Tuesday, August 30, 2011

mantra mulam guru vakayam

"मन्त्र मुलं गुरु बाक्यम"
स्वामी विवेकानंद , के छोटे गुरु भाई स्वामी विज्ञाना नन्द (जोकि उम्र में स्वामी जी से बहुत ही छोटे थे ) बेलूर मठ में कुछ काम करा रहे थे , तभी स्वामी जी का वहां आगमन हुआ , पता नहीं बात चीत के सिलसिले में स्वामी विज्ञाना नन्द के मुह से निकल गया .आप तो गुरुदेव की बातों के विपरीत काम करते हैं , स्वामी विवेकानंद जी कदाचित कुछ गुस्से में आ गए बोले मैंने कौन सा काम विपरीत किया हैं .
विज्ञानं जी बोले ठाकुर का स्पस्ट आदेश था की कामिनी से दूर रहो पर जैसा की हमें पता चला हैं की आप इंग्लैंड और अमेरिका प्रवास में इन के के साथ ही रहते थे, यह तो विपरीत बात हैं .यह तो आपने ठीक नहीं किया . कदाचित गुरु आज्ञा का उल्लघन हैं
इस बात को सुनते हो स्वामी जी का चेहरा मानो क्रोध से लाल तप्त हो गया , यह देख कर विज्ञाना नन्द जी वहां से भाग निकले और स्वामी ब्रम्हानद जी के पीछे जा छुपे , और उन्हें सारी बात बता दी बोले की स्वामी जी मुझे ढूढ़ते आ रहे हैं मुझे बचाए ..
जब स्वामी जी , विज्ञाना नन्द जी को ढूढ़ते हुए वहां आये तो बोले सामने आ .
ब्रम्हानद जी बोले , नरेन्द्र वह बच्चा है न , कुछ बोलना चाहता था पर गलती से कुछ बोल गया , पर तुम तो समझदार हो , बच्चे को माफ़ करो .
यह सुनते ही स्वामी जी शांत हो गए ( परमहंस जी के इन दोनों शिष्यों में आपस में अपार स्नेह था ).
फिर शांत हो कर बोले विज्ञानं …यहाँ…. आ,,, .
देख बेटा ठाकुर ने तुम लोगों से जो बोला हैं उसका पालन तुम लोग करो . मेरे मन से ,ह्रदय से ,मेरी दृष्टी से उन्होंने स्त्री पुरुष की भेद दृष्टी ही अपनी महत कृपा से मिटा दी हैं अब मेरे लिए सब इश्वर कि संतान हैं ओर कोई भेद नहीं हैं इसलिए में वह करूँगा या आज तक किया हैं जो ठाकुर ने मुझे बोला हैं कहा हैं उनकी मनसा हैं , समझा तू .
स्वामी विज्ञानं ने स्वीकार कर लिया ,
(ध्यान रहे जब स्वामी जी ,विदेश प्रवास में थे तब उनके बारे में कुछ गलत सलत सुन कर दूसरों की कौन कहे, स्वयं मठ वासियों के मन में भी संदेह आ गया था , तब गिरीश चन्द्र घोष जो बंगाल के रंग मच के प्रख्यात कर्मी थे ओर सभी गुरु भाइयों मे वरिष्ठ थे , यह सब अनर्गल बाते उन्होंने सुन कर कहा था , मेरे नरेद्र तो प्रातः कालीन निकले मख्खन के सामान शुद्ध हैं , जिस दिन उसमे दोष देखूँगा उस दिन वह मेरी ही आखों का दोष होगा .)
इसलिए मित्रों ,सदगुरुदेव भगवान् ने किस किस शिष्य को क्या क्या आज्ञा दी , यह तो वहीँ जाने , क्योंकि उन्होंने अपने हीओ दिव्य कर कमलो से कितनो का जीवन पवित्र किया हैं वह सोचना या जानना हमारा कार्य नहीं हैं , पर एक बार अपने ह्रदय पर निष्पक्ष रूप से हाथ रख कर साफ़ मन से देखें ,उनकी क्रिया का कुछ तो समझ आ ही जायेगा,
यह सोचना की जो हम बच्चो को आज्ञा दी हैं क्या वही आज्ञा उन्होंने अपने सन्यासी शिष्यों को दी होगी सोच कर देखें ,फिर उनकी दिव्या बचनो मेसे हम कुछ अपनी पसंद के चुन चुनकर सभी के लिए कहना या सब पर मानदंड बनाना कितना सही हैं (पहले हम तो शिष्यता का पहला अक्षर पढ़ ले ,)वह तो हमारा ह्रदय ही समझ सकता हैं यदि हम समझना चाहे तो ..

parad Bigrah ke samband main

पारद विग्रह के सम्बन्ध में :

मित्रों ,
पारद का एक नाम quick silver भी हैं इसी कारण जब भी बाज़ार में चाँदी के भाव में उछाल आता हैं तो पारे के प्रति किलोग्राम मूल्य में भी उछाल आता ही हैं, अभी दो तीन महीने पहले की बात हैं जब पारा बाज़ार में उपलब्ध ही नहीं हो पा रहा था तब बहुत ही मुश्किल से दिल्ली के बाज़ार में साधारण पारा जो अनेको दोष युक्त होता हैं ८००० रूपये किलो मिल पाया , और उच्चस्तरीय कंपनी का पारा तो १८,००० से २०,००० रूपये किलो मिल रहा था ,

अब आप ही सोचे
जब १००० ग्राम (1 kg)पारा ----- ८००० रुपये
तो १०० ग्राम पारा ---- लगभग ८०० रुपये में ही आएगा ,

तब आप ही सोचे की जब मात्र अशुद्ध पारे की कीमत १०० ग्राम की ही इतनी हैं तब कमसे कम अष्ट संस्कार और स्वर्ण ग्रास देने के बाद वह कितना मूल्य वान हो जायेगा , फिर तो अभी इस विग्रह को निर्माण के दौरान और निर्माण के बाद भी उनके सदगुरुदेव द्वारा भिन्न ग्रंथो में वर्णित प्रक्रिया ओं से गुजरना भी हैं ,

तो कैसे वह विग्रह आपको अंत्यंत अल्प मोलिय मात्र ३०० /४०० रुपये में मिल सकता हैं .

आप सभी जानते हैं कि बाज़ार में अब क्या कहा जाये दुकानों में तो १ -१ रूपये तक के श्री यन्त्र या श्री यन्त्र चित्र मिल रहे हैं जो दुकान दार इतने सारे यंत्रो को रखकर बेच रहा हैं उसे तो आर्थिक अवस्था में कहाँ पहुँच जाना चाहिए , क्योंकि उसके पास इतने यन्त्र रखे तो हैं ही .ज़रा एक बार तो सोचे..

अभी हाल में ही मुझे नरसिगपुर क्षेत्र के एक गुरु भाई के बारे में जाने का मौका मिला ,(मेरे मित्र जो उनसे संपर्क में रहते हैं उन्होंने बताया ) पता चला ,जिस काल में सदगुरुदेव भौतिक स्वरुप में ह मारे मध्य रहे हैं ,
उस काल में वे , किसी अन्य गुरु भाई के साथ बस सदगुरुदेव भगवान् के दर्शन करने आये थे
,
सदगुरुदेव ने उनसे भी आर्थिक स्थति के बारे में पूछ लिया(जो की उस समय उन गुरु भाई की बहुत सामन्य सी थी ) , तो उन्होंने कहा गुरुदेव में कोई बड़ी साधना नही कर पाउँगा आप जो ठीक समझे .
सदगुरुदेव ने एक बहुत छोटा सा श्री यन्त्र उन्हें अपने पास से दिया , और एक गोपनीय बहुत छोटा सा मंत्र भी दिया ,
वह मात्र एक या दो माला मंत्र जप प्रति दिन करते हैं .
वह आज नरसिंग पुर क्षेत्र (जबलपुर के पास ) में करोंडो की सपदा के मालिक हैं ..

कहने का तात्पर्य यह हैं कि की सही प्रक्रिया गत जो भी विग्रह होगा/ यन्त्र होगा , वह निश्चय ही आपके जीवन में कई गुना परिवर्तन लायेगा ही .
तो आप स्वयं ही समझ सकते हैं की क्यों पारद विग्रह के केबल निर्माण की लागत सामान्य से कई कई गुना अधिक क्यों होती हैं ..

