डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली
त्वदीयं वस्तु गोविन्दं
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद जी से दीक्षा के कई वर्षों बाद जब निखिलेश्वरानंद की सेवा, एक निष्ठता एवं पूर्ण शिष्यत्व से स्वामीजी प्रभावित हुए, तो एक दिन पूछा –
“निखिल! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ, तुम जो कुछ भी चाहो, मांग सकते हो, असंभव मांग भी पूरी कर सकूँगा, मांगों?”
निखिलेश्वरानंद एक क्षण तक गुरु चरणों को निहारते रहे, बोले –
“त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेवम समर्पयेत”
जब ‘मेरा’ कहने लायक मेरे पास कुछ हैं ही नहीं, तो मैं क्या मांगूं, किसके लिए मांगू, मेरा मन, प्राण रोम प्रतिरोम तो आपका हैं, आपका ही तो आपको समर्पित हैं, मेरा अस्तित्व ही कहाँ हैं?
उत्तर सुनकर कठोर चट्टान सद्दश गुरु की आँखें डबडबा आई और शिष्य को अपने हांथों से उठाकर सीने से चिपका दिया, एकाकार कर दिया, पूर्णत्व दे दिया.
कुण्डलिनी - दर्शन
उस दिन रविवार था, हम सब शिष्य गुरुदेव (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के सामने गंगोत्री के तट पर बैठे हुए थे, सामने चट्टान पर अधलेटे से स्वामी जी (गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे.
बात चल पड़ी कुण्डलिनी पर. गुरुभाई कार्तिकेय ने पूछा –
"गुरुवर कुण्डलिनी से सम्बंधित चक्र, दल आदि का विवरण हैं, यही नहीं अपितु दल की पंखुडियां और रंग तक बताया गया हैं, क्या यह सब ठीक हैं?"
गुरुदेव मुस्कुराये, बोले - देखना चाहते हो, और वे सामने सीधे बैठ गए, श्वासोत्थान कर उन्होंने ज्योहीं प्राणों को सहस्त्रार में स्थित किया, की हम लोगों ने कमल मूलाधार से लगाकर आज्ञाचक्र तक के सभी चक्र, कमल और प्रस्फुटन साफ - साफ देखे, सभी कमल विकसित थे और योग ग्रंथों में जिस प्रकार से इन चक्रों और कमलों के रंग, बीज ब्रह्म आदि वर्णित हैं, उन्हीं रंगों में वे उत्थित चक्र देखकर आश्चर्यचकित रह गए... सब कुछ साफ - साफ शीशे की तरह दिखाई दे रहा था.
पूज्य गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी के इस कुण्डलिनी दिग्दर्शन पर हम सब आश्चर्य के साथ - साथ श्रद्धानत थे
मेरे गुरुदेव के शारीर से महकता हैं चन्दन
हिमालय के समस्त सन्यासियों की दबी – ढकी वह इच्छा बराबर रहती हैं की वे योगिराज निखिलेश्वरानंद जी (डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी) के साथ कुछ क्षण रहे, बातचीत करें, आशीर्वाद प्राप्त करें, पर ऐसा सौभाग्य तो तब मिलता हैं, जब सात जन्म के पुन्य उदय हो.
मेरा सौभाग्य हैं की मैं उनका शिष्य हूँ और उनके द्वारा “लोकोत्तर साधना” में सफलता प्राप्त कर सका, उनके साथ मनोवेग से कई बार अन्य ग्रहों की यात्रा कर देखने – जानने का अवसर मिला.
“लोकोत्तर - साधना” के अद्वितीय योगी निखिलेश्वरानंद जी के पास क्षण भर बैठने से ही चन्दन की महक सी अनुभव होती हैं, उनके शरीर से चन्दन महकता रहता हैं, वे सही अर्थों में आज के युग के अद्वितीय तपोपुन्ज हैं.
मेरे गुरुदेव क्यों छिपाएं रखते हैं अपने आपको?
मुझे यह फक्र हैं की मेरे गुरु पूज्य श्रीमालीजी (डॉ. नायारण दत्त श्रीमालीजी) हैं, मुझे उनके चरणों में बैठने का मौका मिला हैं, और यथा संभव उन्हें निकट से देखने का प्रयास किया हैं.
उस दिन वे अपने अंडर ग्राउंड में स्थित साधना स्थल पर बैठे हुए थे, अचानक निचे चला गया और मैंने देखा उनका विरत व्यक्तित्व, साधनामय तेजस्वी शरीर और शरीर से झरता हुआ प्रकाश.... ललाट से निकलता हुआ ज्योति पुंज और साधना की तेजस्विता से ओतप्रोत उस समय का वह साधना कक्ष.... जब की उस साधनात्मक विद्युत् प्रवाह से पूरा कक्ष चार्ज था, ऊष्णता से दाहक रहा था और मात्र एक मिनट खडा रहने पर मेरा शरीर फूंक सा रहा था, कैसे बैठे रहते हैं, गुरुदेव घंटों इस कक्ष में?
बाहर जन सामान्य में गुरुदेव कितने सरल और सामान्य दिखाई देते हैं, कब पहिचानेंगे हम सब लोग उन्हें? उस अथाह समुद्र में से हम क्या ले पाएं हैं अब तक...... क्यों छिपाएं रखते हैं, वे अपने आपको?
-सेवानंद ज्ञानी १९८४ जन. - फर.
अंतर
कहाँ आपका सन्यासी प्रचंड उद्वर्ष रूप, कि ऊंचे से ऊंचा योगी भी कुछ क्षण पास बैठने के लिए तरसता हैं, हम इतने वर्षों से आपके सन्यासी शिष्य हैं आपके साथ रहे हैं, आपका क्रोध देखा हैं, प्रचंड उग्र रूप देखा हैं और यहाँ आपका गृहस्थ रूप देख रहे हैं, आश्चर्य होता हैं, आपकर इन दोनों रूपों को देखकर.
हम सन्यासी शिष्यों में इतने वर्षों तक साथ रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने रहने के बावजूद भी इतनी हिम्मत नहीं कि आपके सामने खड़े होकर, सामने देखकर कुछ बोल सकें... पर यहाँ तो गृहस्थ शिष्यों के साथ आप बैठते हैं हंसी-मजाक करते हैं, और वे आपके सामने बैठकर बतियाने लगते हैं, और आप हैं कि सुनते रहते हैं.... इतना समय हैं क्या आपके पास?
ये कैसे शिष्य हैं, कि सामने देखकर बतियाते रहे... यह सब क्या हैं? - पूंछ रहे थे सनाय्सी गुरुभाई रविन्द्र स्वामी, गुरूजी से.
"तुम नहीं समझते रविन्द्र. यह गृहस्थ संसार हैं, जंगल और हिमालय का प्रांतर नहीं..... ये गृहस्थ शिष्य हैं, इनकी दृष्टि स्थूल हैं ये धन, पुत्र, सुख मांगकर ही प्रसन्न ही जाते हैं, शिष्यत्व क्या हैं? इसे पहिचानने और समझने के लिए बहुत बड़े त्याग कि जरूरत हैं और जहाँ तक मेरा प्रश्न हैं मैं इन पर आवरण डाले रखता हूँ, जो इस आवरण को भेदकर मुझ तक पहुंचता हैं, अपने "स्व" ko मिटाकर लीन होता हैं, वही शिष्य बन सकता हैं वही बनता हैं."
-समाधान किया गुरुदेव ने.
Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Wednesday, September 22, 2010
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