शिष्य गुरु से उसी प्रकार प्रेम करता है जिस प्रकार मार्कंडेय शिव से प्रेम करते थे | साधना का अर्थ ही है प्रेम ,आपने इष्ट से ,आपने गुरु से और उस प्रेम को व्यक्त करने की क्रिया में काल समय भी बाधक नहीं हो सकता ,ऐसा मार्कंडेय ने सिद्ध करके दिखा दिया |ऐसा ही प्रेम शिष्य का गुरु से हो |
शिष्य और गुरु के बीच में थोड़ी भी दूरी न हो | इतना शिष्य गुरु से एकाकार हो जाए कि कि फिर मुह से गुरु नाम या गुरु मंत्र का उच्चारण करना ही न पड़े | जिस प्रकार राधा के रोम-रोम में हमेशा कृष्ण -कृष्ण उच्चारित होता रहता था ,उसी प्रकार शिष्य के रोम-रोम से गुरु मंत्र उच्चारित होता रहे -सोते ,जागते ,चलते ,फिरते |
शिष्य को स्मरण रहे कि सदगुरुदेव सदा उसकी रक्षा के लिए तत्पर है |कोई क्षण नहीं जब सद्गुरु उसका ख़याल न रखते हो | जिस प्रकार हिरन्यकश्यप के लाख कुचक्रो के बाद भी प्रल्हाद का बाल भी बांका नहीं हुआ ,उसी प्रकार शिष्य के आस्था है तो कोई भी शक्ति उसका अहित नहीं कर सकती
संसार में सबकुछ क्षणभंगुर हैं ,सबकुछ नाशवान है केवल प्रेम ही शाश्वत है जो मरता नहीं जो जलता नहीं जो समाप्त नहीं होता |
जिसने प्रेम नहीं क्या उसका हृदय कमल विकसित हो ही नहीं सकता वह साधना कर ही नहीं सकता क्योंकि प्रेम ही जीवन का आधार है |
पर तुम्हारा प्रेम ,प्रेम नहीं ,वासना है ,क्षुद्रता है ,ओछापन है और फिर प्रेम शरीरगत नहीं आत्मगत होता है|
क्योंकि आत्मगत प्रेम ही प्रेम की पूर्णता ,सर्वोच्चता और श्रेष्ठता दे सकता है और ऐसा प्रेम सिर्फ गुरु से ही हो सकता है |
क्योंकि उसका और तुम्हारा सम्बन्ध शरीरगत नहीं विशुद्ध आत्मगत है |
यही साधना का पहला सोपान है |
गुरु और तुम में यही अंतर है की तुम हर हालत में दुखी होते हो जबकि गुरु को सुख दुःख दोनों ही व्याप्त नहीं होते ,वह दोनों से परे है और तुम्हे भी उस उच्चतम स्थिति पर ले जाकर खड़ा कर सकता है जहा दुःख ,पीडा तुम को प्रभावित कर ही न सके |
आप अपने को धन और वैभव पाकर सुखी मानने लगते है क्योंकि अभी आपने वास्तविक सुख को देखा ही नहीं |इन सुखो के पीछे भागकर आप अंत में दुःख ही पाते है |भोग से दुःख ही पैदा हो सकता है जबकि गुरु तुम्हे उस सुख से परिचित करना चाहता है जी आंतरिक है जो स्थायी है |
तुम सोचते हो की शादी करके सुखी होंगे या धन प्राप्त करके सुखी होंगे |सुख तो उसी क्षण पर संभव है वह धन पर निर्भर नहीं है |वह वास्तविक आनंद तुमने नहीं देखा इसलिए तुम धन को ही सुख मान बैठे हो जबकि उससे केवल दुःख ही प्राप्त होता है |
वास्तविक सुख तुम्हे तभी प्राप्त हो सकता है जब तुम अपने आप को पूर्ण रूप से गुरु में समाहित कर दोगे और वह हो गया तो फिर तुम्हारे जीवन में कोई अभाव रह ही नहीं सकता ,धन तो एक छोटी सी चीज है |पूर्णता तक तुम्हे कोई पहुंचा सकता है तो वह केवल गुरु है |
गुरु के सामने सभी देवी -देवता हाथ बांधे खड़े रहते है वह चाहे तो क्षण मात्र में तुम्हारे सभी कष्टों को दूर कर दे |??तो करता क्यों नहीं ?गुरु तो हर क्षण तैयार है तुममें ही समर्पण की कमी है ,जिस क्षण गुरु को तुमने अपने हृदय में स्थापित कर लिया उस क्षण से दुःख तुम्हारे जीवन में प्रवेश कर ही नहीं सकता |