Monday, August 29, 2011

kakini sadhna aaur paarad tantra

समस्त शक्तिपीठों में कामाख्या शक्तिपीठ की बात ही निराली है ,आसाम की खूबसूरत वादियों में अवस्थित यह माँ कामाख्या का शक्तिपीठ गुवाहाटी के नीलांचल पर्वत पर स्थित है .जैसी चैतन्यता ,रहस्यों का भण्डारऔर शक्ति का जीवंत प्रवाह इस दिव्य पीठ पर उपस्थित है वैसा शायाद ही अन्यत्र होगा .रस शास्त्रा और तन्त्र शास्त्र के अद्भुत वा गूढ़ रहस्यों को ढूँढने के लिए मैं लगभग भारतवर्ष के सभी क्षेत्रों में भ्रमण कर चूका हूँ.पर विगत १४ वर्षों में जो कुछ मुझे आसाम से मिल ही वो साद गुरुदेव की कृपा से मेरे जीवां की अमूल्य धरोहर ही कहला सकता है. मुझे सदगुरुदेव के शिष्यों में से लगभाग अधिकान्स्तः ने वह जाकर कभी न कभी जरूर साधना की है .खुद मुझे भी वह पर ही पारद के लुप्त सूत्रों की प्राप्ति हुयी है. इसी क्रम में मेरी मुलाकात १९९७ की चैत्र नवरात्री में उस परम पावं तंत्र शक्ति पीठ में माँ राज राजेश्वरी षोडशी त्रिपुर सुन्दरी की कौल्मार्गीय पूजा के दौरन डिब्रूगढ़ के प्रसिद्ध रस शास्त्री और तांत्रिक पंडित कालीदत्त शर्मा जी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.मैंने उनसे निवेदन किय की आप मुझे वाम मार्ग के द्वारा संचालित की जाने वाली गुप्त काकिनी साधना के रहस्यों को समझाएं.
सदगुरुदेव की कृपा से उन्होंने न सिर्फ उन सूत्रों को मुझे समझाया बल्कि उस साधना को प्रायोगिक रूप से देखने का अवसर भी प्राप्त हुआ.साधना के लिए कामाख्या पीठ से दक्षिण की और ७५ फीट नीचे अवस्थित माँ त्रिपुर भैरवी के प्रांगन में श्रीयंत्र पीठ को चयनित किया गया. रात्रि १२ बजे एक २०-२२ वर्षीय तरुणी जो की रक्त वर्णीय वस्त्र धारण किये हुए थी को एक विशेष यंत्र क निर्माण अज रक्त वा महिष रक्त से कर आसन बिछा कर बिठा दिया और उनका पूर्ण पूजन तंत्रोक्त पञ्च मकार से कर के उनके सामने एक थाली में एक पारद गुटिका व उसके सामने एक थाली में आधा किलो ताम्बा रख दिया और शर्मा जी ने पूर्ण तन्मयता के साथ माँ र्शंकुशी का आवाहन उस युवती में करके रस बीज संपुटित काकिनी मंत्र का जप धतूरे की माला से करने लगे. लगभग ३ घंटे के बाद उस तरुनी का मुख रक्त वर्ण का हो गया ,वो आपने नेत्रों को बंद करे बैठी थी .४ घंटे में जप पूरा हुआ .और शर्मा जी ने पुष्पांजलि व जप समर्पित कर प्रणाम किया .प्रणाम करते के उस तरुणी ने आशीष के लिए वरद हस्त उठाया और जैसे के नेत्रों को खोल कर उस ताम्बे को देखा उनके आँखों से रक्त रश्मियों का प्रवाह प्रारंभ हो गया और जैसे के वो प्रवाह बंद हुआ उस ताम्बे की जगह विशुद्ध स्वर्ण उपस्थित था.
मैंने जब शर्मा जी से पूछा की ये कौन सा यन्त्र रथ तो उन्होंने बताया की ये काकिनी यंत्र या स्वर्ण सिद्धि यन्त्र था और ये काकिनी मंत्रो से सिद्ध पारद भैरवी गुटिका थी .इसी गति के माध्यम सी आप २७ नक्षत्रों की शक्तियों का स्थापन कर उनके द्वारा शत्रु के ऊपर स्तम्भन उर मरण की क्रिया भी कर सकते हो.इसी प्रकार स्वर्ण का निर्माण भी किया जा सकता है.
स्वर्ण प्रकृति में पाई जाने वाली विशुद्ध आभा मंडल से युक्त धातु है जो दिव्यता देती है.जब हम पारद के द्वारा रस क्रिया करते हैं तो रस शुद्धि के साथ हमारी भी आंतरिक शुद्धि होते जती है, और धीरे धीरे हमारे अंडे व्याप्त सूक्ष्म शक्तियां विराट रूप में बहार प्रकट हो जय है तथा अध्यात्मिक तेज़ सुनहरे आभा मंडल के रूप में दिखाई पड़ने लगता है जो इस बात का चिन्ह होता के की हमारा व्यक्तित्व परिष्कृत हो चूका है.अर्थात आन्तरिक कीमिया भी हो गयी.


In search of amazing and the hidden aspects of "Ras Shastra","Tantra Shastra" I have visited almost entire India but from the last 14 years the learning’s which I have found in Assam is the most precious learning which our Sadgurudev has taught me with all his blessings...

Like me, many of the Sadgurudev students almost have went there and conducted the devotions; including myself and I too have got the treasures of the extinct synopsis of the Mercury...Related to this track I got a very important and auspicious chance to meet with the great Holy and Divine person Shri "Pandit Kalidatt Sharma" who is the famous Ras Shastri & Devotee of the most powerful and enchanting Shaktipeeth - "Maa Raj Rajeshwari-Shodashi Tripur Sundari"(Means - the most beautiful and the divine goddess in the whole Universe among all) during the worship of "Kaulmargiya Pooja"in the years 1997 at Dibhrugarh....I requested him to teach about the devotion - "Gupt Kakini Sadhna" through the "Vaam Marg"....

With the all blessings of the Sadgurudev, I not only got the chance of learning the Process but he also showed it practically. For the devotion and the process, the "Shriyantra Peeth"was selected which was in the Southern Direction from back portion of the Kamakhya Shakti Peeth and was 75 Feet downwards situated in the Verandah of Goddess "Maa Tripur Bhairavi".... as it has been considered the most soothing and effective place for such devotions 7 it is a saying that at this place, whatever will be the process conducted; will give the amazing results.

At Midnight 12 am, the 20-22 years a beautiful and young lady who was wearing bright blood red color dress was allowed to sit on a holy mat which was created by a special process by a Special "Yantra" and was conducted with the "Aj Rakht" and "Mahish Rakht"...The total process was worshipped by the proper "Tantrokt Panch Makaar" and after that in a steel plate one "Parad Gutika"was placed in front of her and with that 500 gms Copper was also placed...

After all this, Shri Sharma Ji offered his devotion and worship with total concentration and determination to "Maa Shankarushi"in the body of that lady and worshipped the "Ras Beej Samputit Kakini Mantra” with the help of the "Dhatura Mala"....

About 3 hours later, the face of that lady turned Blood Red; she was sitting with the closed eyes...The process took 4 hours...and Shri Sharma Ji got up and finished the ceremony by offering "Pushpanjali" along with the whole devotion done and bowed his hands in front of the Lady.... After Shri Sharma Ji bowed, the lady put her hands up to bless him and as soon as she opened her eyes and looked the Copper which was placed in front of her.... The flow of the sparkled and bright blood red colored rays started flawlessly for some time...When the rays stopped, that copper was turned into the Pure Gold...Unbelievable but True; Isn’t it???

When I asked Shri Sharma Ji which "Yantra"was this??? He told that this is either "Kakini Yantra"or "Swarn Siddhi Yantra" and the Parad Gutika was accomplished with the holy chants of "Kakini Mantras"....
With this state medium you can perform "Stambhan Urr Maran" process by establishment of the powers of 27 planetary positions (Nakshatra)...Similarly you can perform the process of creating Gold also...

The Gold is the most pure element consisting the purest radiance in it among all the other natural elements in the Nature...and because of this it is also considered as the most "Divine Metal".... When we conduct the process of "Ras Kriya"then along with the "Ras Shuddhi"...the purification of our mind and body also takes place.... 7 slowly & gradually the powers which was present in the most minute & tiny form suddenly becomes the most biggest powers.... and the divine Spiritual Aura starts glowing on our face which is a sign that Our Personality has reached at a Zenith and all our loopholes has been finished...

NAKSHATRA TANTRA SE MANORATH SIDDHI

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प्रिय मित्रों,
जय गुरुदेव,
भाई साधना जगत विचित्रताओं से भरा हुआ है और इसकी ये गुणधर्मिता इस स्तर तक है की कभी कभी बुद्धि चकरा ही जाती है .आप चाहे पारद विज्ञानं को देखे, चाहे, तंत्र विज्ञान को या फिर ज्योतिष शास्त्र को .इतनी विविधता इतना रहस्यों का ढेर की बस समझने में चाहे जीवन कितने भी लगा लो कम ही पड़ेंगे. और इन विषयों की यही विशेषता तो मुझे अपने और खींच ले आयी.पर बहुत सी ऐसी बाते भी थी जो की कभी मैंने सोची भी नहीं थी. एक बात अवश्य ध्यान देने वाली है की प्रत्येक विषय एक दुसरे से जुड़े हुए हैं .पारद विज्ञानं का बहुत ही गहरा लेना देना तंत्र शास्त्र, आयुर्वेद शास्त्र और ज्योतिष से है .
जिस प्रकार सूर्य विज्ञान के द्वारा पदार्थों का सृजन किया जाता है या संजीवनी क्रिया की जाती है .उसी प्रकार चन्द्र विज्ञान, शून्य विज्ञान(आकाश विज्ञानं),अग्नि विज्ञानं,नक्षत्र विज्ञानं भी हैं जिनसे उपरोक्त सभी क्रिया की जाती हैं. ये अलग बात है की आज इन विद्याओं को जानने वाले बहुत ही कम होंगे.
आपके अनुसार ज्योतिष क्या है , शायद जीवन की घटनाओं को अध्यन करने वाला शास्त्र ,है न.पर जब आप इसके रहस्य को समझेंगे तो इस लिखे पर सिवाय अचरज के और कुछ बाकि नहीं रहेगा.वैसे यदि हम इस रहस्य को परे भी कर दें तब भी हम्मे से बहुत ही कम लो ग इस विज्ञानं का लाभ ले पाते हैं. भले ही हमें लाख पता हो की अमुक घटना का निर्धारण ज्योतिष के अनुसार इस दिन हुआ है तब भी क्या हम उसका ल;अभ उठा पाते हैं या फिर उसकी वजह से होने वाली हानि को कम कर पाते हैं .शायद नहीं न.
खैर मैं आपके सामने जिस रहस्य को प्रकट कर रहा हूँ वो ये है की जिस भी व्यक्ति ने ज्योतिष शास्त्र का अध्यन किया होगा उसने २७ नक्षत्रों के बारे में जरूर पढ़ा होगा जिनके द्वारा व्यक्ति का स्वाभाव निर्धारण और राशियों का निर्माण आदि होता है .पर सच तो ये है की तंत्र शास्त्र का एक प्रभाग ज्योतिष तंत्र भी है जिनमे इन नक्षत्रों की शक्ति का प्रयोग कर अपने कैसे भी मनोरथ को पूरा किया जा सकता है .पहले मैं आपको एक उदहारण दे दूं .मान लीजिये एक नक्षत्र साधक किसी व्यक्ति के किसी अंग में विकार उत्पान करना चाहता है तो वो एक ख़ास दिन की मध्य रात्रि में एक प्रयोग संपादित करता है जिसमे वो अपने शत्रु का चित्र जमीन पर बनाता है( रेखाचित्र) .फिर संहार क्रम से उसके शरीर प्रत्येक अंग में निवासित नक्षत्रों को विलोम क्रम से आवाहित कर उनका पूजन करता है और उस स्थान पर एक तेल का दीपक लगता है ऐसे ही २७ स्थानों पर २७ दीप लगा कर वो एक प्रथक दीपक सर के ऊपर तथा दो पैरो के नीचे लगाता है.और एक विशेष मन्त्रं का सम्पुट नक्षत्र के मंत्र में लगा कर लोम विलोम जाप करता है जिस नक्षत्र के मंत्र का जाप होता है वो नक्षत्र जिस अंग का प्रतिनिधित्व करता है वो अंग धीरे धीरे निष्क्रिय ही हो जाता है .यदि ह्रदय से सम्बंधित नक्षत्र के मन्त्र का जप किया जाये तो मृत्यु ही हो जाती है . ऐसा नहीं है दुष्ट कर्म में ही इस विद्या का प्रयोग किया जाता है बल्कि इस साधना में सौम्य बीजो का प्रयोग कर अंगो के रोगों या शिथिलता से भी मुक्ति दिलाई जाती है. यदि किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली में ग्रहों की स्तिथिति उसके भाग्योदय के प्रतिकूल है तो उसके लिए एक ख़ास समय में उपरोक्त प्रक्रिया कर के भाग्योदय करक बीज मन्त्र से संपुटित नक्षत्रों के मन्त्र के जप से उसके लिए परिस्तिथियाँ अनुकूल ही नहीं होती बल्कि सफलता भी मिलने लगती है. चाहे वो मुक़दमे में सफलता प्राप्ति की बात हो, लक्ष्मी प्राप्ति की बात हो, प्रेम में सफलता चाहिए , या उच्चाटन करना हो.शत्रु शमन हो या फिर स्वर्ण निर्माण . दिशाओं का निर्धारण, समय का उचित प्रयोग और गुप्त बीज मन्त्रं का सम्पुटन नक्षत्रों की शक्ति को साधक के लिए कार्यकारी बनाया जा सकता है. इस क्रिया के प्रभाव को मैंने खुद भी अपने जीवन में देखा है .
ये विज्ञान गुप्त जरूर है पर लुप्त नहीं है,जाग्रति हम्मे होनी चाहिए असाध्य कुछ भी नहीं है .ब्रह्माण्ड दीक्षा के द्वारा इन शक्तियों को हस्तगत किया जा सकता है.शर्त वही पहले वाली है हमेशा की तरह सदगुरूदेव के चरणों में पूर्ण समर्पण और परिश्रम.....

