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Monday, March 2, 2015

यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे The challenge now, then when wake up, not even wake up ?



यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे
बहुत मुश्किल हैं, अपने आपकी जज्ब करना और बढ़ते हुए पारे को रोक कर नियंत्रित करना, मैं ब्राह्मण पुत्र हूँ और विनम्रतापूर्वक मुझे गर्व हैं, कि मेरी धमनियों में वशिष्ठ, विश्वामित्र, कणाद और पुलत्स्य जैसे ऋषि मुदगल का रक्त बह रहा हैं, मंत्रों और तंत्रों के चरणों में मैंने अपनी शानदार जवानी को समर्पित कर दिया हैं. जो उम्र मौज, शौक, आनंद और प्रसन्नता की होती हैं, वह उम्र मैंने हिमालय की कंटकाकीर्ण पगडंडियों पर विचरण करते हुए बितायी हैं, जो उम्र मखमली गद्दों पर सोने की होती हैं, उस उम्र में मैं अपनी पीठ के नीचे उबड़ खाबड़ पहाडों की चट्टानें रख कर सोया हूँ और जो उम्र नवोढ़ा दर्शन में व्यतीत होती हैं, वह उम्र मैंने जर्जर वृद्ध और सूखे हुए सन्यासियों के चरणों में व्यतीत की हैं. पर मुझे इस बात का अफ़सोस नहीं हैं, आज जब इस जीवन यात्रा के पथ पर एक क्षण रूक कर पीछे की और मुड़कर नापे हुए, रस्ते को देखता हूँ तो मुझे अपने आप पर गर्व होता हैं, कि मैंने उस रास्ते पर पैर बढाये हैं, जिस पर कंकर पत्थर कांटे और शूलों के अलावा कुछ भी नहीं हैं. मैं उन हिंसक सामाजिक भेड़ियों के बीच में से बढ़ता हुआ इस जगह तक पहुँचा हूँ जहाँ तक पहुचने के लिए जिंदगी को दांव पर लगाना पड़ता हैं, बिना जिजीविषा के यह रास्ता पार करना सम्भव नहीं. यहाँ पग-पग पर आलोचना, झूठे आक्षेप और प्रताड़ना के अलावा कुछ भी नहीं. ये दिखावटी भेड़िये हैं और इनके दांतों में निंदा रुपी मांस के टुकड़े अटके पड़े हैं, इस मांसों के टुकडों को कुतरने और इन हड्डियों को चबाने में इन्होने अपनी जिंदगी की पूर्णता समझी हैं, जिसका जैसा आत्म होता हैं, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता हैं, सैकड़ों वर्षों से इनका प्रयत्न यही रहा हैं कि रास्ते पर बढ़ने वाले पुरूष को खिंच कर अपनी जमात में मिला लिया जाए, उन्हें भी वही सब कुछ करने का ज्ञान दिया जायें, जो वह करते आ रहे हैं. और मैंने जिंदगी के इस पड़ाव पर एक क्षण के लिए ठहर कर चिंतन किया हैं, तो मेरी झोली में उपलब्धियां ही उपलब्धियां हैं. जब समाज मुग़लों और अंग्रेजों की दासता के नीचे छटपटा रहा था, तब मैंने स्वतन्त्रता के दीपक को जितना भी हो सकें जलाये रखने और अंधड़ तूफ़ान से बचाए रखने का प्रयत्न किया हैं, मैंने गुलामी के अन्धकार को अपनी नंगी आंखों से देखा हैं, अपनी जवानी में मैंने भारत-पाकिस्तान के समय मनुष्य की पाशविकता को अनुभव किया हैं, आधी रात को उन धर्मान्धियों के द्वारा मारे गए मनुष्यों की लाशों पर पाँव रखते हुए बाहर आने के लिए प्रयत्न किया हैं, मैंने वह सब अपनी इन आंखों से देखा हैं, उस दर्द को भोगा हैं, मैंने अपने देवता स्वरुप मित्रों को इन हत्यारों के हाथों कुचलते हुए अनुभव किया हैं. मैं इस दर्द का साक्षी हूँ, और मेरे सारे शरीर के दर्द अभी भी कभी-कभी कचोट मार लेता हैं. और मैंने उन भगवे कपड़े पहिने हुए सन्यासियों को देखा हैं, जो धार्मिक स्थानों पर या जंगलों में चमकीले कपड़े पहिने हुए अपने आपको पुजवाते हुए, ख़ुद के ही ललाट पर सिंदूर लगा कर बैठे हुए देखा हैं. मैंने इनके अन्दर झांक कर अनुभव किया हैं कि केवल ढोंग, पाखंड और छल के अलावा इसके पास कोई पूँजी नहीं हैं, भारतीय आप्त वाणी को भुनाते हुए ये गली कुचों में भटकने वाले भिक्षुओं से भी गए गुजरे हैं, और इनके छल, इनके झूठ और इनके पाखंड के दर्द को मैंने जहर की तरह गले के नीचे उतारा हैं, और भोगा हैं. बड़े-बड़े आश्रमों के ठेठ अन्दर अपने आपको छिपा कर कभी-कभी दर्शन देने वाले इन हथकण्डे बाज सन्यासियों को भी देखा हैं, जिनके पास थोथी बाजीगरी और लफ्फाजी का व्यापार हैं, और यह सब देखकर मेरे शरीर का पारा निश्चित रूप से इतना अधिक बढ़ जाता हैं कि कई बार मुझे अपने आप पर शर्म आने लगती थी कि मैं इन लोगों जैसे ही कपडे पहने हुए हूँ. पर इस अन्धकार में भी मुझे पच्चीस हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए, मुदगल ऋषि के शब्द कानों में बराबर झंकृत हो रहे थे कि अँधेरा पीने वाला ही प्रकाश दे सकता हैं और जो अपने गले में जहर उतरने की हिम्मत रखता हैं, वही नीलकंठ कहला