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Saturday, December 31, 2011

Pupil guru the same way love used to love the way Shiva Markandeya

शिष्य गुरु से उसी प्रकार प्रेम करता है जिस प्रकार मार्कंडेय शिव से प्रेम करते थे | साधना का अर्थ ही है प्रेम ,आपने इष्ट से ,आपने गुरु से और उस प्रेम को व्यक्त करने की क्रिया में काल समय भी बाधक नहीं हो सकता ,ऐसा मार्कंडेय ने सिद्ध करके दिखा दिया |ऐसा ही प्रेम शिष्य का गुरु से हो |

शिष्य और गुरु के बीच में थोड़ी भी दूरी न हो | इतना शिष्य गुरु से एकाकार हो जाए कि कि फिर मुह से गुरु नाम या गुरु मंत्र का उच्चारण करना ही न पड़े | जिस प्रकार राधा के रोम-रोम में हमेशा कृष्ण -कृष्ण उच्चारित होता रहता था ,उसी प्रकार शिष्य के रोम-रोम से गुरु मंत्र उच्चारित होता रहे -सोते ,जागते ,चलते ,फिरते |

शिष्य को स्मरण रहे कि सदगुरुदेव सदा उसकी रक्षा के लिए तत्पर है |कोई क्षण नहीं जब सद्गुरु उसका ख़याल न रखते हो | जिस प्रकार हिरन्यकश्यप के लाख कुचक्रो के बाद भी प्रल्हाद का बाल भी बांका नहीं हुआ ,उसी प्रकार शिष्य के आस्था है तो कोई भी शक्ति उसका अहित नहीं कर सकती

संसार में सबकुछ क्षणभंगुर हैं ,सबकुछ नाशवान है केवल प्रेम ही शाश्वत है जो मरता नहीं जो जलता नहीं जो समाप्त नहीं होता |
जिसने प्रेम नहीं क्या उसका हृदय कमल विकसित हो ही नहीं सकता वह साधना कर ही नहीं सकता क्योंकि प्रेम ही जीवन का आधार है |
पर तुम्हारा प्रेम ,प्रेम नहीं ,वासना है ,क्षुद्रता है ,ओछापन है और फिर प्रेम शरीरगत नहीं आत्मगत होता है|
क्योंकि आत्मगत प्रेम ही प्रेम की पूर्णता ,सर्वोच्चता और श्रेष्ठता दे सकता है और ऐसा प्रेम सिर्फ गुरु से ही हो सकता है |
क्योंकि उसका और तुम्हारा सम्बन्ध शरीरगत नहीं विशुद्ध आत्मगत है |
यही साधना का पहला सोपान है |

गुरु और तुम में यही अंतर है की तुम हर हालत में दुखी होते हो जबकि गुरु को सुख दुःख दोनों ही व्याप्त नहीं होते ,वह दोनों से परे है और तुम्हे भी उस उच्चतम स्थिति पर ले जाकर खड़ा कर सकता है जहा दुःख ,पीडा तुम को प्रभावित कर ही न सके |

आप अपने को धन और वैभव पाकर सुखी मानने लगते है क्योंकि अभी आपने वास्तविक सुख को देखा ही नहीं |इन सुखो के पीछे भागकर आप अंत में दुःख ही पाते है |भोग से दुःख ही पैदा हो सकता है जबकि गुरु तुम्हे उस सुख से परिचित करना चाहता है जी आंतरिक है जो स्थायी है |

तुम सोचते हो की शादी करके सुखी होंगे या धन प्राप्त करके सुखी होंगे |सुख तो उसी क्षण पर संभव है वह धन पर निर्भर नहीं है |वह वास्तविक आनंद तुमने नहीं देखा इसलिए तुम धन को ही सुख मान बैठे हो जबकि उससे केवल दुःख ही प्राप्त होता है |

वास्तविक सुख तुम्हे तभी प्राप्त हो सकता है जब तुम अपने आप को पूर्ण रूप से गुरु में समाहित कर दोगे और वह हो गया तो फिर तुम्हारे जीवन में कोई अभाव रह ही नहीं सकता ,धन तो एक छोटी सी चीज है |पूर्णता तक तुम्हे कोई पहुंचा सकता है तो वह केवल गुरु है |