Guru sutra 2

शिष्यत्व
• वेदव्यास अपनी मृत्यु शैया पर डबडबायी आँखों से कह रहे थे कि – “ काश ! मुझे कुछ सही और वास्तविक शिष्य मिल जाते |”
• गोरखनाथ ने कहा – “ समर्पित शिष्य मिल जांए यह आश्चर्य सा हो गया है |”
• शंकराचार्य व्यथित भाव से उच्चारित कर रहे थे, कि – यदि कुछ शिष्य मेरे पास हों तो में बहुत कुछ कर लूं |”
• यह सब सही थे, क्यूंकि समर्पित शिष्य कि पहिचान ही अलग है, अहंकार रहित, सर्वस्व समर्पण युक्त, जीवन को फना करने का हौसला रखने वाला |
• वह गुरु के व्यक्तित्व में पूरी तरह से ढल जाता है, वैसी ही चाल, वैसी ही बोलने की अदा, वैसा ही बैठने का ढंग, वैसा ही व्यवहार, चिंतन, विचार और लक्ष्य...
• ऐसा लगे की गुरु की प्रतिकृति हो |
• और ऐसे ही बारह – पूरी पृथ्वी से मात्र बारह शिष्य मिल जांय, तो में पूरे ब्रह्माण्ड को बदल देने का हौसला रखता हूँ |
• बस शिष्य आगे आवें, और मुझे प्राप्त हो जांए |

(गुरु सूत्र से – डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली)


गुरु वाणी
तुम्हारा जीवन एक सामान्य घटना नहीं है एक सामान्य चिंतन नहीं है ,तुम्हे यह मनुष्य देह अनायास ही प्राप्त नहीं हो गयी है कितने ही संघर्ष कितने ही गुरु के प्रयास इसके पीछे है,अत: इस जीवन को सहज ही मत लेना |इसका मूल्य समझो और मूल उद्देश्य को जानो |

मुझे अत्याधिक वेदना होती है जब तुम एक निद्रा की सी अवस्था में खोये रहते हो ,तुम भ्रम में पड़े रहते हो तथा वे भ्रम तुम्हे मूल लक्ष्य की और बढ़ने से रोकते है ,मानव जीवन पाकर भी आप खोये हुए हो यह आपका दुर्भाग्य ही है |

अगर ऐसा है तो तुम मेरे शिष्य हो ही नहीं सकते क्योंकि अगर आप मेरे शिष्य है तो आपमें यह क्षमता होनी चाहिए कि आप पशुता से उपर उठ कर मनुष्यता तथा मनुष्यता से उपर उठ कर देवता के स्थान पर पहुँच जाए |

शिष्य वही है जो भोतिकता को भोगे परन्तु आपने मूल उद्देश्य से न डगमगाए |उसकी द्रष्टि हमेशा आपने लक्ष्य पर टिकी रहे |मेरे इच्छा है कि तुम्हे उस उच्चतम स्थिति पर स्थापित कर दूं जहा भारत क्या ,पूरे विश्व में तुम्हे चुनोती देने वाला कोई न हो |

मैं तुम्हारी सभी कमियों को ओढने को तैयार हूँ ,मैं तुम्हारे विष रुपी कर्मो को पचाने के लिए तैयार हूँ क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो |तुम मेरे आत्म हो ,तुम मेरे अपने हो ,तुम मेरे हृदय की धडकन हो |

दूसरो की तरह तुम केवल धन ,वैभव ,काम ,ऐश्वर्य में फसे हो क्या यह उचित है |मैंने तो हमेशा तुम्हे संपन्न देखना चाहा है पर आत्म उत्थान की बलि देकर सम्पन्नता प्राप्त करना मेरा उद्देश्य नहीं,अगर तुमने सम्पन्नता प्राप्त कर भी ले और तुम्हारी आध्यात्मिक झोली फटी रह जाए तो सब व्यर्थ है |

तुम्हे आध्यात्मिक धरातल पर उच्चता और श्रेष्ठता की स्थिति तक पहुंचाना चाहता हूँ ,मैं चाहता हूँ फिर तुम जैसा कोई दूसरा अन्य न हो ,तुम हो तो केवल तुम हो |

परन्तु यह स्थिति तभी प्राप्त हो सकेगी जब तुम समर्पण कर दोगे ,मुझमे पूर्ण रूप से एकाकार हो सकोगे ,जब तुम्हारे और मेरे बीच थोड़ी भी दूरी नहीं रहेगी ,जब तुम्हारे कण -कण में गुरु का वास होगा ,जब तुम्हारी हर श्वास में उसी का उच्चारण होगा |
और यह स्थिति प्राप्त करने का सरलतम उपाय है गुरु मंत्र |निरंतर गुरु मंत्र जप द्वारा तुम उस स्थिति को प्राप्त कर सकते हो जबकि गुरु और शिष्य में इंच मात्र की भी दूरी नहीं रहती |ऐसा तुम कर पाओ यही मेरे कामना है |

प्रश्न : तैतीस करोड़ देवी-देवताओं के होने पर भी हमें आखिर गुरु की आवश्यकता क्यूँ हैं?

जवाब :
क्यूंकि तैंतीस करोड़ देवी-देवता हमें सब कुछ दे सकते हैं. मगर जन्म-मरण के चक्र से सिर्फ गुरु ही मुक्त कर सकता हैं.
यह तैतीस करोड़ देवी-देवताओं के द्वारा संभव नहीं हैं.
इसलिए ही तो राम और कृष्ण, शंकराचार्य, गुरु गोरखनाथ, मेरे, कबीर, आदि... हर विशिष्ट व्यक्तित्व ने जीवन में गुरु को धारण किया और
तब उनके जीवन में वे अमर हो सके....
..... आज भी इतिहास में, वेदों में, पुराणों ने उन्हें अमर कर दिया....

इसीलिए तो कहा गया हैं:
तीन लोक नव खण्ड में गुरु ते बड़ा न कोय!
करता करे न कर सकें , गुरु करे सो होय!!

KARN PISHACH SADHNA

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Do you know whose speed is the highest speed in whole universe…Hmmm...

Come on just give a thought hnnna..

What happen?

Ohhho it’s but obvious our MIND… hmm isn’t it…Wel in whole universe only human beings are bestowed with this MIND POWER… While other living beings are stimulated by God and performed their task, as they don’t have mind.Hey do you ever heard any animal smiling or laughing?

Due to this mind power, human can imagine and have a caliber of definite intention. Behind every discovery and each siddhi there is imagination power only.

Now what is KARN-PISHACH or KARN-PISHACHINI?

Human’s unlimited Manah Shakti which can be control by power known as KARN-PISHACH or KARN-PISHACHINI sadhna.It clearly means that one who would conquer this mansik shakti can only becomes the Sadhak or Siddha of such divine knowledge.

By these learnings we don’t inactive our mind rather by capturing its Charam and Param activeness earnest effort we spend it in human welfare only.

By this Siddhi we enhace the activation power of mind because the inactive and inert power is of no use?

Behind this Study which principle works u know?

Human’s whole past period is hidden in his conscious and subconscious mind.Therefore whenever u cooridinate your supreme mind power with the other one abruptly u got contact with his mind and in fraction of seconds u become able to know his whole past.It is because from prakar antar your mind is coordinated with the Akaash tatva and then only you became able to hear that secret in universal voice which makes u realize that u r listening it with your own ears.

One must not use this knowledge for self purpose or for any type of malpractices and if done then be ready for bad consequences.This sadhna is for increasing our atmabal and along with that it makes your work easy. Remember TANTRA is not right nor wrong.It only leads us to that shore from where we can decide with the help of our conscious mind that how to use it.

Wel this sadhna is less in force in Tantra but is wonderful sadhna.Socialy Karnapishachini Sadhna is famous more but the types of illusions which are spreaded all over and it frightened the sadhak to perform it. Therefore Karn-Pishach sadhna is more favourable.