सकता हैं और मैंने इस जहर को हजार-हजार बार पिया हैं, इस अंधेरे में हज़ार-हज़ार बार ठोकरे खायी हैं, पैर लहुलुहान हुए और मैं उस ऋषि की आप्त वाणी की डोर के सहारे बराबर बढ़ता रहा हूँ, कि यदि सूर्य उगने तक मेरी जिंदगी का यह दीपक जलता रहा, तो मैं अवश्य ही उतनी रौशनी तो करता ही रहूँगा, जितनी कि घटाटोप अन्धकार में भारत वर्ष की आँखों को दिखाई दे सकने वाली सामर्थ्य दी जा सकें. और इस अंधकार का पार करते-करते मेरे जिंदगी के सुनहरे दिन समाप्त हो गए, यौवन का आनद पत्थरों से ठोकरे खा खा कर विलुप्त हो गया. आंखों के सुनहरे स्वप्न जंगलों की झड़बेरियों में उलझ कर रह गए, परिवार छुट गया, घर बार छुट गया, जवानी और मस्ती छुट गई, पर इन सबसे परे मुझे वह सब कुछ प्राप्त हुआ, जो हमारे पूर्वजों की धरोहर हैं, उन पूर्वजों ने उन कणाद, पुलस्त्य, अत्रि और मुदगल ने जो कुछ थाती हमें सौंपी थी, हमारे कायर पूर्वजों ने उस थाती को भोज पत्रों और ताड़ पत्रों में छुपा निश्चिंत हो गए थे कि हमने फ़र्ज़ पूरा कर लिया, पर आने वाली पीढियों ने उन लोगों को न माफ़ करने वाली चुन-चुन कर ऐसी गालियाँ दी कि वे पीढियां ही काल के गर्भ में समाप्त हो गई, उनके नाम का भी अस्तित्व नहीं रहा, निश्चय ही शंकराचार्य और गोरखनाथ ने उस दीपक में अपने शरीर को तेल की तरह बना कर डाला और उस दीपक को बचाए रखा, उन्होंने अपनी जिंदगी और जवानी को दांव पर लगाकर उस बुझते हुए दीपक को संरक्षण देने का कार्य किया, और फ़िर कुछ उजाला फैला, कुछ समय के लिए फ़िर कुछ रोशनी हुयी, कुछ क्षणों के लिए ही सही, पर फ़िर कुछ साफ-साफ़ दिखाई देने लगा. पर बाद में एक ही झपट्टे में वह रौशनी मद्धिम पड़ गई. फ़िर हमारी पीढ़ियाँ शेर और शायरी में खो गई फ़िर हमारी जवानी घुन्घुरुओं की रुनझुन में सार्थकता अनुभव करने लगी और फ़िर उस दीपक पर अन्धकार के इतने मोटे-मोटे परदे टांग दिए गए कि दीपक का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया. हमारी पीढी को तो यह एहसास ही नहीं रहा कि हमारे पूर्वजों में वशिष्ठ और विश्वामित्र थे. उन्हें गौत्र शब्द का उच्चारण ही याद नहीं रहा, केवल विवाह के समय ब्राह्मण उनके गौत्र का उच्चारण कर भूले भटके उन ऋषियों में से एक का नाम उच्चारण कर लेता, और हम अजनबियों की तरह चौक उठते कि ग़ालिब, मीर, मिल्टन, और शैक्सपियर जैसे परिचित नामों में इस ब्राह्मण ने यह किस नाम का उच्चारण कर दिया, और फिर अपने आपको समझाकर गौरवान्वित हो जाते हैं कि यह एक जल्दी कराने वाले ब्राह्मण के मंत्रों का ही कोई एक भाग होगा. और पूरे पच्चीस हज़ार वर्षों में अंग्रेजो ने पहली बार हमारे खून को टेक्नोलॉजी के नाम पर ठंडा कर दिया, पश्चिम के ज्ञान ने हम को अपने ही देश में अजनबी बना दिया. हमें जेम्स, स्टुअर्ट, विक्टोरिया जैसे नाम ज्यादा परिचित अनुभव लगे, इंग्लैंड का इतिहास हमारी जिंदगी के ज्यादा निकट रहा और हमारे पाँव राजमार्ग से परे हट कर जिस अस्पष्ट पगडण्डी पर चढ़ रहे थे, वह पगडण्डी भी पैरों से छीन गई, और हम उस उजाड़ जंगल में आगे बढ़ने में ही गौरवशाली अनुभव करने लगे, जिसका कोई अंत नहीं था. और यह सब कुछ हमारे रक्त में मिल गया, हमारे चेहरे बदल गए, हमारी आंखों में अंग्रेजियत झलकने लगी, सिर पर हैट और गले में टाई बाँध कर शीशे में अपने आपको देखने का अभ्यास करने लगे और जब आँखें दीवारों पर टंगे माँ बाप या पूर्वजों के चित्रों पर अटकती तो विश्वास ना होता था, कि हम इनकी संतान हैं, मन के किसी कोने में आवाज़ उठती थी कि इस ड्राइंग रूम में इन फूहड़ और असभ्य लोगों के चित्र टांगना उचित नहीं और वे चित्र उठाकर फेंक देने में मन के किसी कोने में संतोष उभरता, कि हम बहुत कुछ हैं. और इसी खून ने हमें कुछ महाज्ञान भी दिया और यह महाज्ञान था, पूजा पाठ क्या होता हैं, देवताओं के दर्शन करना दकियानूसी हैं, मंत्र तंत्र ढोंग और पाखण्ड हैं, जब इनके कथाकथित माँ बाप अंग्रेज चर्च में घुटने टेक कर ईसा को स्मरण कर रहे होते तब हम घर में पड़ी हुयी देवताओं की मूर्तियों को पिछवाडे घूढ़े के ढेर पर फेंकते होते, जब वे पादरियों के वचनों को घूँट-घूँट पी रहे होते तब हम ब्राहमणों और सन्यासियों का मजाक उड़कर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे होते, जब वे बाईबिल को अपने सिर से लगा रहे होते, तब हम गीता और रामायण को ठोकर मारकर फेंकने में सभ्यता की पूर्णता अनुभव कर रहे होते, यह हमारी पीढ़ी का