।।ॐ।।
जीवन यात्रा ~भाग ~1
पूज्य गुरुदेव नारायण दत्त श्रीमाली जी
समझ में नही आ रहा कहा से प्रारम्भ करूँ उनका
जीवन आख्यान , जगमग करते ज्योति पुंज की किरणे ही जिस प्रकार उनके बारे में सब कुछ कह देती है उसी प्रकार पूज्य प्रभु के शब्द उनका ज्ञान ही उनके बारे में सब कुछ कह देती है ।जिनके पास बैटकर एक असीम शांति का अनुभव होता है जिनके स्पर्श से रोग शोक शरीर से तो क्या मन से भी दूर हो जाते है ।ऐसे है हमारे पूज्य गुरुदेव -निखिलेश्वरानन्द जी जिन्हें संसार डॉ., नारायण दत्त श्रीमाली के नाम से जानता है और इस नाम के पीछे भी उनका ही एक बड़ा रहस्य छिपा है ।
ॐ नमो नारायणाय
जन्म हुआ तो माँ ने नाम दिया "नारायण" यह प्रेरणा थी , की हे देवी ! तेरे घर चक्रवर्ती सम्राटो से भी अधिक तेज वाला पुत्र उत्पन्न होगा । माँ ने सोचा कि मेरा पुत्र बड़ा होकर धनी प्रभावशाली व्यक्ति होगा परिवार सुख वैभव से। रहेगा उसने ऐसा थोड़े ही सोचा था कि यह पुत्र तो बडा होकर साधू सन्यासी बन जायेगा और राजाओ का भी राजा होगा ।
यह अवतार ही था , तब न तो माँ ने कुछ सोचा न ही परिवार के अन्य सदस्यों ने ।
बालक नारायण जन्म से ही अन्य बालको से
बिलकुल अलग था चार साल की उम्र में मन्त्रो का , गीता का सन्ध्या का रुद्राभिषेक का इस प्रकार उच्चारण करता था मानों कोई
सिद्ध पण्डित पाठ कर रहा हो यह ज्ञान उन्हें किसी से प्राप्त करने की आवश्यकता थोड़े ही थी यह तो उनके जन्म के साथ ही जुड़ा था उनका तो जन्म ही संसार में एक विराट कार्य के लिए हुआ था , और उन्हें अपने समय में कार्य सम्पन्न करना ही था ।
घर वाले चाहते की बालक नारायण बड़ा होकर अपने पिता की तरह ज्योतिष पूजा कर्मकांड का अभ्यास कर परिवार का नाम विख्यात करे , उनके लिए अलग से अध्यापक लगाने की आवश्यकता ही कहा थी , घर में ही तो नित्य प्रति वेद मन्त्रो की ध्वनि गूंजती थी , नित्य यज्ञ होते थे सारा कुछ वैदिक वातावरण ही था , दूर दूर से बालक इनके पिता से शिक्षा लेने आते थे , ऐसे वातावरण पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व का विकास हुआ , लेकिन उन्हें तो अलग मार्ग बनाना था और यह सब कुछ सही क्रम से चल रहा था , वे अपने पिता से गीता के श्लोको के बारे में बहस करते , वेदों - उपनिषदों के एक एक श्लोक ऋचाओं के सम्बन्ध में उनका तर्क चलता , आखिर को उन्हें यह कहना पड़ा कि बेटा नारायण ! मेरे पास जितना ज्ञान है , वह मैंने तुझे बता दिया है , मेरे पास तेरे सब प्रश्नो के
उत्तर नही है , और यही से बालक नारायण के मन में ज्ञान की भूख जाग्रत हुई कि जो कुछ भी सीखना है , ज्ञान प्राप्त करना है , वह पूर्णता तक होना चाहिए , अधूरा ज्ञान मन का नाश करता है ।
क्रमशः
पूरी जानकारी गुरुदेव के सत्साहित्यो पर आधारित है !