Start this sadhna on Monday.
On first day do fast (no food), as it is process of making pious internally and externally too.
Clothes and asan should be white and face towards the south direction.
Night is the best time to attempt it.
Make a knot of Lauki and Sarpakshi roots in red thread and tie it on your head (bring this roots in Pushya Nakshatra)
Do Guru Poojan and Mantra Jap.Then request for accomplishment of this sadhna to revered gurudev.
Then lighten the oil lamp and again worship it.After worshipping with complete concentrated mind do tratak on the tip of lamp and complete the 1.5 lakh times mantra chanting.
Wel in how many days you want to complete it is up to you.So divide it wisely.At max only 21 days can be prolonged but not beyond it.
Definitely you will see success with Guru kripa.

Mantra : om namo bhagvate rudraay karn pishachaay swaha

This sadhna can be attempted by both Waam and Soumya Marg. On continous Mantra chanting you will experience various types of voices which haven’t ever heard.

But Sadhak’s real examination starts after earning Siddhi.As he became capable to know all mentalities of others which could be too dirty and too evil to imagine and for digesting also.Now it is up to you how you keep shut and give peace to ur mind.I remember very wel one of Sadgurudev’s verdict-“It is too easy to siddha the sadhna but is too difficult to stay normal or digest after accomplishing it”.Before doing this sadhna one must go for Diksha sanskar first from Sadgurudev and Poorna Sidhhidayak too.

So come on step forward and adopt such divine sadhnas in ur life and make it successful.

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..... is brahmand me sabse tivra gati kiski hai kya aap bata sakte hain? sochiye to sahi....
....

kya hua .....
are bhai nischay hi man ki ... hai na..
is sampoorn charachar me man roopi shakti keval manushya ke paas hai . jabki anya prani va jeev ishwar ki prerna se karya ko sampadit karta hai, kyonki unke paas man nahi hai kya aapne kabhi kisi janwar ko haste huye dekha hai.... ...

isi man ke karan manushya me kalpana karne, sankalp karne ki kshamta hoti hai. pratyek avishkaar ,pratyek siddhi ke peechhe kalpana shakti hi to hai.

ab karn-pishach, ya karn-pishachni kya hai?

manushya ki asimit manah shakti ke upar jis shakti ke dwara niyantran kiya jata hai use hi karn-pishach ya pishachni sadhna kahte hain. iska matlab saaf hai ki manav ki mansik shakti ka vijeta hi is divya vidya ka sadhak va siddh ban sakta hai.

is vidya ke dwara ham man ko nishkriy nahi karte balki uski charam aur paranm sakriyta ko sadh kar manav - kalyaan me laga dete hain.

is siddhi ke dwara man ki sakriyta ko badhayee jati hai kyunki niskriy ya supt shakti bhala kis kaam ki?

is vidya ke peechhe akhir kaun sa siddhant karya karta hai? ....

vyakti ka poora bhoot kaal uske chetan - avchetan man me chhipa hota hai , isi liye jaise hi aap apne param shakti saali man ka samanjasy jaise hi kisi ke man se karte ho vaise hi jaatak ka poora past aapke samne aa jata hai kyunki prakar antar se aap ke man ka samanvay aakash tatv se ho jata hai aur aap us rahasy ko brahmandiya vani me sunte ho jo ki aapko kaan se sunne ka ahsaas karvati hai .

is vidya ka prayog apni swarth poorti ya galat karyon ko sadhane ke liye na kiya jaye ,anyatha uske dush parinaam bhi milte hain.yeh sadhana aatm bal badhane ki sadhana hai aur aapke kaaryon ko saral kar dhoka hone se to yeh bachati hi hai.yaad rakhiyetantra na to sahi hota hai na hi galat,yeh to hame aise sthan par tathasth kar khada kar deta hai jaha se hame hi yeh nirdharit karna padta hai ki iska ham apne vivek anusaar kaisa prayog karte hain..

tantrashastra ki atyant kam prachlit magar adbhut sadhana hai yeh karn-pishach sadhana . samaj me karn-pishachni sadhana kahi jyada prachlit hai.parantu uske vishay me jo bhrantiyan phaili hain unse vyakti karn-pishachni sadhana karne se darta hai. isi liye karn-pishach sadhana kahi jyada anukul hai .

monday se is sadhna ko karen.
1st day upaas rakhen,kyunki yeh aapke aantrik va bahya pvitrta ki hi prakriya hai,
safed vastr va aasan ho tatha face south ki or ho.
ratri is kary ke liye shreshtha hai .
lauki aur sarpakshi mool ko laal dhage mebandh kar sir par baandh le (in jado ko pushya nakshatra me la len)
guru poojan va mantra jap kare. va guru se is sadhna me safalta ke liye prarthna karen.
phir samne tel ke deepak ko jala kar aur uska poojan karke ekagra chit hokar deepak ki shikha par tratak karte huye 1.5 lakh mantra karen.
dino ki sankhya ka nirdharan aap apni kshamta ke anusaar kare .jyada se jyada 21 din ho sakte hain.

nischay hi guru kripa se aapko safalta prapt hogi.

mantra: om namo bhagvate rudraay karn pishachaay swaha

yeh sadhana vaam marg aur soumya marg dono hi tarike se ki jaa sakti hai .mantra ke lagataar abhyas se aap ko dheere dheere kai aisi aavajen sunayee dene lagti hain jo aapne shayad pahle kabhi nahi suni ho.
par ek saadhak ki pariksha is sadhana ki siddhi ke baad shuru hoti hai ,kyunki wo apne aas paas ke logo ki un maansikta ko bhi janne lagta hai jo ki behad gandi aur buri bhi ho sakti hain .ab yeh aap par hai ki aap apne apko kaise shant rakh pate hain.mujhe sadgurudev ka ek kathan hamesha yaad aata hai ki siddhi pana kathin nahi hai,kathinto use paane ke baad samanya rahne ya use pacha lene me hain.is sadhna ko karne se poorv sadgurudev se sambandhit diksha lena kahi jyada shreshtha hai.aur poorna siddhidayak bhi.

to aage badhiye aur aisi divya sadhanaon ko apna kar apna jeevan safal karen.. ....