इतिहास हैं, और हमने यही कुछ प्राप्त किया हैं, इन सबसे मेरे कलेजे पर हजारों फफोले पड़े हैं, मेरी मृत्यु के बाद चिता पर आकर कोई भी मेरे नंगे सीने को उधेड़ कर देख सकता हैं, कि उस पर इतने अधिक जख्म लगे हैं, कि अब कोई नया जख्म लगने के लिए जगह बाकी ही नहीं बची हैं. और ऐसे ही कायर और गुलाम माँ बाप की संतानों ने दो चार शब्द रट रखे हैं, कि पत्रिका को साईंटिफीक तरीके से निकलना चाहिए, मंत्रों तंत्रों में कुछ नई टेकनिक लेनी चाहिए, योग और मंत्रों का साईंटिफीक बेस प्रस्तुत करना चाहिए, मैं तो कह रहा हूँ कि मंत्रों तंत्रों को ही नहीं अपने माँ बाप के पुराने दकियानूसी नामों को भी बदल देना चाहिए, अपनी वृद्धा माँ को भी साईंटिफीक रूप सिखाना चाहिए, अपने वयोवृद्ध पिता को भी नई टेक्निक देनी चाहिए, क्योंकि बिना साईंटिफीक बेस के उनका आधार ही क्या हैं? और जब इनके ये शब्द सुनता हु तो मुझे दो हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए ईसा को सूली पर चढ़ाते समय उनके कहे वाक्य याद आ जाते हैं, कि :- “हे भगवान्! इन्हें माफ़ करना, क्योंकि ये जानते नहीं कि ये क्या कह रहे हैं.” सुश्रुत ने एक बार कहा था, कि सूखा और टूटा हुआ पत्ता हलकी हवा में उसी तरफ़ उड़ने लगता हैं, जिधर हवा बहती हैं, लेकिन गहरी जड़ों वाला वटवृक्ष तेज अंधड़ में भी एक से दूसरी तरफ़ झुकता हुआ भी उखाड़ता नहीं, जिनके पास अपने जड़े नहीं होती, वे केवल ओपन माइंडेड ही हो सकते हैं, इसके अलावा होंगे भी क्या? आप पश्चिम के किसी भी विद्वान् से पूछ लीजिये तो वह भी बता देगा कि हमारी विद्यायें और हमारी तकनीक हमारी स्वयं की जीवन पद्धति से निकली हैं, और उनके द्वारा ही हम अपनी और समाज की समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं, अब कोई लल्लू भी आपको यह बता देगा कि भारतीय जीवन पद्धति अमेरिका या यूरोप की जीवन पद्धति से अलग हैं, यूरोपीय विद्याओं और तकनीक में ऐसा सर्वकालिक कुछ भी नहीं हैं, जो किसी भी परिस्थिति में सच हो, जबकि भारतीय चिंतन और दर्शन बीस हज़ार वर्ष पहले भी उतना ही सच था, जितना आज हैं, यहाँ पर मुझे पश्चिम के वैज्ञानिक सुमाकर की उक्ति याद आती हैं, जो उसने किसी भारतीय को कही थी :- “हे वत्स! पश्चिम के मोडल और टेक्नोलॉजी के पीछे पड़े हुए तुम लोगों पर इसीलिए तरस आता हैं, कि तुम अपनी प्रतिभा, शक्ति, समय और पैसा उन समस्याओं के समाधान में बरबाद कर रहे हो जो तुम्हारे समाज की नहीं, मेरे समाज की हैं.” जब आप अपनी चाबी किसी अनजान ताले में लगा कर उसे खोलने की कोशिश करेंगे तो आप ताला तो बिगडेगा ही, उसके साथ ही साथ कुंजी भी, हमने अभी तक यही किया हैं, हमने अपने जीवन और समाज के बंद पड़े तालों को उन चाबियों से खोलने की कोशिश की हैं, जो उनके लिए बनी ही नहीं हैं और इसीलिए हम पिछले सैकड़ों वर्षों से अपने तालों और चाबियों को ख़राब ही कर रहे हैं. हम हैं, और बहुत कुछ हैं, इसका प्रमाण पत्र लेने के लिए किसी दफ्तर में जाने की जरुरत नहीं, हम मृत्युंजयी संस्कृति के देश के बाशिंदे हैं, हमें बाहर से उच्च तकनीक को गले नहीं लगाना हैं, अपितु अन्दर से अपने सत्य का साक्षात्कार करना हैं, और यह हम स्वयं होकर ही कर सकते हैं, अपने मंत्रों के मध्यम से ही अपने योग और दर्शन के द्वारा ही अपनी जिंदगी को पूर्णता दे सकते हैं, हम विविध साधनाओं के द्वारा ही शरीर की धमनियों में बहते हुए, अशुद्ध रक्त को शुद्ध कर सकते हैं, और यह शुद्ध रक्त ही हमारे चेहरे पर पुनः भारतीयता दे सकेगा, हमारी आँखें वापिस अपने आपको पहिचानने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकेगी, और इन विशिष्ट साधनाओं में भाग लेकर ही हम उस आत्म से साक्षात्कार कर सकेंगे जो हमारा स्वयं का आत्म हैं. और जब ऐसा हो सकेगा, तभी हम अपने आपको पहिचान सकेंगे, तभी हम कूड़े के ढेर पर पड़े हुए अपने माँ बाप के चित्रों को पौंछ कर ड्राइंग रूम में लगाने में गौरव अनुभव कर सकेंगे, तभी हम अपने आत्म को जगाकर इष्ट के साक्षात् जाज्वल्यमान दर्शन कर सकेंगे, जो कि हमारे जीवन की पूर्णता हैं, और तभी मैं एहसास कर सकूँगा कि मेरे पांवों में गडे हुए लांखों कांटे और सीने में उठे हुए फफौले राहत दे रहे हैं, कि मुझे विश्वास हैं ऐसा होगा ही, और इसी सत्य को प्रदान करने की कामना लिए हुए, मैं अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हूँ, और बराबर जीवन की अन्तिम साँस तक अग्रसर बना रहूँगा.

-परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज. (सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी)

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान अप्रैल 2001

Tuesday, January 13, 2015

Identify your character !! अपने स्वरूप को पहचानिए !!

यदि आप मरना = माने अपने साथ सब ख़त्म हो जाना ) सोचते हैं तो आप बहुत भारी भ्रम में जी रहे हैं , क्योंकि मरने पर तो अगले जीवन की शुरुआत होती है !!
.......अपने स्वरूप को पहचानिए !!
जो अपने इस वास्तविक, नित्य , अमर-स्वरूप को अनुभव करता है , वो दरअसल मरता ही नहीं !!
.........यही मृत्युंजय बनना है !!!
जो मृत्यु को जीत लेता है , वही अभय पद प्राप्त करता है !!!
आपको जान कर आश्चर्य होगा -ये सब आसानी से जीते- जी प्राप्त हो सकता है !!!
....बस आपको जरूरत है तो एक सही संगत की !!!

काम ।क्रोध।मद ।मोह।और लोभ छोड़ने के चक्कर में रहेंगे ।तो ये जीवन भर नहीं छुटता ।छोड़ना भी पकड़ने जैसा ही है ।क्योकि स्मरण पहले बनता था ।ये विकार है अब स्मरण बनी रहेगी छोड़ना है।
है वही के वाही ।एक उपाय है नाम जाप या मन्त्र जाप करते रहने से इन विकारो को पकड़ने और छोड़ने की बात नहीं चलती ये स्वतः ही समाप्त हो जाते है।
वो कहते है न पायोजी मैंने राम रतन धन पायो।बस्तु अमोलक दिन्ह मेरे सतगुरु विरथा कुछ छोड़ना पकड़ना नहीं है ।वस उनकी स्मरण बनी रहे ।

I am in love You मैं तुम्हें अत्यधिक प्रेम करता हूं

जीवन का लक्षय प्राप्त किये बिना ही जीवन बीत गया। अभी भी समय है, उठो,जागो
भक्त से शिष्य बनने का सद्अवसर है , उठो,जागो सोचो मत।
केवल "पुरूशार्थ करो, केवल "पुरूशार्थ
बिना कुछ किये ही आशीर्वाद मत मांगो। तुम मेरे हो, अतिशय प्रिय हो। मैं तुम्हें अत्याधिक प्रेम करता हूं।

पल प्रतिपल तेरी हर प्रकार से सहायता करने को तत्पर हूं। आज से, अभी से
अब तो मेरे आश्वासन का, मेरी कृपा का एवं इस अनमोल अवसर का सदुपयोग करो। मैं हर प्रकार से तुम्हारे साथ हूँ। सांसारिक सुख के पीछे मत भटकते रहो,उसकी चाह को ही मिटा दो।
अविनाशी सुख, परम शांति अर्थात परमानंद की प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य है। तू एक बूंद पानी, मेरा ही अंश, मुझ अंशी सागर को प्राप्त हो।
यही है मिलन, जीव का अपने घर लौटना। जल्दी करो। मैं दोनो नही, असंख्य हाथ... बांहे फैलाये तेरी प्रतीक्षा कर रहा हूं।
मेरा ह्रदय तेरे लिये व्याकुल है, मिलन के लिये तड़प रहा है। जल्दी लौट आओ।

अगर आप दुनिया की भीड़ से बचना चाहते हो बस एक काम करना, प्रेमके रास्ते पर
चलना शुरू कर देना। यहाँ बहुत कम भीड़ है और इस रास्ते पर चलने के लिए हर कोई तैयार नहीं होता। यद्यपि व्यर्थ के लोगों से बचने के और भी कई तरीके हैं मगर प्रेम पर चलने से व्यर्थ अपने आप छूट जाता है और श्रेष्ठ प्राप्त हो जाता है।
गलत दिशा की ओर हजारों कदम चलने की अपेक्षा लक्ष्य की ओर चार कदम चलना कई
गुना महत्वपूर्ण है। तुम प्रेम को जितना जल्दी हो चुन लो ताकि परम प्रेम भी तुम्हें चुन सके।
प्रेम के मार्ग पर चलना ही सबसे बड़ा साहसिक कार्य है। प्रेम के मार्ग पर चलने ही सृजन
होता है। प्रेम के मार्ग पर चलने से ही आत्मा का कल्याण होता है। हो सकता है
प्रेम से सत्ता ना मिले पर सच्चिनानंद अवश्य मिल जाता है।

When you come out of vanity? आपने घमंड से कब बाहर आओगे ?