गुरु के सामने सभी देवी -देवता हाथ बांधे खड़े रहते है वह चाहे तो क्षण मात्र में तुम्हारे सभी कष्टों को दूर कर दे |??तो करता क्यों नहीं ?गुरु तो हर क्षण तैयार है तुममें ही समर्पण की कमी है ,जिस क्षण गुरु को तुमने अपने हृदय में स्थापित कर लिया उस क्षण से दुःख तुम्हारे जीवन में प्रवेश कर ही नहीं सकता |


तुम्हारा गुरुदेव,
नारायण दत्त श्रीमाली

Thursday, December 1, 2011

Knowledge of the hybridization

SANDESH HAMARE LIYE
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ज्ञान का संकरण करते रहने से ज्ञान और सिद्धि दोनों ही संकरण से संकीर्ण हो जाते हे . मेने ज्ञान का संकलन करके बूंद बूंद के रूप में आप सबको गंगोत्री बनाया था , अब समय आ गया हे की आप उफनती गंगा बन जाये . जेसे एक जला हुआ दीपक हजारो दीपक जला सकता हे उसी तरह आप ज्ञान रूपी दीपक बन के अज्ञान के अँधेरे को दूर करे. अगर में चाहता तो वो क्रम में ख़तम कर देता और साधना का प्रस्थापित करने का काम अपने शिष्यों पर नहीं छोड़ता मगर मुझे सिर्फ साधनाओ को नहीं भारतवर्ष को जीवित करना था . और भारतवर्ष जीवित होगा आप से, मेरे शिष्यों से, मेरे आत्मीयो से , क्यूंकि मुझे लुप्त हो गई गुरु-शिष्य परंपरा को भी तो प्रस्थापित करना था गुरु तरफ का कम तो मेने कर दिया हे अब शिष्य तरफी कम तो आप ही करेंगे और करना ही पड़ेगा यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी . आप सब शिष्यता की और अग्रसर हो कर ज्ञान को आत्मसार करे. जेसे पारद स्वर्ण ग्रहण करते करते एक समय तृप्त होके वापस स्वर्ण बहा देता हे और वो इस पारस की स्थिति को प्राप्त करने के बाद कितना भी स्वर्ण बहाने पर उसमे स्वर्ण की कोई कमी नहीं आती क्यूँ की वो खुद ही स्वर्णमय बन जाता हे . आप भी ज्ञानमय बने और ज्ञान को उसी तरह बहाते रहे यही मेरा ह्रदय से आशीर्वाद हे

-पूज्य गुरुदेव श्री निखिलेश्वरानंद जी


कोई मेरे पास पूरी ज़िन्दगी भर रोज़ आके कहे की मुझे रस विद्या सीखनी हे तो सायद में उसे मृत्यु के बाद उसके अगले जन्म में उसे रसज्ञान देता . फिर आपके सामने तो गंगा बह रही हे. श्री निखिलेश्वरानंद जी का वरद हस्त आपके सर पर हे तो फिर चिंता केसी. आगे बढिए और ज्ञान को आत्मसार करे.

- रसाचार्य श्री नागार्जुन

रस तंत्र ६४ तंत्र अध्ययन की अंतिम कड़ी हे. इसका अद्ययन करने से बाकि सरे तंत्र स्वयं सिद्ध हो जाते हे. आप सब भी तंत्र की उच्चतम स्थिति को प्राप्त करे एसी गुरुदेव से प्रार्थना हे .

- श्री त्रिजटा अघोरी




आप आगे बढे और सिद्धाश्रम गमन करे यही कामना के साथ आपका पथ सुभ रहे यही आशीर्वाद देता हु .