GRAH DOSY-JYOTISHIYA AVALOKAN

GRAH DOSY-JYOTISHIYA AVALOKAN
क्या आप जानते हैं की ग्रह दोष क्या है?.... और कैसे इसका प्रभाव पूरे जीवन की खुशियों को समाप्त ही कर देता है . वास्तु दोष क्या है? कैसे इस दोष से घर की सुख शांति ही समाप्त हो जाती है ... प्रायः लोगो को ये शिकायत रहती है की हम पूजा पाठ करते हैं सभी देवी देवताओं को नमन करते हैं पर हमारा दुर्भाग्य बढ़ता ही जाता है. वर्षों से किसी खास मन्त्र की साधना किये जा रहे हैं पर सफलता तो मानों कोसो दूर है ही साथ ही साथ तकलीफे कम होने के बजाय बढती ही चली जा रही है.................
ऐसे कितने ही प्रश्न हैं जिनका उत्तर पाने में लोग अपना जीवन लगा देते हैं पर जितना कोशिश करते हैं उससे कही ज्यादा उलझते चले जाते हैं. इन सारे ही प्रश्नों के उत्तर ज्योतिष शास्त्र के पास हैं शर्त एक ही है की विवेचना ज्योतिष शास्त्रों के सूत्रों के द्वारा हो मतलब ज्योतिष जब तक किसी की विवेचना करता है तब तक तो वो विवेचन सही रहता है पर जैसे ही ज्योतिषी बोलना प्रारंभ करता है सारा का सारा दही फ़ैल ही जाता है.
चलिए आज हम उन सूत्रों को समझने की कोशिश करते हैं जिन्हें सदगुरुदेव ने हमें बताया तो है पर हम ही उन सूत्रों को विस्मृत कर बैठे हैं. मैंने अपने २२ वर्षों के ज्योतिषीय जीवन में कभी भी इन सूत्रों को गलत नहीं पाया है .
१. क्या किन्ही स्तिथियों में देवी -देवताओं का पूजन भी अशुभ हो जाता है ?
हाँ अगर किसी की कुंडली के दुसरे घर में कोई ग्रह नहीं हो और उसके आठवे और बारहवे भावः में जो भी ग्रह बैठे हो वो आपस में शत्रुता रखते हों तो ऐसे हालत में किसी भी देवी देवता का पूजन अशुभ हो जाता है क्यूंकि १२ भाव मोक्ष या समाधी का भी कारक है,२ भाव धर्म स्थान का कारक है,और ८ भाव मृत्यु का .अब यदि २ भाव खली होगा तो उसे जब मृत्यु स्थान का ग्रह पूर्ण दृष्टि मतलब ७ दृष्टि से देखेगा तो आपके साधना का फल भी शून्य ही होगा. और संयुक्त रूप से बैठे हुए १२ भाव का स्वामी यदि शत्रु ही हुआ तो उस स्थान की अशुभता कही ज्यादा बढ़ कर होगी ही .ऐसे में यदि व्यक्ति किसी धर्म स्थान की स्थापना करता है या उसके निर्माण के लिए दान देता है तो उसका विपरीत प्रभाव स्वाभाविक ही है .और एक बात मैं यहाँ स्पष्ट कर देता हूँ की ये प्रभाव सिर्फ आप को ही नहीं होता बल्कि आपकी पूजा का प्रभाव बहुत से जगह पर हो सकता है उदाहरण यदि वहा ८ भाव में सूर्य अपने शत्रु के साथ जो की ८ वे भाव् से सम्बंधित हो तो आर्थिक हानि, शासन सम्बन्धी,पिता को भी कष्ट होगा .चन्द्र होगा तो माँ को,मानसिक शांति को, मंगल होगा तो रक्त सम्बन्धी,भाई सम्बन्धी, लड़ाई झगडे का,बुध होगा तो व्यापार को,बहन को,शुक्र होगा तो सुख शांति, पत्नी को,गुरु हुआ तो विद्या ,ज्ञान, वक् क्षमता को,शनि हुआ तो बड़े तौ, या चाचा, नौकरी को, राहू हुआ तो ससुराल को, केतु हुआ तो बेटे और मित्रों को हानि होगी .
इसी प्रकार जो लोग एक ही समय में अपने पूजा स्थान में बहुत सारे देवी देवता का पूजन करते रहते हैं या तस्वीरे लगा कर रखते हैं वो लोग गलती से सभी तत्वों को जाग्रत कर लेते हैं और ये तत्व आपस में ही टकराकर व्यर्थ हो जाते हैं .यही कारण है की लोग लगातार पूरे जीवन पूजा पाठ करते हैं और उम्र रोते रहते हैं की भगवान आपने हमें कुछ नहीं दिया .इस लिए सदगुरु से पूछकर सर्व प्रथम अपने इष्ट को जानना चाहिए.वे आपके तत्वों को पहचानकर आपको उसका ज्ञान करा देंगे.वैसे इसका पता आपकी कुंडली के ५ वे भाव से होता है वो भाव आपके पूर्वजीवन की किताब ही होता है . इस स्थान के द्वारा जो की आपके प्रेम का भी भाव है ये भी पता चल जाता है की आपके इष्ट के प्रति आपका प्रेम कितना आत्मिक है या आपको इष्ट की कृपा कब मिल पायेगी. यदि पंचमेश का सप्तमेश और व्ययेश (१२ वे भाव का स्वामी) से सम्बन्ध बनता है तो इष्ट प्रत्यक्षीकरण होना ही है, सफलता मिलनी ही है.यदि पंचम भाव में सूर्य हो या वो यहाँ का स्वामी हो तो इष्ट विष्णु होंगे, चन्द्र -शिवजी,मंगल-हनुमान जी,बुध-दुर्गा उपासना, ब्रहस्पति -शिवजी,विष्णु जी, शुक्र-लक्ष्मी,शनि-भैरव, राहू-सरस्वती ,केतु-गणेश जी,...
मतलब पुरुष ग्रह वालो को देवता का और स्त्री ग्रह वालों को देवी का चयन करना चाहिए .साथ ही किस विधि से उपासना करना है इसका पता नवम् भाव से लगता है. यदि पंचम भाव में सतगुन प्रधान राशिः है तो वैदिक विधि,मन्त्र ,योग साधना करना उचित है .राजसी गुण प्रधान राशिः है तो पूर्नोप्चार पूजन व दक्षिण मार्ग तथा तामस गुण युक्त राशिः वालों के लिए उग्र साधनाएं उचित हैं.
इसी प्रकार अपने द्वरा प्रयुक्त मंत्रों का चयन भी सावधानी से करना चाहिए, हमेशा ६,८,१२ भाव में स्तिथ राशियों से सम्बंधित अक्षरों से प्रारंभ होने वाले मन्त्र को न करना ही ज्यादा उचित है ,क्यूंकि यदि हम अपने ६थ भाव की राशिः के प्रभाव वाले अक्षर से प्रारंभ होने वाले मन्त्र का यदि जप करते हैं तो कर्ज,शत्रु,मुकदमा,रोग आदि पीछे लग जाते हैं, ८ वे से बीमारियाँ,दुर्घटना,१२ वे से व्यर्थ का खर्च होना ही है.इस लिए शास्त्र आज्ञा है की मन्त्र हमेशा गुरुमुख से ही लेना चाहिए . गुरु अपने प्राणों से घर्षण कर उसके ताप में उस मन्त्र के दोषों को भस्मीभूत कर देता है .और वो मन्त्र साधक के लिए निर्मल व कल्याणकारी हो जाता है.
इसी प्रकार सिर्फ तथाकथित वास्तुशास्त्रियों के कहने पर घर में तोड़ फोड़ करने से ग्रह-वास्तु आपके अनुकूल नहीं हो सकता बल्कि वास्तु भंग का भी दोष लग जाता है .हर व्यक्ति को अपने घर की भी कुंडली बनवाकर देख लेना चाहिए ,ताकि भावो के आधार पर दिशाओं की शक्ति की जानकारी हो सके तथा शक्ति की प्रबलता को संतुलित किया जा सके.वैसे भी जन्म कुंडली में यदि शनि-राहू, मंगल-राहू, साथ में हो चाहे वो किसी भी भाव में हो तो वास्तु दोष होता ही है. रही बात दिशा की प्रबलता की तो उसके लिए गृह स्वामी की कुंडली का अवलोकन करके ही दिशों की शक्ति के प्रवाह को बताया जा सकता है.
ऐसी किसी भी स्तिथि में गृह दोष निवारण ,वास्तु दोष निवारण साधना और गृह बाधा निवारण दीक्षा के लिए सदगुरुदेव से प्रार्थना करना ही श्रेष्टतम उपाय है. भविष्य में और कुछ सूत्रों पर प्रकाश डालने का प्रयाश करूँगा .तब तक के लिए "ॐ शम"
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Does any one of you know what is “Grah Dosh – Home Defect / Lack” in terms of Astrology and how does it can affect your whole life and can ruin all your happiness forever???? What is “Vastu Dosh” and how this can affect the peace of a home???? Many often people say that they worship a lot but still their bad luck don’t let them go anywhere or from no.of years they are into the devotion but the path of success is still very far and the problems are getting increased rather than decreasing….
There are n no.of questions which people seeks for the right answers but more they want to resolve the more they get confused….All these answers lie in the Astrology but the only one condition is the analysis or prediction must be from the Astrological studies which means that till the time the Astrology analyse something the thing remains accurate but as soon as the Astrologer speaks the whole things becomes a Mess…
Let’s understand today the points which Sadgurudev has told but somehow we have forgotten those important synopsis…Believe me, in my 22 Astrological career I have never found these points wrong even once…
Can the worshipping of any God or Goddess cause any bad luck?
I will say – YES…How???
If in the horoscope, the 2nd house of a birth chart lies vacant (that means – No planetary position) and the Planets which are lying in the 8th & 12th house are rivals of each other than in this condition – Any worship of any of the God / Goddess will create a Bad luck for the person because 12th house represents Salvation or Meditation ; 2nd house represents Religious Matters whereas 8th house represents Death; now understand if the 2nd house will remain vacant and the 8th house of death will parallel see with its full powers then the result of any devotion will be null or zero….. and if in the combination form the master of the 12th house is a rival the hard luck of that house will be much more…Now in this case if a person establish any religious place or donate some amount for pilgrimage construction than too there will be an adverse effect of the same is very much sure…
Here, I want to make one point clear that the effect will not only effect only you but it can effect many other places also for eg.- if in the 8th house, Sun is lying with the rival which is associated with the 8th house it will result into the financial loss , administration loss and will cause harm to father….similarly if Moon will be present it will harm mother and the mental peace….If Mars, it will affect brother’s relation as well as will give blood disease and will cause unnecessary disputes…If Mercury, it will affect the Business and the sister relations…If Venus it will affect the Peace and Prosperity and the wife relations…If Jupiter the studies, knowledge & the speech powers will be affected…If Saturn the family relations will be affected like Elder and Younger Uncle or the Job…If Rahu the In – Laws relations will be affected and last but not the least if Ketu will be present it will affect the Son and the friends…
Similarly, the people who establishes more than one Worship Idol at one place or place too many Idols pictures they directly or indirectly activate all the elements and these elements get intermingled with each other and because of the different powers the energy gets waste and the people regret that instead of worshipping the God for the whole life he has given nothing in return…That’s why first identify for the most important IDOL as per your planetary positions; as soon as the Sadgurudev identifies the same he will ask you to worship for the same accordingly….
You can identify your IDOL by the 5th house from your chart and this position also identifies your early birth work also…from this house you can also identify how much affection lies with your worship IDOL as this position resembles affection and this shows when the IDOL will give blessings to you…If the “Panchmesh” makes relation with the “Saptamesh” and the “Vyayesh” (Master of 12th house) then the IDOL will definitely bless you and the success will be all yours….
If in the 5th house –
SUN lies – the worship IDOL is Lord Vishnu
MOON lies – the worship IDOL is Lord Shiva
MARS lies – the worship IDOL is Lord Hanuman
MERCURY lies - the worship IDOL is Goddess Durga
JUPITER lies - the worship IDOL is Lord Shiva or Lord Vishnu
VENUS lies - the worship IDOL is Goddess Lakshmi
SATURN lies - the worship IDOL is Lord Bhairav
RAHU lies - the worship IDOL is Goddess Saraswati
KETU lies - the worship IDOL is Lord Ganesha
This indicates the Male dominating planets needs to choose the worship IDOL as GOD and the female planets needs to choose GODDESS….along with this one should also know what is the correct method for the worshipping….and this can be identified by the 9th house….
If in the 5th house is dominated by the SATGUN pradhan zodiac sign – the Vedic Vidhi, Mantra, Yog Sadhna is preferred; If RAJASI pradhan – the Poonorpchaar Poojan & if South oriented and TAMAS pradhan sign – Ugra Sadhnayen (Aggressive devotional processes) is considered as the best one…
Similarly, one should take care in selection of the Mantra (Holy Chants)also…Please take care that the alphabets which get starts according to the 6th,8th & 12th house should not take the Mantra which gets start from the same alphabet because if we start chanting the Mantra which gets start from the same alphabet which is ruled by the 6th house it will affect in the form of a Loan, Court Case, Diseases etc…
If the ruling house is 8th then – Accidents and the Disease chances are more…and 12th house will affect in the unnecessary financial expenses…
Hence, it is very well suggested that the Holy chants should always be taken from the Sadgurudev instructions…as the Sadgurudev make active that Mantra with his powers and that Mantra will act as a blessing and useful for the Devotee…
One more important point that one should not renovate his house just because from the instructions given as per the Vastu Astrologer as by doing this cannot give the full results but instead of correction it will be considered as a Vastu Sin…Every person should know about the House horoscope also so as to make each angle of the house favourable as per the ruling house with the help of the ruling directions also..And all these powers can be used as a Positive Energy…
Infact,if in a birth horoscope the Saturn – Rahu & the Mars – Rahu lies with each other it will result into the Vastu Dosh….and as far as power of the direction lies it can analysed only by knowing the horoscope of the head of the family so as to make the results of the Directions powers favourable to him…
In any of the condition viz. Grah Dosh Nivaran, Vastu Dosh Nivaran Sadhna & Grah Badha Nivaran Diksha – Pray to your Sadgurudev is the best option….
In future, I will try to throw more light on the similar topics, till then – OM SHAM…