अब अपनी बुद्धि को किनारे रख दो l अब बहुत हो गया तुम कितनी भी खोपड़ी खुजा लो , अब तुम्हारी समझ में कुछ आने वाला नहीं l मैंने जितना समझाना था समझा दिया l मै तो अपना काम कर ही लूँगा l तुम अपनी सोचो l बड़े चालाक बनते हो , बहुत बुद्धि लगाते हो l कुछ भी कर लो अपनी बुद्धि से मेरे खेल को नहीं समझ सकते l अरे मै तो जिसे चाहूं समझा दूँ , जिस भाषा में चाहूँ समझा दूं लेकिन पहले तुम अपना अहंकार तो छोड़ो l खुद को बहुत बुद्धिमान समझते हो ,सोचते हो तुम्ही बस सही हो और बाकी सब गलत l अरे अपनी बुद्धि और घमंड से बाहर आओगे तब दुनिया देखोगे l अभी तुमने देखा ही क्या है l
पूरे देश के लोग मुझे सुनते हैं चाहे किसी भी भाषा को बोलने वाले क्यूँ न हों l सब समझते हैं मेरी बात l तो तुम ये न जानो कि मैं किसी को समझा नहीं सकता l जब मेरे बच्चे निकल पड़ेंगे तो तुम्हारी बुद्धि फेल हो जाएगी l तब समझ ही नहीं आएगा कि क्या सही और क्या गलत l जिसे पीछे लगना है वो मेरे पीछे लग चुका है l मेरा सारा काम हो रहा है l कोई इसे रोक नहीं सकता l l तुम्हारा बना कुछ नहीं, बिगड़ जरुर गया l मैं अपनी संख्या पूरी कर लूँगा l तुम क्या समझते हो मेरे जीवों को तोड़कर अपना बना लोगे l अरे! काल का ग्रास तो तुम्हें बनना ही होगा l अब बहुत हो गया l तुमने जो करना था कर लिया l अब मैं करूँगा l
मेरे अपने बच्चे मेरे साथ हैं और मेरा काम कर रहे हैं l अब ये बोध में आ चुके हैं l इन्हें बच्चा समझने की भूल मत करना l इनके पास वो अपार शक्ति है जो ऊपर से आती है l
मेरे सत्संग वचनों को तुमने बहुत सुना किन्तु गुना नहीं l यदि एक भी वचन ढंग से पकड़ लेते तो आज गिरते नहीं l खुद को बड़ा ऊंचा जीव समझते हो , कुछ दिखाई सुनाई तो देता नहीं l अहंकार में दूसरे की सुनते नहीं l अब तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता l जब घमंड छोड़ोगे तभी कुछ समझ आएगा l जो साधक हैं वो सब जानते हैं l वो तुम्हें भेद बता सकते हैं , मुझसे मिलवा सकते हैं l साधकों की सुनने के लिए दीनता जरूरी है l दीनता होगी तो उनसे पूछ लोगे , नहीं तो घमंड में बैठे रह जाओगे l अब आगे तुम जानो तुम्हारा काम जाने l
मेरे गुरु महराज ने इसी समय के लिए कहा था कि पीछे मुड़कर नहीं देखना l कोई गिर जाएगा तो अब उसे उठाने का वक़्त नहीं है l
सच्ची साधना में लगे रहो l अभी काम आगे बहुत करना है l जो नए लोग आयेंगे उन्हें बताना समझाना है l जो नए हैं वो कर ले जायेंगे ,पुराने अपने को पुराना समझ बैठे ही रहेंगे
अब मेरे पास वक़्त ज्यादा नहीं है l तुम लोगों को लग कर काम करना होगा l मेरी बात को ध्यान से सुनना l संकेत तो मैं बहुतों को देता हूँ पर सब बुद्धि लगाते हैं इसलिए कुछ समझ नहीं पाते l जब समर्पण का भाव होगा तो धीरे धीरे सब समझ आ जायेगा l
मैं कोई शरीर नहीं हूँ , न ही तुम लोग मेरे लिए शरीर हो l तुम तो वो सुरतें हो जिन्हें मैंने कई जन्मों से अपने साथ जोड़ रखा है l तुम्हें शरीर देता रहा ताकि तुम उससे अपना काम कर सको l मेरे लिए मेरा शरीर सिर्फ एक मर्यादा है , तुम्हारे समीप रहने का l मेरे शरीर से प्रेम मत करो, मुझसे करो , वैसे ही जैसे मैं अपनी सुरतों से करता हूँ l तुम सब मेरे बच्चे हो l जब मेरे जीवों को कष्ट होता है तो मुझे दुःख होता है l मैं चाहता हूँ तुम्हारा कष्ट सदा के लिए मिट जाए और तुम अपने धाम चले जाओ l
सतगुरु के मिलने के लिए तड़प जरुरी होती है जिन्हें तड़प होती है वो मुझतक पहुँच ही जाते हैं l मार्ग मैं बना देता हूँ l अब भी संभल जाते हो तो ये मदद कर देंगे l बाद में पछताना पड़ेगा l समय रहते काम कर लो तो अच्छी बात है l तुम्हारा भी काम हो जाएगा और मेरा भी l तुम तो सिर्फ दिखावा करते हो l भाव एक कौड़ी का नहीं और चाहते हो घर बैठे सब मिल जाए l ऐसा नहीं होता l वो तुम्हारी मेहनत लगन और भाव के बदले ही कुछ देता है l मुझे तो अपना काम करना ही है , तुम नहीं कोई और सही पर अब काम रुकने वाला नहीं है l
जिसने जिसने जो भविष्यवाणीयां की वो सब मैंने काट दी l तुम सोचते हो मेरी नक़ल कर कुछ पा लोगे तो वो संभव नहीं l अब मैं ऐसा नहीं होने दूंगा l जब आऊंगा तो विश्व हिलाकर रख दूंगा l तब समझ जाना मेरा काम चरम पर है l मेरे ये बच्चे बहुत शक्तिशाली हैं l जो खून इनकी रगों में दौड़ रहा है वो गरम है l इसी गर्म जोशी में सब काम कर ले जायेंगे l जब तुम पीछे रह जाओगे तब तुम्हें दुःख होगा l याद आएगा कि इसने बताया समझाया था |
श्री सदगुरुजी चरनार्पणमस्तू

GoD comes in the form of the master himself परमपिता स्वयं गुरु का रूप धारण कर के आता है



