कालिकाष्टक (शंकराचार्य विरचितम)
* ध्यान *
गलद्रक्त मुण्डावली कण्ठमाला
माहाघोर रावा सुदँष्ट्रा कराला।
विवस्त्रा श्मशनालया मुक्तकेशी
महाकाल कामा कुला कालिकेयम।।१।।
भुजेवामयुग्मे शिरोसिं दधाना
वरं दक्षयुग्मेभयं वै तथैव ।
सुमध्यापी तुंगस्थना भारनम्रा
लसद्रक्त सृक्कद्वया सुस्मितास्या।।२।।
शवद्वन्दकर्णा वतंसा सुकेशी
लसत्प्रेतपाणीं प्रयुक्तैक कांची।
शवाकारमँचाधीरुढा शिवाभि-
श्चतुर्दिक्षु शब्दयामानाभिरेजे।।३।।
**स्तुती**
विरन्च्यादिदेवास्त्रयते गुणात्रिम्
समाराध्य कालीँ प्रधाना बवुभु।
अनादिं सुरादीं मखादिं भवादिं
स्वरूपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।१।।
जगन्मोहिनियम् तु वाग्वादिनियम्
सुह्रिद्पोषिणी शत्रु संहारणियम्।
वचस्तम्भनियम् किमुच्चाटनियम्
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।२।।
इयं स्वर्गदात्री पुन: कल्पवल्ली
मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात।
तथाते कृतार्था भवन्तीति नित्यम
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।३।।
सुरापानमत्ता शुभक्तानुरक्ता
लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते।
जपध्यान् पूजासुधाधौतपंका
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।४।।
चिदानन्दकन्दं हसन्मन्दमन्दं
शरच्चन्द्र कोटीप्रभापुन्ज बिन्वम्।
मुनीनां कवीनां हृदि ध्योतयन्तं
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।५।।
माहामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा
कदचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया।
न वाला न वृद्धा न कामातुरापि
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।६।।
क्षमास्वपराधं माहागुप्तभावं
मायालोकमध्ये प्रकाशीकृतं यत्।
तव ध्यानपुतेन चापल्यभावात्
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।७।।
यदी ध्यान युक्तं पठेध्यो मनुष्य
स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च।
गृहे चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्ती-
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।८।।