दान की महत्ता
सैकडों हाथों से एकत्रित करो और हजारों हाथों से बांटो। यह कथन अथर्ववेदसे लिया गया है। वास्तव में, यदि हमें कुछ पाना है, तो कुछ त्याग भी करना पडेगा। यह आध्यात्मिक नियम भी है कि दिया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता है, बल्कि वह कई गुणा बढकर वापस हमारे पास आ जाता है। पाने का पूरक है दान
यदि हम कुछ पाना चाहते हैं, तो पहले दान देना होगा। यह नियम प्रकृति के साथ भी लागू होता है। उदाहरण के लिए यदि हमें अन्न प्राप्त करना है, तो पहले हमें पृथ्वी को बीज के रूप में दान देना पडता है। बाद में यही बीज हमें अन्न-भंडार के रूप में प्राप्त होता है। यदि वृक्षों से हमें फल प्राप्त करना है, तो पहले खाद-पानी एवं सेवा के रूप में कुछ न कुछ त्याग करना ही पडता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में यह नियम समान रूप से लागू होता है। महापुरुषों के अनुसार, जो कुछ भी आपको हासिल करना है, कुछ वही दूसरों को देकर देखिए। सच पूछिए, तो जितना आपने दिया है, उससे कई गुणा ज्यादा आपको मिल जाएगा। चिंतक का दृष्टिकोण
हमारे ऋषि-मुनि भी यही मानते हैं कि जितना अधिक हम दूसरों को देते हैं, उतना ही हम पाते भी हैं। यहां प्रसिद्ध भारतीय चिंतक कृष्णमूर्ति का एक दृष्टांत है। एक व्यक्ति ईश्वर के बहुत समीप था। एक बार ईश्वर ने उससे कहा, एक गिलास जल देना। वह व्यक्ति जल लेने कुछ दूर निकल गया। एक घर में जल मांगने पहुंचा, तो वहां एक सुन्दर युवती को देखा। युवती को देखते ही उसे प्रेम हो गया। यहां तक कि उसने उससे विवाह भी कर लिया। दंपत्तिके बाल-बच्चे भी हो गए। एक बार जोरों की वर्षा हुई। नदी-नाले उमड पडे। अपने घर-परिवार के साथ वह भी जब डूबने लगा, तो उसने ईश्वर से प्रार्थना की, प्रभु मुझे बचा लो। ईश्वर ने कहा, मेरा एक गिलास जल कहां है?
एक ईसाई चिंतक ने इस आध्यात्मिक प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए एक बडी अच्छी घटना को उद्धृत किया है। एक राजा हाथी पर सवार होकर जा रहा था। एक भिक्षुक ने उसे देखा और वह उसके पीछे दौडने लगा, राजा मुझे कुछ दान दो। राजा ने कहा, पहले तुम मुझे कुछ दो। भिक्षुक ने सोचा यह कैसा राजा है, जो एक भिखारी से दान लेना चाहता है! उसने क्रोध में चावल के चार दाने उसके ऊपर फेंक दिए। राजा ने उसके भिक्षा-पात्र में सोने के कई दाने डाल दिए। भिक्षुक ने आश्चर्य से अपने पात्र में पडे सोने के चावलों को देखा और सोचा, मुझे अपने सभी दान को राजा को दे देना चाहिए था। सबसे बडा धर्म
हमारे धर्मग्रंथों में भी कहा गया है कि दान से बडा कोई धर्म नहीं-न हि दानात्परो धर्म:। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है-जिस किसी विधि से दान दो, उससे आपका कल्याण ही होगा।
जेनकेन बिधिदीन्हें।
दान करईकल्यान।।
वेदों ने बहुत पहले ही दान की महत्ता बताई थी। ऋग्वेद में अनेक दान-संबंधी ऋचाएंहैं। उदाहरण के लिए दान नहीं देने वाले मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकते हैं। [ऋक्-10/117/1]
ऐसा कोई धर्म नहीं है, जिसमें दान की महत्ता को रेखांकित नहीं किया गया हो। ईसाई धर्म से लेकर इस्लाम, बौद्ध, जैन, पारसी आदि सभी धर्म एक स्वर से दान की महत्ता का गुणगान करते हैं।
इस्लाम में अनुयायियों के लिए आय का दसवां हिस्सा खैरात के रूप में देने का प्रावधान है। इसी तरह टेथर के रूप में ईसाई धर्म में भी आय का दशम भाग चर्च को नियमित रूप से देने की प्रथा है। बाइबल में भी दान के महत्व को रेखांकित किया गया है। उसके अनुसार, लेने से अधिक देना हमारे लिए सदैव हितकारी होता है। इसलिए यदि हमें आध्यात्मिक साधना करनी है, तो हमें अल्प ही सही, दान जरूर देना चाहिए।