जीवन यात्रा ~भाग ~1
पूज्य गुरुदेव नारायण दत्त श्रीमाली जी
समझ में नही आ रहा कहा से प्रारम्भ करूँ उनका
जीवन आख्यान , जगमग करते ज्योति पुंज की किरणे ही जिस प्रकार उनके बारे में सब कुछ कह देती है उसी प्रकार पूज्य प्रभु के शब्द उनका ज्ञान ही उनके बारे में सब कुछ कह देती है ।जिनके पास बैटकर एक असीम शांति का अनुभव होता है जिनके स्पर्श से रोग शोक शरीर से तो क्या मन से भी दूर हो जाते है ।ऐसे है हमारे पूज्य गुरुदेव -निखिलेश्वरानन्द जी जिन्हें संसार डॉ., नारायण दत्त श्रीमाली के नाम से जानता है और इस नाम के पीछे भी उनका ही एक बड़ा रहस्य छिपा है ।
ॐ नमो नारायणाय
जन्म हुआ तो माँ ने नाम दिया "नारायण" यह प्रेरणा थी , की हे देवी ! तेरे घर चक्रवर्ती सम्राटो से भी अधिक तेज वाला पुत्र उत्पन्न होगा । माँ ने सोचा कि मेरा पुत्र बड़ा होकर धनी प्रभावशाली व्यक्ति होगा परिवार सुख वैभव से। रहेगा उसने ऐसा थोड़े ही सोचा था कि यह पुत्र तो बडा होकर साधू सन्यासी बन जायेगा और राजाओ का भी राजा होगा ।
यह अवतार ही था , तब न तो माँ ने कुछ सोचा न ही परिवार के अन्य सदस्यों ने ।
बालक नारायण जन्म से ही अन्य बालको से
बिलकुल अलग था चार साल की उम्र में मन्त्रो का , गीता का सन्ध्या का रुद्राभिषेक का इस प्रकार उच्चारण करता था मानों कोई
सिद्ध पण्डित पाठ कर रहा हो यह ज्ञान उन्हें किसी से प्राप्त करने की आवश्यकता थोड़े ही थी यह तो उनके जन्म के साथ ही जुड़ा था उनका तो जन्म ही संसार में एक विराट कार्य के लिए हुआ था , और उन्हें अपने समय में कार्य सम्पन्न करना ही था ।
घर वाले चाहते की बालक नारायण बड़ा होकर अपने पिता की तरह ज्योतिष पूजा कर्मकांड का अभ्यास कर परिवार का नाम विख्यात करे , उनके लिए अलग से अध्यापक लगाने की आवश्यकता ही कहा थी , घर में ही तो नित्य प्रति वेद मन्त्रो की ध्वनि गूंजती थी , नित्य यज्ञ होते थे सारा कुछ वैदिक वातावरण ही था , दूर दूर से बालक इनके पिता से शिक्षा लेने आते थे , ऐसे वातावरण पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व का विकास हुआ , लेकिन उन्हें तो अलग मार्ग बनाना था और यह सब कुछ सही क्रम से चल रहा था , वे अपने पिता से गीता के श्लोको के बारे में बहस करते , वेदों - उपनिषदों के एक एक श्लोक ऋचाओं के सम्बन्ध में उनका तर्क चलता , आखिर को उन्हें यह कहना पड़ा कि बेटा नारायण ! मेरे पास जितना ज्ञान है , वह मैंने तुझे बता दिया है , मेरे पास तेरे सब प्रश्नो के
उत्तर नही है , और यही से बालक नारायण के मन में ज्ञान की भूख जाग्रत हुई कि जो कुछ भी सीखना है , ज्ञान प्राप्त करना है , वह पूर्णता तक होना चाहिए , अधूरा ज्ञान मन का नाश करता है ।
क्रमशः
पूरी जानकारी गुरुदेव के सत्साहित्यो पर आधारित है !
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