इस जीवन में मैंने दुख ही दुख क्यों पाया है?
दुख ही दुख अगर पाया है तो बड़ी मेहनत की होगी पाने के लिए, बड़ा श्रम किया होगा, बड़ी साधना की होगी, तपश्र्चर्या की होगी! अगर दुख ही दुख पाया है तो बड़ी कुशलता अर्जित की होगी! दुख कुछ ऐसे नहीं मिलता, मुफ्त नहीं मिलता। दुख के लिए कीमत चुकानी पड़ती है।
आनंद तो यूं ही मिलता है; मुफ्त मिलता है; क्योंकि आनंद स्वभाव है। दुख अर्जित करना पड़ता है। और दुख अर्जित करने का पहला नियम क्या है? सुख मांगो और दुख मिलेगा। सफलता मांगो, विफलता मिलेगी। सम्मान मांगो, अपमान मिलेगा। तुम जो मांगोगे उससे विपरीत मिलेगा। तुम जो चाहोगे उससे विपरीत घटित होगा। क्योंकि यह संसार तुम्हारी चाह के अनुसार नहीं चलता। यह चलता है उस परमात्मा की मर्जी से।
अपनी मर्जी को हटाओ! अपने को हटाओ! उसकी मर्जी पूरी होने दो। फिर दुख भी अगर हो तो दुख मालूम नहीं होगा। जिसने सब कुछ उस पर छोड़ दिया, अगर दुख भी हो तो वह समझेगा कि जरूर उसके इरादे नेक होंगे। उसके इरादे बद तो हो ही नहीं सकते। जरूर इसके पीछे भी कोई राज होगा। अगर वह कांटा चुभाता है तो जगाने के लिए चुभाता होगा। और अगर रास्तों पर पत्थर डाल रखे हैं उसने तो सीढ़ियां बनाने के लिए डाल रखे होंगे। और अगर मुझे बेचैनी देता है, परेशानी देता है, तो जरूर मेरे भीतर कोई सोई हुई अभीप्सा को प्रज्वलित कर रहा होगा; मेरे भीतर कोई आग जलाने की चेष्टा कर रहा होगा।
जिसने सब परमात्मा पर छोड़ा, उसके लिए दुख भी सुख हो जाते हैं। और जिसने सब अपने हाथ में रखा, उसके लिए सुख भी दुख हो जाते हैं।
जिसे तुम जीवन समझ रहे हो, वह जीवन नहीं है, टुकड़े-टुकड़े मौत है। जन्म के बाद तुमने मरने के सिवाय और किया ही क्या है? रोज-रोज मर रहे हो। और जिम्मेवार कौन है? अस्तित्व ने जीवन दिया है, मृत्यु हमारा आविष्कार है। अस्तित्व ने आनंद दिया है, दुख हमारी खोज है।
प्रत्येक बच्चा आनंद लेकर पैदा होता है; और बहुत कम बूढ़े हैं जो आनंद लेकर विदा होते हैं। जो विदा होते हैं उन्हीं को हम बुद्ध कहते हैं। सभी यहां आनंद लेकर जन्मते हैं; आश्र्चर्यविमुग्ध आंखें लेकर जन्मते हैं; आह्लाद से भरा हुआ हृदय लेकर जन्मते हैं। हर बच्चे की आंख में झांक कर देखो, नहीं दीखती तुम्हें निर्मल गहराई? और हर बच्चे के चेहरे पर देखो, नहीं दीखता तुम्हें आनंद का आलोक? और फिर क्या हो जाता है? क्या हो जाता है? फूल की तरह जो जन्मते हैं, वे कांटे क्यों हो जाते हैं?
जरूर कहीं हमारे जीवन की पूरी शिक्षण की व्यवस्था भ्रांत है। हमारा पूरा संस्कार गलत है। हमारा पूरा समाज रुग्ण है। हमें गलत सिखाया जा रहा है। हमें सुख पाने के लिए दौड़ सिखाई जा रही है। दौड़ो! ज्यादा धन होगा तो ज्यादा सुख होगा। ज्यादा बड़ा पद होगा तो ज्यादा सुख होगा।
गलत हैं ये बातें। न धन से सुख होता है, न पद से सुख होता है। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धन छोड़ दो या पद छोड़ दो। मैं इतना ही कह रहा हूं, इनसे सुख का कोई नाता नहीं। सुख तो होता है भीतर डुबकी मारने से। हां, अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में धन हो तो धन भी सुख देता है। अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में दुख हो तो दुख भी सुख बन जाता है। जिसने भीतर डुबकी मारी, उसके हाथ में जादू आ गया, जादू की छड़ी आ गई। वह भीड़ में रहे, तो अकेला। वह शोरगुल में रहे, तो संगीत में। वह जल में चलता है, लेकिन जल में उसके पैर नहीं भीगते।
यह मैं नहीं कह सकता कि ये दुख अगर मिल रहे हैं तो पिछले जन्मों के हैं। पिछले जन्मों के दुख पिछले जन्मों में मिल गए होंगे। परमात्मा उधारी में भरोसा नहीं करता। अभी आग में हाथ डालोगे, अभी जलेगा, अगले जन्म में नहीं। और अभी किसी को दुख दोगे तो अभी दुख पाओगे, अगले जन्म में नहीं। यह अगले जन्म की तरकीब बड़ी चालबाज ईजाद है, बड़ा षड्यंत्र है, बड़ा धोखा है।
अगर अभी प्रेम करोगे तो अभी सुख बरसेगा और अभी क्रोध करोगे तो अभी दुख बरसेगा। सच तो यह है, क्रोध करने के पहले ही आदमी क्रोध से भस्मीभूत हो जाता है। दूसरे को जलाओ, उसके पहले खुद जलना पड़ता है। दूसरे को दुख दो, उसके पहले खुद को दुख देना पड़ता है।
ये पिछले जन्मों के दुख नहीं हैं। अभी जो कर रहे हो, उसी का परिणाम है। पहले तो मेरी बात सुन कर चोट लगेगी, क्योंकि सांत्वना नहीं मिलेगी। लेकिन अगर मेरी बात समझे तो छुटकारे का उपाय भी है। तो खुशी भी होगी। अगर इसी जन्म की बात है तो कुछ किया जा सकता है। यही मैं कह रहा हूं कि अभी कुछ किया जा सकता है।
सुख छोड़ो! सुख की आकांक्षा छोड़ो! सुख की आकांक्षा का अर्थ है-बाहर से कुछ मिलेगा, तो सुख। बाहर से कभी सुख नहीं मिलता। सुख की सारी आकांक्षा को ध्यान की आकांक्षा में रूपांतरित करो। सुख नहीं चाहिए, आनंद चाहिए। और आनंद भीतर है।
तो भीतर जितना समय मिल जाए, उतना भीतर डुबकी मारो। जब मिल जाए, दिन-रात, काम-धाम से बच कर, जब सुविधा मिल जाए, पति दफ्तर चले जाएं, बच्चे स्कूल चले जाएं, तो घड़ी दो घड़ी के लिए द्वार-दरवाजे बंद करके-घर के ही नहीं, इंद्रियों के भी द्वार-दरवाजे बंद करके-भीतर डूब जाओ। और धीरे-धीरे सुख के फूल खिलने शुरू हो जाएंगे-महासुख के! और वे ऐसे फूल हैं जो खिलते हैं तो फिर मुर्झाते नहीं हैं।
Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Monday, May 10, 2010
Why the suffering in this life I've got pain?
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