सैकडों हाथों से एकत्रित करो और हजारों हाथों से बांटो। यह कथन अथर्ववेदसे लिया गया है। वास्तव में, यदि हमें कुछ पाना है, तो कुछ त्याग भी करना पडेगा। यह आध्यात्मिक नियम भी है कि दिया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता है, बल्कि वह कई गुणा बढकर वापस हमारे पास आ जाता है। पाने का पूरक है दान
यदि हम कुछ पाना चाहते हैं, तो पहले दान देना होगा। यह नियम प्रकृति के साथ भी लागू होता है। उदाहरण के लिए यदि हमें अन्न प्राप्त करना है, तो पहले हमें पृथ्वी को बीज के रूप में दान देना पडता है। बाद में यही बीज हमें अन्न-भंडार के रूप में प्राप्त होता है। यदि वृक्षों से हमें फल प्राप्त करना है, तो पहले खाद-पानी एवं सेवा के रूप में कुछ न कुछ त्याग करना ही पडता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में यह नियम समान रूप से लागू होता है। महापुरुषों के अनुसार, जो कुछ भी आपको हासिल करना है, कुछ वही दूसरों को देकर देखिए। सच पूछिए, तो जितना आपने दिया है, उससे कई गुणा ज्यादा आपको मिल जाएगा। चिंतक का दृष्टिकोण
हमारे ऋषि-मुनि भी यही मानते हैं कि जितना अधिक हम दूसरों को देते हैं, उतना ही हम पाते भी हैं। यहां प्रसिद्ध भारतीय चिंतक कृष्णमूर्ति का एक दृष्टांत है। एक व्यक्ति ईश्वर के बहुत समीप था। एक बार ईश्वर ने उससे कहा, एक गिलास जल देना। वह व्यक्ति जल लेने कुछ दूर निकल गया। एक घर में जल मांगने पहुंचा, तो वहां एक सुन्दर युवती को देखा। युवती को देखते ही उसे प्रेम हो गया। यहां तक कि उसने उससे विवाह भी कर लिया। दंपत्तिके बाल-बच्चे भी हो गए। एक बार जोरों की वर्षा हुई। नदी-नाले उमड पडे। अपने घर-परिवार के साथ वह भी जब डूबने लगा, तो उसने ईश्वर से प्रार्थना की, प्रभु मुझे बचा लो। ईश्वर ने कहा, मेरा एक गिलास जल कहां है?
एक ईसाई चिंतक ने इस आध्यात्मिक प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए एक बडी अच्छी घटना को उद्धृत किया है। एक राजा हाथी पर सवार होकर जा रहा था। एक भिक्षुक ने उसे देखा और वह उसके पीछे दौडने लगा, राजा मुझे कुछ दान दो। राजा ने कहा, पहले तुम मुझे कुछ दो। भिक्षुक ने सोचा यह कैसा राजा है, जो एक भिखारी से दान लेना चाहता है! उसने क्रोध में चावल के चार दाने उसके ऊपर फेंक दिए। राजा ने उसके भिक्षा-पात्र में सोने के कई दाने डाल दिए। भिक्षुक ने आश्चर्य से अपने पात्र में पडे सोने के चावलों को देखा और सोचा, मुझे अपने सभी दान को राजा को दे देना चाहिए था। सबसे बडा धर्म
हमारे धर्मग्रंथों में भी कहा गया है कि दान से बडा कोई धर्म नहीं-न हि दानात्परो धर्म:। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है-जिस किसी विधि से दान दो, उससे आपका कल्याण ही होगा।
जेनकेन बिधिदीन्हें।
दान करईकल्यान।।
वेदों ने बहुत पहले ही दान की महत्ता बताई थी। ऋग्वेद में अनेक दान-संबंधी ऋचाएंहैं। उदाहरण के लिए दान नहीं देने वाले मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकते हैं। [ऋक्-10/117/1]
ऐसा कोई धर्म नहीं है, जिसमें दान की महत्ता को रेखांकित नहीं किया गया हो। ईसाई धर्म से लेकर इस्लाम, बौद्ध, जैन, पारसी आदि सभी धर्म एक स्वर से दान की महत्ता का गुणगान करते हैं।
इस्लाम में अनुयायियों के लिए आय का दसवां हिस्सा खैरात के रूप में देने का प्रावधान है। इसी तरह टेथर के रूप में ईसाई धर्म में भी आय का दशम भाग चर्च को नियमित रूप से देने की प्रथा है। बाइबल में भी दान के महत्व को रेखांकित किया गया है। उसके अनुसार, लेने से अधिक देना हमारे लिए सदैव हितकारी होता है। इसलिए यदि हमें आध्यात्मिक साधना करनी है, तो हमें अल्प ही सही, दान जरूर देना चाहिए।