Friday, August 26, 2011

Maya dasi sant ki sankat ki shir Taj

माया दासी संत की साकट की शिर ताजसाकुट की सिर मानिनी, संतो सहेली लाज 

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि माया तो संतों के लिए दासी की तरह होती है पर अज्ञानियों का ताज बन जाती है। अज्ञानी लोग का माया संचालन करती है जबकि संतों के सामने उसका भाव विनम्र होता है।

गुरू का चेला बीष दे, जो गांठी होय दामपूत पिता को मारसी, ये माया के काम

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते है। कि शिष्य अगर गुरू के पास अधिक संपत्ति देखते हैं तो उसे विष देकर मार डालते है। और पुत्र पिता की हत्या तक कर देता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर देखा जाये तो पैसे की औकात केवल जेब तक ही रहती है जबकि अज्ञानी लोग इसे सदैव अपने सिर पर धारण किए रहती है।। वह बात-बात में अपने धनी होने का प्रमाणपत्र लेकर आ जाते हैं। अपनी तमाम प्रकार डींगें हांकते है। परमार्थ से तो उनका दूर दूर तक नाता नहीं होता। जो लोग ज्ञानी हैं वह जेब मैं पैसा है यह बात अपने दिमाग में लेकर नहीं घूमते। आवश्यकतानुसार उसमें से पैसा खर्च करते हैं पर उसकी चर्चा अधिक नहीं करते। आजकल जिसके भी घर जाओं वह अपने घर के फर्नीचर, टीवी, फ्रिज, वीडियो और कंप्यूटर दिखाकर उनका मूल्य बताना नही भूलता और इस तरह प्रदर्शन करता है जैसे कि केवल उसी के पास है अन्य किसी के पास नहीं। कहने का अभिप्राय है कि लोगों के सिर पर माया अपना प्रभाव इस कदर जमाये हुए है कि उनको केवल अपनी भौतिक उपलब्धि ही दिखती है।
लोग आपस में बैठकर अपने धन और आर्थिक उपलब्धियों पर ही चर्चा करते हैं। अगर कोई गौर करे और सही विश्लेषण करे तो लोग नब्बे फीसदी से अधिक केवल पैसे के मामलों पर ही चर्चा करते हैं। अध्यात्म चर्चा और सत्संग तो लोगों के लिए फ़ालतू कि चीज है । इसके विपरीत जो ज्ञानी और सत्संगी हैं वह कभी भी अपनी आर्थिक और भौतिक उपलब्धियों पर अहंकार नहीं करते। न ही अपने अमीर होने का अहसास सभी को कराते हैं।

वैसे जिस तरह आजकल धार्मिक संस्थानों में संपतियों को लेकर विवाद और मारामारी मची है उसे देखते हुए यह आश्चर्य ही मानना चाहिये कि कबीरदास जी ने भी बहुत पहले ही ऐसा कोई घटनाक्रम देखा होगा इसलिए ही चेताते हैं कि गुरुओं को अधिक संपति नहीं रखना चाहिये। आजकल अनेक संत इस सन्देश कि उपेक्षा कर संपति संग्रह में लगे हुए हैं इसलिए ही विवादों में भी घिरे रहते हैं।

Dhan ki mahta

दान की महत्ता

सैकडों हाथों से एकत्रित करो और हजारों हाथों से बांटो। यह कथन अथर्ववेदसे लिया गया है। वास्तव में, यदि हमें कुछ पाना है, तो कुछ त्याग भी करना पडेगा। यह आध्यात्मिक नियम भी है कि दिया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता है, बल्कि वह कई गुणा बढकर वापस हमारे पास आ जाता है। पाने का पूरक है दान

यदि हम कुछ पाना चाहते हैं, तो पहले दान देना होगा। यह नियम प्रकृति के साथ भी लागू होता है। उदाहरण के लिए यदि हमें अन्न प्राप्त करना है, तो पहले हमें पृथ्वी को बीज के रूप में दान देना पडता है। बाद में यही बीज हमें अन्न-भंडार के रूप में प्राप्त होता है। यदि वृक्षों से हमें फल प्राप्त करना है, तो पहले खाद-पानी एवं सेवा के रूप में कुछ न कुछ त्याग करना ही पडता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में यह नियम समान रूप से लागू होता है। महापुरुषों के अनुसार, जो कुछ भी आपको हासिल करना है, कुछ वही दूसरों को देकर देखिए। सच पूछिए, तो जितना आपने दिया है, उससे कई गुणा ज्यादा आपको मिल जाएगा। चिंतक का दृष्टिकोण

हमारे ऋषि-मुनि भी यही मानते हैं कि जितना अधिक हम दूसरों को देते हैं, उतना ही हम पाते भी हैं। यहां प्रसिद्ध भारतीय चिंतक कृष्णमूर्ति का एक दृष्टांत है। एक व्यक्ति ईश्वर के बहुत समीप था। एक बार ईश्वर ने उससे कहा, एक गिलास जल देना। वह व्यक्ति जल लेने कुछ दूर निकल गया। एक घर में जल मांगने पहुंचा, तो वहां एक सुन्दर युवती को देखा। युवती को देखते ही उसे प्रेम हो गया। यहां तक कि उसने उससे विवाह भी कर लिया। दंपत्तिके बाल-बच्चे भी हो गए। एक बार जोरों की वर्षा हुई। नदी-नाले उमड पडे। अपने घर-परिवार के साथ वह भी जब डूबने लगा, तो उसने ईश्वर से प्रार्थना की, प्रभु मुझे बचा लो। ईश्वर ने कहा, मेरा एक गिलास जल कहां है?

एक ईसाई चिंतक ने इस आध्यात्मिक प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए एक बडी अच्छी घटना को उद्धृत किया है। एक राजा हाथी पर सवार होकर जा रहा था। एक भिक्षुक ने उसे देखा और वह उसके पीछे दौडने लगा, राजा मुझे कुछ दान दो। राजा ने कहा, पहले तुम मुझे कुछ दो। भिक्षुक ने सोचा यह कैसा राजा है, जो एक भिखारी से दान लेना चाहता है! उसने क्रोध में चावल के चार दाने उसके ऊपर फेंक दिए। राजा ने उसके भिक्षा-पात्र में सोने के कई दाने डाल दिए। भिक्षुक ने आश्चर्य से अपने पात्र में पडे सोने के चावलों को देखा और सोचा, मुझे अपने सभी दान को राजा को दे देना चाहिए था। सबसे बडा धर्म

हमारे धर्मग्रंथों में भी कहा गया है कि दान से बडा कोई धर्म नहीं-न हि दानात्परो धर्म:। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है-जिस किसी विधि से दान दो, उससे आपका कल्याण ही होगा।

जेनकेन बिधिदीन्हें।

दान करईकल्यान।।

वेदों ने बहुत पहले ही दान की महत्ता बताई थी। ऋग्वेद में अनेक दान-संबंधी ऋचाएंहैं। उदाहरण के लिए दान नहीं देने वाले मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकते हैं। [ऋक्-10/117/1]

ऐसा कोई धर्म नहीं है, जिसमें दान की महत्ता को रेखांकित नहीं किया गया हो। ईसाई धर्म से लेकर इस्लाम, बौद्ध, जैन, पारसी आदि सभी धर्म एक स्वर से दान की महत्ता का गुणगान करते हैं।

इस्लाम में अनुयायियों के लिए आय का दसवां हिस्सा खैरात के रूप में देने का प्रावधान है। इसी तरह टेथर के रूप में ईसाई धर्म में भी आय का दशम भाग चर्च को नियमित रूप से देने की प्रथा है। बाइबल में भी दान के महत्व को रेखांकित किया गया है। उसके अनुसार, लेने से अधिक देना हमारे लिए सदैव हितकारी होता है। इसलिए यदि हमें आध्यात्मिक साधना करनी है, तो हमें अल्प ही सही, दान जरूर देना चाहिए।

Monday, August 22, 2011

Shri Sanyukt Lakshmi Ganesh prayog


Shri Sanyukt Lakshmi Ganesh prayog






धन आज के युग का सबसे बड़ा सत्य बन गया हैं और क्यों न हो , ऋग वेद मेभी कहा गया हैं की सभी गुण तो केबल मात्र लक्ष्मी के आधीन रहते हैं,मतलब बहुत ही साफ़ हैं एक उच्चस्थ ग्रन्थ कार भी कहता हूँ,मैं भी वही, मेरा ज्ञान भी बही ,पर हे लक्ष्मी केबल तुम्हारी कृपा न पाने के कारण,आज मुझे को कोई नहीं पूछता , कोई सम्मान नहीं देता . यह तो बात ग्रंथो की हैं पर दिन प्रति दिन मे जो हालात हम सभी के सामने हैं उसमे तो कैसे सामना किया जाये यही आ ज की बड़ी समस्या हैं .


कुछ तो इसी में परेशान हैं की लक्ष्मी आये तो सही ,कैसे करे दिन प्रति दिनके खर्चे का सामना .


कुछ की आवश्यकता से अधिक धन उपार्जन की क्षमता हैं पर वह भी कहते रहते हैं कि पैसा हाँथ में रुकता नहीं हैं . क्या यह बात सही हैं??, हाँ कुछ हद तक क्योंकि लक्ष्मी तो चंचला हैं उन्हें कौन रोक सकता हैं .


लक्ष्मी को माँ माँ कह कर आरती करते रहने से आपका ज्यादा नुक्सान हो सकता हैं सदगुरुदेव भगवान् ने कितनी बार इन गोपनीय बातों को अपने लेखो में लिखा हैं की भूल कर भी मैय्या मैय्या कह कर कभी भी लक्ष्मी उपासना न करो क्योंकि जीवन में एक समय के बाद माँ को तो हमेशा देना पड़ता हैं . खैर इस संबंधमे सदगुरुदेव के लेख आप स्वयं ही पढ़े. तब क्या करे की आती हुए लक्ष्मी घर में ही स्थापित रहे , और चलिए स्थापित तो हो गयी पर यदि वह सही ढंग से खर्च न की जा रही हो तो भी मुश्किल क्योंकि तब तो हम मात्र चौकीदार जैसे हो गए न . सदगुरुदेव कहतेहैं लक्ष्मी पुत्र बनना ठीक हैं पर लक्ष्मी दास बनना ठीक नहीं हैं


तब इसको खर्च करते समय बुद्धि का उपयोग करे . यहाँ सद्बुद्धि का उपयोग ज्यादा उचित रहता.