परमपिता स्वयं गुरु का रूप धारण कर के आता है
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जब परमपिता परमात्मा हमारी फिल्म बनाता है तो हमारे इस जन्म का बजट पूंजी देखता है की कितनी है और वह फिल्म पूरी करता है । फिर वह हमारे पिछले जन्म में किये गए पाप - पुण्य के आधार पर जीवन की स्टोरी लिखता है ।
हमारे पूर्व कर्मों के कारण ही हमें सुख - दुःख मिलते है । कोई भी निर्देशक ये नहीं चाहता की उसकी फिल्म सफल न हो सभी ये चाहते की फिल्म को पसंद करें और उसकी यादें उनके दिल में बसी रहे । फिर हम उस परमपिता परमात्मा जो हम सबके जीवन की फिल्म का निर्देशक है उस पर क्यों इल्जाम लगाते है की वह हमारे जीवन की फिल्म दुःख से भरी बना रहा है । देखो जब हम कोई फिल्म या नाटक देखते है तो उसमे जब नायक या नायिका के साथ गलत होता है तो हमें बुरा लगता है लेकिन फिल्म का निर्देशक जानता है की इन मुस्किल परिस्थितयों के साथ लड़ते हुए नायक या नायिका का चरित्र उभर कर आएगा और अंत में नायक जीतेगा तो सब लोग खुश हो जाएंगे और बीच की सारी मुस्किल परिस्थियों आने का कारन समझ जायेंगे की ये सब निर्देशक ने फिल्म को रोमांचक बनाने के लिए किया था ।
निर्देशक लोगों को फिल्म के प्रति खींचने के लिए फिल्म में संगीत डालता है जिसकी धुन में मस्त होकर लोग सिनेमा में खींचे चले आते हैं ।
ऐसे ही परमपिता ने मनुष्य को अपने निजधाम में लाने के लिए मनुष्य के अंदर नाद, धुन, रखी हुई है । इस को पकड़ कर हम पहुँच सकते है ।
हमें अपने निज धाम ले जाने के लिए वो सच्चा निर्देशक परमपिता स्वयं गुरु का रूप धारण कर के आता है और हमें उस धुन का ज्ञान देता है । जैसे फिल्म से पहले उस फिल्म में काम करने वालों के नाम स्क्रीन पर आते है ऐसे ही गुरु हमें ऊपर के मंडल में काम करने वाली शक्तियों के नाम व् उनकी पहचान हमें बताते है ।
फिल्म का आखरी हिस्सा सबसे महत्वपूर्ण होता है किसी ने सच ही कहा है की ' अंत भला तो सब भला ' ऐसे ही अगर हमारे जीवन के अंत समय में हमारा ध्यान गुरु के चरणों में लगा रहता है तो हमारी आत्मा उस परमपिता परमात्मा में जा मिलती है जहाँ पहुंचकर फिर जन्म मरण नहीं होता ।










अब मेरी बात मान लो | अब नहीं सुनोगे तो कब सुनोगे | अब तो समय ख़त्म होने जा रहा है | बाद में पछताओगे | जिन्होंने मुझे चाहा उन्होंने मुझे पा लिया | तुम्हें अगर नहीं मिला तो कुछ न कुछ तो कमी थी | अपनी कमी पहचान लोगे तो सब ठीक हो जायेगा | वैसे भी अब मैं किसी के लिए बैठने वाला नहीं हूँ | मुझे तो अपना काम करना ही है | तुम आ जाओगे तो अच्छा होगा , नहीं तो जिसे चलना है वो साथ चल रहा |
ये मन बड़ा बैरी है | इसे रस नहीं मिलता तो इस पर विकार अत्यधिक हावी हो जाते हैं | अहंकार ईर्ष्या द्वेष और सर्वाधिक मान सम्मान जागृत होता है | ये तुम्हें सतगुरु मिलन से रोक देता है |
तुम ये न समझो की तुम इससे अछूते हो | ये तुम पर भी कार्य करने की कोशिश करता है और तुम्हें भी गिराने का पूरा प्रयास करता है | एक साधक को सदैव सचेत रहना पड़ता है | ये तुम्हारे लिए चेतावनी है | संभल कर रहो |
|| बड़ा बैरी ये मन घट में , इसी को जीतना कठिना ||
मैंने जितने को लिया था उसमे से बहुत कम ही आ पाये | अगर तुम आ जाओगे तो तुम्हारा ही भला होगा | अपनी गिनती मैं बाहर से पूरी कर रहा हूँ | मुझे अपना काम करने से कोई नहीं रोक सकता | मैं तो अपना काम कर लूँगा , तुम अपनी तो सोचो |
अब काम पूरा करने के लिए इंतज़ार नहीं करूँगा |
अब सब बढे चलो | आगे आगे चलो | तुम सबके लिए ही तो मैं आया था |




दुनिया में कोशिश करके तो देख :
... रोक सकता है तू लहरों को, .. लौटा सकता है तू तूफ़ां को,
यह दुनिया जो कोसती है रात-दिन तुझे,
सीने से लगायेगी एक दिन, ...... कोशिश करके तो देख
क्यूँ फंसता है संभव-असंभव के फेर में,
कर सकता है सब कुछ, ...... कोशिश करके तो देख
मुसीबतें खड़ी है जो सीना ताने तेरे सामने,
सर झुकायेगी एक दिन, ....... कोशिश करके तो देख
अपनों की दूरियाँ क्यों कचौटती हैं तुमको,
दुश्मन भी हाथ मिलायेंगे, ..... कोशिश करके तो देख
ग़म के अंधियारे तो खुद डरते हैं तुझसे,
उजाले की बस एक किरण, तू लाकर तो देख
कर सकता है सब कुछ, ....कोशिश करके तो देख !!

