदि....

आदि....