तब भगवान् गणेश का आगमन होता हैं जो विघ्न हर्ता तो हैं ही , पर विघ्न कर्ता. भी हैं.


वह अपने वरद हस्त से सब हमारे अनुकूल कर देते हैं , हम सभी साधक केबल कहने के लिए ही गणेश उपासना केबल खानापूर्ति के लिए साधना के पहले कर लेते हैं . पर हम में से कितने जानते हैं, जब तक मूलाधार चक्र सही न हो तब तक जीवन में न तो साधना में ठीक से बैठना नहीं आ पायेगा, आसन स्थिर हो ही नहीं हो सकता हैं न ही काम भावना पर नियंत्रण हो सकता हैं आज समाज में जो भी काम भावना की अतिरेकता हो रही हैं वह इसी चक्र की गडबडी का नतीजा हैं. हमारे ऋषियों ने कितने सोच कर इस चक्र का नाम दिया हैं मूल + आधार .


और भगवान् गणेश इसी चक्र के देवता हैं , इसलिए इस चक्र को गणेश चक्र भी कहा जाता हैं.वेसे भी किसी भी काम को शुरू करने के लिए श्री गणेश करना भी कहा जाता हैं.


जहाँपर लक्ष्मी के साथ वरदायक भगवान् श्री गणेश का अंकुश रहे वहां आप ही सोच सकते हैं ...शुभता . संपत्ति , श्रेष्ठ ता , बिघ्न रहित जीवन .. सब ही कुछ तो होगा ,


पर कैसे हो यह संभव ..


हर साधक को अपने साधना पूजन में लक्ष्मी और गणेश को स्थान देना ही चाहिए ही .


मंत्र : श्रीं ॐ गं


इसके लिए विशेष नियम नहीं हैं पर आप इस मंत्र की एक माला जप अपनी पूजा में शामिल कर ले. तो धीरे धीरे आप स्वयं इस मंत्र का प्रभाव देख सकते हैं


आज के लिए बस इतना ही
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Money is becoming the biggest truth now a days, and why not it to be, Rig-Veda’ says that all the qualities lies in lakshmi, and one great writer also said that now I am the same , my gyan also as it is, but o goddess lakshmi without your blessing , where am I today ?, no one respect me , no one want to meet me. but these are the writings in books. Every days what we are facing everybody already knew that. How to face the current situation is the biggest problem.


Some are worried how to earn enough/sufficient so that our at least daily minimum needs would be fulfilled.


On the other hand some has the qualities to earn more than enough ,they are also complaining that they are not able to save money , Is it true ??? yes on some level , since lakshmi Is not stationery , she is always moving. who can stop her?.


Those who are continuously doing aarti with saying maiyya maiyya (mother mother ) actually hurting himself, why?, Sadgurudev ji very clearly mentioned that we should not worship goddess lakshmi as a mother since to mother we have to always give after a certain point,, what Sadgurudev more said in this connection , you can read/listen in his divine writings . but is there any way so that lakshmi can be finally made stationery in our home. and suppose if goddess lakshmi becomes totally stationery in our home and if that is not wise fully used than this also become headache. Than we are just a guard and nothing else.


Sadgurudev used to say that its nice to be son of lakshmi instead of lakshmi das.


Then how can be wisely used , here I would like to say through “sadbuddhi”.


Than Bhagvaan Ganesh comes into picture.


Through his blessing everything’s comes to positive for us, he is both obstruction creator and obstruction destroyer., most of us just do the Ganesh sadhana just for formality in the beginning of any sadhana. But how many of us knows that until mooladhar chakra Is properly functioning , till than sitting for any sadhana is not properly possible ,(as needed). And our sexual desire also can not be controlled , now a days whatever/everywhere we are watching is the over excess of this sexual unbalance /sensuous gratification is the result of not properly function of this mooladhar chakra. Think about a minute how wisely our rishis , gave this chakra a name mool +aadhar.( foundation of basic root ).


Bhagvaan Ganesh is the lord of this chakra , that’s why this chakra is also known as Ganesh chakra,, and whenever any new work starts we say we have to “shri Ganesh “ of that work .


Where with lakshmi Bhagvaan Ganesh controlled our buddhi than every thing positivity happens there.


But how that can be possible????.


We should have a place of Ganesh and lakshmi poojan in our daily poojan/sadhana .


Mantra : Shreem om gam .


There is no special rules have to be follow, only one round of rosary /one mala is sufficient and slowly slowly you can see the result.


This is enough for today.

Friday, August 19, 2011

KaLika Astak


कालिकाष्टक (शंकराचार्य विरचितम)



* ध्यान *
गलद्रक्त मुण्डावली कण्ठमाला 
माहाघोर रावा सुदँष्ट्रा कराला।
विवस्त्रा श्मशनालया मुक्तकेशी
महाकाल कामा कुला कालिकेयम।।१।। 

भुजेवामयुग्मे शिरोसिं दधाना
वरं दक्षयुग्मेभयं वै तथैव । 
सुमध्यापी तुंगस्थना भारनम्रा
लसद्रक्त सृक्कद्वया सुस्मितास्या।।२।। 

शवद्वन्दकर्णा वतंसा सुकेशी
लसत्प्रेतपाणीं प्रयुक्तैक कांची। 
शवाकारमँचाधीरुढा शिवाभि-
श्चतुर्दिक्षु शब्दयामानाभिरेजे।।३।। 

      **स्तुती** 
विरन्च्यादिदेवास्त्रयते गुणात्रिम्
समाराध्य कालीँ प्रधाना बवुभु। 
अनादिं सुरादीं मखादिं भवादिं 
स्वरूपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।१।।

जगन्मोहिनियम् तु वाग्वादिनियम्
सुह्रिद्पोषिणी शत्रु संहारणियम्।  
वचस्तम्भनियम् किमुच्चाटनियम्
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।२।।

इयं स्वर्गदात्री पुन: कल्पवल्ली 
मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात।
तथाते कृतार्था भवन्तीति नित्यम
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।३।। 

सुरापानमत्ता शुभक्तानुरक्ता 
लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते। 
जपध्यान् पूजासुधाधौतपंका 
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।४।। 

चिदानन्दकन्दं हसन्मन्दमन्दं 
शरच्चन्द्र कोटीप्रभापुन्ज बिन्वम्। 
मुनीनां कवीनां हृदि ध्योतयन्तं 
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।५।।        

माहामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा
कदचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया। 
न वाला न वृद्धा न कामातुरापि 
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।६।। 

क्षमास्वपराधं माहागुप्तभावं 
मायालोकमध्ये प्रकाशीकृतं यत्। 
तव ध्यानपुतेन चापल्यभावात्
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।७।। 

यदी ध्यान युक्तं पठेध्यो मनुष्य 
स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च। 
गृहे चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्ती-
स्वरुपं त्वदियं न विन्दन्ती देवा।।८।। 

A tribute to Mother..Jay Mahakali Jay Jagat Janani Bhagavati Mata

apradh kashma stotra





अपराध क्षमापन स्तोत्र



न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा:।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्॥1॥


विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति॥2॥


पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहव: सन्ति सरला:
परं तेषां मध्ये विरलतरलोहं तव सुत:।
मदीयोऽयं त्याग: समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति॥3॥


जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति॥4॥


परित्यक्ता देवा विविधविधिसेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥5॥


श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरित चिरं कोटिकनकै:।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जन: को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ॥6॥


चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपति:।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्॥7॥


न मोक्षस्याकाड्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुन:।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपत:॥8॥


नाराधितासि विधिना विविधोपचारै:
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभि:।
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव॥9॥


आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा:
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति॥10॥


जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।
अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम्॥11॥


मत्सम: पातकी नास्ति पापघन्ी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु.