तुम्हारा गुरुदेव,
नारायण दत्त श्रीमाली
शिष्य और गुरु के बीच में थोड़ी भी दूरी न हो | इतना शिष्य गुरु से एकाकार हो जाए कि कि फिर मुह से गुरु नाम या गुरु मंत्र का उच्चारण करना ही न पड़े | जिस प्रकार राधा के रोम-रोम में हमेशा कृष्ण -कृष्ण उच्चारित होता रहता था ,उसी प्रकार शिष्य के रोम-रोम से गुरु मंत्र उच्चारित होता रहे -सोते ,जागते ,चलते ,फिरते |
शिष्य को स्मरण रहे कि सदगुरुदेव सदा उसकी रक्षा के लिए तत्पर है |कोई क्षण नहीं जब सद्गुरु उसका ख़याल न रखते हो | जिस प्रकार हिरन्यकश्यप के लाख कुचक्रो के बाद भी प्रल्हाद का बाल भी बांका नहीं हुआ ,उसी प्रकार शिष्य के आस्था है तो कोई भी शक्ति उसका अहित नहीं कर सकती
संसार में सबकुछ क्षणभंगुर हैं ,सबकुछ नाशवान है केवल प्रेम ही शाश्वत है जो मरता नहीं जो जलता नहीं जो समाप्त नहीं होता |
जिसने प्रेम नहीं क्या उसका हृदय कमल विकसित हो ही नहीं सकता वह साधना कर ही नहीं सकता क्योंकि प्रेम ही जीवन का आधार है |
पर तुम्हारा प्रेम ,प्रेम नहीं ,वासना है ,क्षुद्रता है ,ओछापन है और फिर प्रेम शरीरगत नहीं आत्मगत होता है|
क्योंकि आत्मगत प्रेम ही प्रेम की पूर्णता ,सर्वोच्चता और श्रेष्ठता दे सकता है और ऐसा प्रेम सिर्फ गुरु से ही हो सकता है |
क्योंकि उसका और तुम्हारा सम्बन्ध शरीरगत नहीं विशुद्ध आत्मगत है |
यही साधना का पहला सोपान है |
गुरु और तुम में यही अंतर है की तुम हर हालत में दुखी होते हो जबकि गुरु को सुख दुःख दोनों ही व्याप्त नहीं होते ,वह दोनों से परे है और तुम्हे भी उस उच्चतम स्थिति पर ले जाकर खड़ा कर सकता है जहा दुःख ,पीडा तुम को प्रभावित कर ही न सके |
आप अपने को धन और वैभव पाकर सुखी मानने लगते है क्योंकि अभी आपने वास्तविक सुख को देखा ही नहीं |इन सुखो के पीछे भागकर आप अंत में दुःख ही पाते है |भोग से दुःख ही पैदा हो सकता है जबकि गुरु तुम्हे उस सुख से परिचित करना चाहता है जी आंतरिक है जो स्थायी है |
तुम सोचते हो की शादी करके सुखी होंगे या धन प्राप्त करके सुखी होंगे |सुख तो उसी क्षण पर संभव है वह धन पर निर्भर नहीं है |वह वास्तविक आनंद तुमने नहीं देखा इसलिए तुम धन को ही सुख मान बैठे हो जबकि उससे केवल दुःख ही प्राप्त होता है |
वास्तविक सुख तुम्हे तभी प्राप्त हो सकता है जब तुम अपने आप को पूर्ण रूप से गुरु में समाहित कर दोगे और वह हो गया तो फिर तुम्हारे जीवन में कोई अभाव रह ही नहीं सकता ,धन तो एक छोटी सी चीज है |पूर्णता तक तुम्हे कोई पहुंचा सकता है तो वह केवल गुरु है |
गुरु के सामने सभी देवी -देवता हाथ बांधे खड़े रहते है वह चाहे तो क्षण मात्र में तुम्हारे सभी कष्टों को दूर कर दे |??तो करता क्यों नहीं ?गुरु तो हर क्षण तैयार है तुममें ही समर्पण की कमी है ,जिस क्षण गुरु को तुमने अपने हृदय में स्थापित कर लिया उस क्षण से दुःख तुम्हारे जीवन में प्रवेश कर ही नहीं सकता |
तुम्हारा गुरुदेव,
नारायण दत्त श्रीमाली