Friday, May 2, 2014

changing the thoughts and personality

How can we deal with controlling the mind and changing the thoughts and personality traits? Most people today feel that it's human to think both negatively and positively, everyone has their weaknesses etc, why should we be 'goody- goody' etc. but they do not seem to understand that thinking negatively is firstly harmful to us and then it affects people around us. We may be ordinary human beings, but that does not mean we cannot be perfect in our thinking, in our values and way of living. What distinguishes the normal human from people like Gandhiji, or Florence Nightingale or Einstein or Mother Teresa - they all did not think ordinarily, their thoughts were elevated and pure. Everyone can control their thoughts, if they wish. Thoughts are the most powerful asset human beings have, but it is the least understood. We value science so much today, but we forget that it was the human mind that created that science. Ideas are changed into reality, which means those ideas and thoughts are greater than all the scientific inventions. It is important to first understand what the soul or spirit is. The body is made of 5 elements but what runs the body? Our thoughts, our decision-making power, our personality - are all these things part of the body? They cannot be because they are not physical things. It is impossible for scientists to analyse thoughts, but when those thoughts are used to make actions, then we can see them. It is just like electricity - we cannot see it will our naked eye, but when it changes to another form like light or heat then we can experience it. Similarly, the soul runs the body, but we cannot see with the physical eyes, because it is divine energy, a point of pure light. But it is so powerful that it can control the entire body. This soul has 3 main faculties - the mind (where thoughts are generated), the intellect (the decision -making power) and the personality traits (or sanskaars, as we say in Hindi). All these three things work in collaboration and influence each other. When we human beings first came on earth, we were pure, good, disciplined individuals - we were soul-conscious, meaning the bodily desires and bad vices were not present. But with time, the soul lost its spiritual energy and became weak. Then the vices like ego, anger, lust, attachment, greed entered and took over. You may ask why we have negative thoughts - the intellect has become weak and cannot control the thoughts that enter the mind. Even our sanskaars have become impure, we get angry easily, we say things we do not want to, we do things that are not nice. The environment also affects our thoughts - the books we read, our friends, television, even food. Most people will not agree with this, but the method of making the food, what thoughts did the cook have while cooking, while eating how was our mood etc.etc. EVERYTHING MATTERS! But, do not feel disappointed, there is a remedy. The entire world is going through a lot of suffering and it is because we have lost our spiritual energy. Only God can come and teach us about spirituality and how to become pure beings again. Through meditation we can learn about 1. The Self, enables you to be detached from physical factors and their limitations. 2. Knowing God, enables you to create a deep link of love and draw into yourself all attributes, virtues and powers from the Supreme Source. 3. Understanding the deep law of cause and effect (Karma), motivates you to settle debts of the past and perform elevated actions now. Total surrender to totality, to Supreme is the Ultimate realization. Realization in every deed (karm) can lead you to that total bliss. It is not like a lightening what will happen to you suddenly. First learn to surrender little by little. Learn to surrender to human humanity. First learn it, bring perfection into it, Then you will be able to surrender to that `Param' - which is the source of all Paramanand - Param + Anand. Spirituality does not mean that you have got the license to play according to your mind games. Spirituality is given to you to get connected to higher self And play the game of life According to natural self - real self - not your mind create self – Ego This is Truth.

Sunday, November 27, 2011

Guru Kripa hi kevalm part6

मेरे अपने स्नेही भाई बहिनों ,part6

एक कपडे सिलने वाले का .......परम शौक था लोटरी की खरीदना ...... एक टिकट तो रोज़ .... मालूम तो था की खुलना कभी हैं नहीं...... पर फिर भी .. दिल और आशा से मजबूर . कि शायद कभी ... और एक दिन उसकी दुकान के सामने एक गाड़ी आ कर रुकी ... साहब लोग आये और उससे से कहा की उसका पहला इनाम निकला हैं 10 लाख रूपये का उस दरजी को तो बिस्वास नही हुआ की .... ये होसकता हैं ...इतना भाग्य .हैं उसका .. पर सच तो सच हैं. उसने तत्काल दुकान बंद की और उसकी चाबी सामने के सूखे कुए में फेंक दी अब भला काम किसको करना हैं...... पैसे की कोई कमी हैं हमको ...
जो चार बात लोगों कि सुने ...

पर हुआ वही जो लोग कहते हैं पैसे के साथ सारे तथाकथित गुण और ऐब भी आ गए , और परिणाम भी वही हुआ जो लोग कहते थे ..., एक दिन थका हारा वह अपनी दूकान वापिस आया और उसी सूखे कुए में उतर कर अपनी दूकान की चाबी खोजने लगा और आज से कसम ……. सारे बुरे गुणों से तौबा ..अब से लाटरी से दूर ..

पर कितने दिन . रोक पाता तो फिर ......अब किस्मत रोज़ रोज़ मेहरबान तो होने से रही वह भी पहला इनाम ............पर क्या जाता हैं एक टिकट ही तो हैं.. और एक दिन पुनः एक गाड़ी आई ,साहब लोग उतरे उससे कहा की पहला इनाम ..

उसे तो बिस्वास ही नहीं हुआ और दुकान बंद कर चाबी पुनः उसी कुए में फेक दी अब कोई गलती नहीं ......... पर होना तो वही था ....... जो होना ही ....... था . सारे वही गुण उसका ......वही पे इंतज़ार कर रहे थे, यह जाकर उन्ही से मिला........एक पल में सारी कसमे वादे की यह न करूँगा ..... हवा में उड़ गए.... पर लोग कहते हैं न .......की .. तो फिर वही बात हुयी सारा धन फिर से गया और सारा स्वास्थ्य गया.. पुनः हार थक कर के वापिस....उदास पुनः चाबी खोजी और ... .

अब फिर से तो किस्मत मेहरबान नहो होसकती ..भाई किसी कि भी इतनी जोर दार नहीं होसकती ..... पर अब क्या करे वह .....मन भी तो नहीं लगता .. एक टिकट फिर से खरीद ही ली,, अब कोई पहला इनाम ..वह भी बार बार.... कोइ पागल ही होगा जो अब सोचेगा , कि उसका तीसरी बार पहला इनाम निकल सकता हैं .

अब पुराने दिन वो अमीरी के ... तभी पुनः एक गाड़ी रुकी उस से साहब लोग उतरे उससे कहा कि उसका पहला इनाम

वह चीख उठा कि अब नहीं नहीं ....

और मित्रो क्या कुछ ऐसा ही नहीं हैं हमारे जीवन में हम सदगुरुदेव से प्रार्थना करते हैं उन्हें बिस्वास दिलाते हैंकि एक बार ऐसा तो हो जाय .... तो बस ……. सदगुरुदेव मैं तो.. आप कहे तो उसके बाद ....
पर जैसे ही कुछ मिला उनके आशीर्वाद से तो ..........फिर से अपने वही गुण दोष के पीछे भाग जाते हैं .. पर फिर ........ जब भरे नेत्रों से प्राथना करते हैंकि प्रभु हम तो लायक नहीं हैं.. तब फिर एक बार सदगुरुदेव करुणा से पुनः जीवन देते हैं और उपलब्धिया भी ...,,

पर जैसे ही वह मिली ,, फिर हम सभी का पुराना राग ... फिर हारे ... फिर लौटे .... कि अब सदगुरुदेव नहीं देंगे .....पर किस से मांगे सकते हैं .. तो एक बार फिर .... और पुनः यही क्रम दुहराया जाता हैं.