- स्वामी सुर्यानंद

Saturday, May 14, 2011

Guru Gita

गुरु गीता

गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।
गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।
वह सद्गुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।
[संपादित करें]गुरु

गुरु गीता में ऐसे सभी गुरुओं का कथन है जिनकों 'सूचक गुरु' ,'वाचक गुरु', बोधक गुरु', 'निषिद्ध गुरु', 'विहित गुरु', 'कारणाख्य गुरु', तथा 'परम गुरु' कहा जाता है।

इनमें निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं वही सद्गुरु हैं।

गुरु गीता

न जानन्ति परम तत्त्वं गुरुदीक्षा परान्ग्मुखा:|
भ्रांत पशुसमा हेय्ता: स्वपरिज्ञान वर्जिता ||

अतार्थ गुरु दीक्षा के बिना परम तत्व को नहीं जाना जा सकता और परमतत्व को जाने बिना मनुष्य भ्रांत पशु के सामान होता है |दीक्षा का तात्पर्य है पशुत्व से मानत्व और मानत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने की क्रिया |दीक्षा ही ऐसे प्रक्रिया है ,जिसके माध्यम से गुरु अपना तपस्यांश प्रदान कर शिष्य को देवत्व की ओर बढ़ाते है ,उसके जीवन की समस्त कमियों को समाप्त करते हुए शिष्य को पूर्णत्व देने के लिए तत्पर होते है | इसलिए गुरु के महिमा को कभी नहीं भूलना चाहिए |

गुरुभाव परम तीर्थम अनयेतीर्थ नीरार्थकम |
सर्वेतीर्थमयम देवी श्रीगुरो शेचर्नाम्बुजम||

अतार्थ हे पार्वती |गुरु ही सर्वश्रेष्ट तीर्थ है अन्य तीर्थ निरर्थक है |श्री गुरु के चरण कमल ही सर्व तीर्थमय है |जितने भी तीर्थ है कांची ,काशी ,गया ,अवंतिका आदि वहा कुछ पाने के लिए जाना आयास मात्रे है ,वे निर्जीव है ,निरर्थक है वे आपने उपासक को कोई चेतेन्यता नहीं दे सकते ,इसके अपेक्षा जीवित जाग्रत गुरु के चरणों में बैठकर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है इसलिए गुरु चरणों को तीर्थराज माना गया है जो श्रेय और प्रेय दोनों देने में समर्थ है |

गुरु गीता

हृद्याम्बुजे कर्निक्मध्येसंस्थं सिंहासने गुरुम संस्थितामदिव्येमुर्तिम |
ध्यायेद गुरुम चन्द्रकलाप्रकाषम चित्पुस्ताकाभिश्त्वरम दधानम ||


अतार्थ ह्रदय कमल के मध्ये में विराजमान दिव्य मूर्ति वाले ,चंद्रमा की कलाओं के सामान प्रकाशवान,वेद ज्ञान से युक्त ,शिष्यों को अभीष्ट वरदान देने वाले गुरुदेव का मैं अत्यंत भाव भेरे हृदये से ध्यान करता हूं |गुरु मूर्ति को आपने हृदय में ध्यान करना चाह्हिये इस प्रक्रियानुसार साधक द्वारा हृदय कमल के आसन पर गुरु के स्वरूप को स्थापित करके ,ध्यानावस्था में उनका चिंतन करने से ,विशेषकर उनके चरणों का ध्यान करने से चित्त के एकाग्रता बढती है |

गुरु गीता

नमस्ते नाथ भगवन शिवाय गुरुरूपिने |
विद्यावतारम संसिद्द्ये स्वीकृतानेक विग्रह :||


अतार्थ शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के लिए ज्ञान स्वरूप ,अनेकविध शरीर धारण करने वाले शिव स्वरूप सदगुरु को बारम्बार नमस्कार है |जब शिष्य के अज्ञान विशिप्त के अवस्था आती है तब शिव ही शिष्य को ज्ञान देने के लिए मानव शरीर धारेण कर उसे पूर्णता प्रदान करते है क्योंकि शिष्य जिस धरातल पर खड़ा होता है ,उसकी बराबर अवस्था में आकर ही ज्ञान प्रदान किया जा सकता है ,अत: शिष्य जिस स्थिति में होता है गुरु भी उसी स्थिति में आते है |