मेरे भाई बहिनों ,, पर इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि इस बार सदगुरुदेव ने अपनी करुणा से हम सब का हाथ पकड़ पकड़ कर रास्ते पर लाये हैं , कि सभी चीजे दी हैं एक पिता जैसे ... कोई भेद नहीं किया ...

पर अब वह निखिल स्वरुप में हैं और जब वह , हम सब कि शिष्य होने के प्रारंभिक स्तर की....पहली सीढ़ी में जब कभी परीक्षा लेंगे तो ..क्या हमसभी टिक पायंगे,, कभी सोचे.. और गंभीरता पूर्वक .... साधनाओ को करे,, जिससे कि हमसभी का जीवन का अर्थ सार्थक हो सके .. उन दिव्या श्री चरण कमलो के आशीर्वाद से हमसभी का जीवन और साधना मय हो यही उनसे प्रार्थना हैं...




निखिल प्रणाम

Friday, November 25, 2011

If still not wake up, wake up when the challenge

If still not wake up, wake up when the challenge
यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे


शंकराचार्य ने पुरे भारतवर्ष में घूमकर एक ही बात कही कि संसार का सब कुछ मंत्रों के आधीन हैं! बिना मंत्रों के जीवन गतिशील नहीं हो सकता, बिना मंत्रों के जीवन की उन्नति नहीं हो सकती, बिना साधना के सफलता नहीं प्राप्त हो सकती!

गुरु तो वह हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति को एक मंदिर बना दे, मंत्रों के माध्यम से! वैष्णो देवी जायें और देवी के दर्शन करे, उससे भी श्रेष्ठ हैं कि मंत्रों के द्वारा वैष्णो देवी का भीतर स्थापन हो, अन्दर चेतना पैदा हो जिससे वह स्वयं एक चलता फिरता मंदिर बनें, जहाँ भी वह जायें ज्ञान दे सकें, चेतना व्याप्त कर सकें तथा आने वाली पीढ़ियों के लिए ज्ञान को सुरक्षित रख सकें!
जब मैं इंग्लैण्ड गया तो वहां भी लाख-डेढ़ लाख व्यक्ति इकट्ठे हुए, उन्होंने भी स्वीकार किया कि मंत्रों का ज्ञान प्राप्त होना चाहिए! उन्होंने कीर्तन किया, मगर कीर्तन के बाद मंत्रो को सीखने का प्रयास भी किया, निरंतर जप किया और उनकी आत्मा को शुद्धता, पवित्रता का भाव हुआ! मैक्स म्युलर जैसे विद्वान ने भी कहा हैं कि वैदिक मंत्रों से बड़ा ज्ञान संसार में हैं ही नहीं ! उसने कहा हैं कि मैं विद्वान हु और पूरा यूरोप मुझे मानता हैंमगर वैदिक ज्ञानवैदिक मंत्रों के आगे हमारा सारा ज्ञान अपने आप में तुच्छ हैंबौना हैं ! आईंस्टीन जैसे वैज्ञानिक ने भी कहा कि एक ब्रह्मा हैंएक नियंता हैंवह मुझे वापस भारत में पैदा करेंऐसी जगह पैदा करेंजहाँ किसी योगीऋषि या वेद मंत्रों के जानकार के संपर्क में  सकूँउनसे मंत्रों को सीख सकूँ! अपने आप में सक्षमता प्राप्त करूँ और संसार के दुसरे देशों मे भी इस ज्ञान को फैलाऊँ!
 गुरु वह हैं जो आपकी समस्याओं को समझेआपकी तकलीफों को दूर करने के लिए उस मंत्र को समझाएंजिसके माध्यम से तकलीफ दूर हो सकें! मंत्र जप के माध्यम से दैवी सहायता को प्राप्त कर जीवन में पूर्णता संभव हैं! दैवी सहायता के लिए जरुरी हैं कि आप देवताओं से परिचित हो और देवता आपसे परिचित हो!
 परन्तु देवता आपसे परिचित हैं नहीं! इसलिए जो भगवान् शिव का मंत्र हैंजो सरस्वती का मंत्र हैंजो लक्ष्मी का मंत्र हैंउसका नित्य जप करें और पूर्णता के साथ करेंतो निश्चय ही आपके और उनके बीच की दुरी कम होगी! जब दुरी कम होगी तो उनसे वह चीज प्राप्त हो सकेगी!  एक करोडपति से हम सौ-हजार रुपये प्राप्त कर सकते हैंपरन्तु लक्ष्मी अपने आपमें करोडपति ही नहीं हैंअसंख्य धन का भण्डार हैं उसके पासउससे हम धन प्राप्त कर सकते हैंपरन्तु तभी जब आपके और उनके बीच की दुरी कम हो…. और वह दुरी मंत्र जप से कम हो सकती हैं! मंत्र का तात्पर्य हैं – उन शब्दों का चयन जिन्हें देवता ही समझ सकते हैं! मैं अभी आपको ईरान की भाषा में या चीन की भाषा में आधे घंटे भी बताऊंतो आप नहीं समझ सकेंगे! दस साल भी भक्ति करेंगेतो उसके बीस साल बाद भी समस्याएं सुलझ नहीं पाएंगीक्योंकि उसका रास्ता भक्ति नहीं हैं  उसका रास्ता साधना हैंमंत्र हैं!
 जो कुछ बोले और बोल करके इच्छानुकूल प्राप्त कर सकें वह मंत्र हैं!
-पूज्यपाद सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी.
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान
जनवरी 2000, पेज नं : 21.