Gurumata........ Image:सिद्धाश्रम निखिल वाणी

Guru Aavhan stotra


गुरु आह्वान् स्तोत्र

१ 
पूर्णम् सतान्यै परिपूर्ण रुपम्।  
गूरुर्वै सतान्यम् दीर्घो वतान्यम्।। 
आवर्विताम् पूर्ण मदैव पुण्यम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
       त्वमेव माता च........... 
२ 
न जानामी योगम न जानामी ध्यानम्। 
न मन्त्रम् न तन्त्रम् योगम् कृयान्वै।। 
न जानामी पुर्णम् न देहम न पूर्वम। 
गुरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
       त्वमेव माता च........... 
३ 
अनाथो दरिद्रो जरा रोग युक्तो। 
माहाक्षिण दीनम् सदा ज्याड्य वक्त्र:।। 
विपत्ती प्रविष्टम् सदाह्म् भजामी। 
गुरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
       त्वमेव माता च........... 
४ 
त्वम् मातृ रुपम् पितृ स्वरुपम्। 
आत्म स्वरुपम् प्राण स्वरुपम्।। 
चैतन्य रुपम् देव दिवन्त्रम्। 
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।  
        त्वमेव माता च...........
५ 
त्वम् नाथ पूर्णम् त्वम् देव पुर्णम्। 
आत्मम् च पूर्णम् ज्ञानम् च पूर्णम्।। 
अहम् त्वाम् प्रपध्ये सदह्म् भजामी। 
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
           त्वमेव माता च........... 
६ 
मम अश्रु अर्घ्यम् पुष्पम् प्रसुनम्। 
देहम् च पुष्पम् शरणम् त्वमेवम्।। 
जीवो$वदाम् पूर्ण मदैव रुपम्। 
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।। 
           त्वमेव माता च...........
आवाहयामि        आवाहयामि। 
शरण्यम् शरण्यम् सदाह्म् शरण्यम्।। 
त्वम् नाथ मेवम् प्रपध्ये प्रशन्नम्। 
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।। 
         त्वमेव माता च...........
८ 
न तातो न माता न बन्धुर्न भ्राता।
न पुत्रो न पुत्री न भृत्योर्न भर्ता।।
न जाया न वित्तम न वृत्तिर्ममेवम्।
गूरुर्वै शरण्यम् गूरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च...........
९ 
आवध्य रुपम् अश्रु प्रवाहम्। 
धीयाम् प्रपध्ये हृदयम् वदान्यै।। 
देह त्वमेवम् शरण्यम् त्वमेवम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च........... 
१० 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
एको हि नाथम् एको हि शब्दम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च...........
११ 
कान्ताम् न पूर्व वदान्यै वदान्यम्। 
को$ह्म् सदान्यै सदाह्म् वदामि।। 
न पूर्वम् पतिर्वै पतिर्वै सदा$ह्म्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च...........
 १२ 
न प्राणो वदार्वै न देहम् नवा$है। 
न नेत्रम न पूर्व सदा$ह्म् वदान्यै।। 
तुच्छम् वदाम् पूर्व मदैव तुल्यम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
         त्वमेव माता च...........
१३ 
पूर्वो न पूर्व न ज्ञानम् न तुल्यम्। 
न नारी नरम् वै पतिर्वै न पत्न्यम्।। 
को कत् कदा कुत्र कदैव तुल्यम्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
        त्वमेव माता च...........
१४ 
गुरुर्वै गतान्यम् गुरुर्वै शतान्यम्। 
गुरुर्वै वदान्यम् गुरुर्वै कथान्यम्।। 
गुरुमेव रुपम् सदा$ह्म् भजामी। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
        त्वमेव माता च...........
१५ 
आत्र वदाम् अश्रु वदैव रुपम्। 
ज्ञानम् वदान्यै परिपूर्ण नित्यम्।। 
गुरुर्वै वज्राह्म् गुरुर्वै भजाह्म्। 
गुरुर्वै शरण्यम् गुरुर्वै शरण्यम्।।
        त्वमेव माता च........... 
१६ 
त्वमेव माता च पिता त्वमेव। 
त्वमेव वन्धुश्च सखा त्वमेव।। 
त्वमेव विध्या द्रविणम् त्वमेव। 
त्वमेव सर्वम् मम देव देव।।

Siddhashram Panchak


सिद्धाश्रम पञ्चक

गुरूत्वम् सदैवम् पुर्णा तदैवम्।
भाग्येन् देवो भवदेव नित्यम्।।
अहो भवाम् परीपूर्ण सिन्धुम्।
गुरूत्वम् शरण्यम् गुरुत्वम शरण्यम्।।
             त्वमेव माता च पिता त्वमेव..........

त्वम् मातृ रुपम् पितृ स्वरुपम्।
बन्धु स्वरुपम् आत्म स्वरुपम्।।
चैतन्य रुपम् पूर्णत्व रुपम्।
गुरूत्वम् शरण्यम् गुरुत्वम् शरण्यम्।।  
           त्वमेव माता च पिता त्वमेव......... 

न तातो न माता न बन्धुर्न भ्राता।
न पुत्रो न पुत्री न भृत्योर्न भर्ता।।
न जाया न वित्तम न वृत्तिर्ममेवम्।
गतिस्त्वम् मतिस्त्वम् गुरूत्वम् शरण्यम्।।
             त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

अनाथो दरिद्रो जरा रोग युक्तो।
महाक्षीण दीन सदा जाड्यवक्ता।।
विपत्ती प्रविष्ट सदाहम् भजामी।
गुरूत्वम् शरण्यम् गुरूत्वम् शरण्यम्।।
             त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

त्वम् मातृ रुपम् त्वम् पितृ रुपम्।
सदैवम् सदैवम् कृपा सिन्धु रुपम्।।
त्वमेवम् शरण्यम् त्वमेवम् शरण्यम्।
गुरूत्वम् सदैवम् गुरूत्वम् शरण्यम्।।
             त्वमेव माता च पिता त्वमेव......... 

न जानामी मन्त्रम्  न जानामी तन्त्रम्।
न योगम् न पूजा न ध्यानम् वदामी।।
न जानामी चैतन्य ज्ञानम् स्वरुपम्।
एकोही रुपम् गुरूत्वम् शरण्यम्।।
            त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

एकोही नामम् एकोही कार्यम्।
एकोही ध्यानम् एकोही ज्ञानम्।।
आज्ञा सदैवम् परिपाल्यन्तिम्।
त्वमेवम् शरण्यम् त्वमेवम् शरण्यम्।।
              त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

त्वम् ज्ञात रुपम् त्वम् अज्ञात रुपम्।
मम देह रुपम् मम प्राण रुपम्।।
पूर्णत्व देहम मम प्राण सदेवम्।
त्वमेवम् शरण्यम् गुरूत्वम् शरण्यम्।। 
              त्वमेव माता च पिता त्वमेव.........

Friday, August 12, 2011

SABAR GURU PARTYAKSH SADHNA



SABAR GURU PARTYAKSH SADHNA

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साधक जीवन का सर्वोपरि सुख और आनंद जो है,वो एक मात्र गुरु की सायुज्यता ही है,गुरु के चरणों में बैठना,उनसे सतत ज्ञान की प्राप्ति करना,उनके मधुर साहचर्य में जीवन के अभावो की तपती दोपहरी से बच कर बैठने की क्रिया समझना.पर क्या ये इतना सहज है,नहीं ना.........................

और जब गुरु ने स्वधाम गमन कर लिया हो तब तो चित्त की अशांति इतनी भयावह हो जाती है की उस अंधियारे में कोई राह नहीं दिखती है,तब साबर साधनाओ का ये अत्यधिक गोपनीय मंत्र उस पूर्णमासी के चाँद के रूप में आपको प्रकाश तक पहुचता है.यदि पूर्ण विधान से इसे शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी और पूर्णिमा को संपन्न किया जाये तो साधक को उसके बिम्बात्मक गुरु के दर्शन और दिशा निर्देशन सतत मिलता ही रहता है.ये प्रयोग सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं अपितु करकर देखने के लिए है.इससे आभास नहीं होता बल्कि उसे पूर्ण तेजस्वी बिम्ब के दर्शन होते ही हैं और यही नहीं बल्कि उसे गुरु के द्वारा भविष्य में जीवन के लिए उपयोगी निर्देश भी प्राप्त होते रहते हैं.

निर्देशित दिवस की रात्री के दूसरे प्रहर में पूर्ण स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण कर छत पर सफ़ेद उनी आसन पर उत्तराभिमुख होकर बैठ जाये.सामने बाजोट पर गुरु का चित्र स्थापित हो उनका पूर्ण विधि विधान से पूजन करे,सुगन्धित धुप का और पुष्पों का प्रयोग किया जाये,उसी प्रकार महासिद्ध गुटिका को भी चित्र के समक्ष अक्षत की ढेरी पर स्थापित कर पूजन करे,घृत दीपक का प्रयोग करे.खीर का भोग चढ़ाये,और स्थिर चित्त होकर त्रिकूट पर ध्यान लगाकर निम्न मन्त्र का ४ घंटे तक जप करे. जैसे जैसे आपकी तल्लीनता बढते जायेगी,आपके आज्ञा चक्र पर एक सुनहरी-नीली ज्योति प्रकट होने लग जायेगी और अंत में आपके गुरु का पूर्ण तेजस्वी बिम्ब वहाँ प्रत्यक्ष हो जायेगा और आपके कानो में उनकी पूर्ण आवाज भी सुनाई देने लगेगी,आप जो भी प्रश्न पूर्ण कृतज्ञता के साथ अपने ह्रदय में लायेंगे,उनका उत्तर आपको कानो में सुनाई देने लगेगा,परन्तु ये प्रश्न आपके जीवन ध्येय और साधनाओं से सम्बंधित ही होने चाहिए.और यदि आपने यही क्रम पूर्णिमा को भी एकाग्रता पूर्वक संपन्न कर लिया तो जब भी आप अपनी साधना में बैठोगे उनका पूर्ण वरदहस्त आपके शीश पर ही होगा. उच्च कोटि के साधक इसी मंत्र से त्रिकूट के बजाय अपने सामने गुरु को आवाहित करने में सफल होते ही हैं.

मन्त्र- आदि ज्योति,रूप ओंकार,आनंद का है गुरु वैपार,नीली ज्योति,सुनहरा रूप,तेरो भेष न जाने कोय,अनगद भेष बदलतो रूप,तू अविनाशी जानत न कोय,शून्य में तू विराजत,तेरो चाकर ब्रह्म बिष्णु महेश.किरपा दे,कर तू उपकार,जीवन नैया कर बेडा पार.जय जय जय सतगुरु की दुहाई.

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The most blissful moment for saadhak’s life are that in which he spend time with his guru while sitting at his feet and getting the lessons that how he can protect himself from the drastic ups and down of life but this is not as easy as it sounds……..

But it becomes most dreadful fact of life and cause pain if guru has proceeded to his final destination. But if this mantra of Sabar sadhnas can be enchant on the Shukl Pksh ki Chtudrshi aur on Poornima by following all the rules and regulations then sadhak can have not only the glimpse of his guru but also get direction and guideline from him. This practical is not merely to listen but authentic and by doing this one can have direct orders and guidelines from his guru not only for present but for future as well. Sadhak that are on high level in sadhnas field successfully call their guru himself at place of Trikutt.

Aadi jyoti,roop omkaar,aanand ka hai guru vaipaar,neelee jyoti,sunhara roop,tero bhesh na jaane koy,angad bhesh badalto roop,tu avinaashi jaanat naa koy,shunya me tu viraajat,tero chaakar bramha bishnu mahesh.kirpa de,kar tu upkaar,jeevan naiya kar bedaa paar,jai jai jai satguru ki duhaai.

****NPRU****

Friday, August 5, 2011

shri Narayan kavach

श्री नारायण कवच
न्यासः- सर्वप्रथम श्रीगणेश जी तथा भगवान नारायण को नमस्कार करके नीचे लिखे प्रकार से न्यास करें।
अगं-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — पादयोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों का स्पर्श करें)।
ॐ नं नमः — जानुनोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी व अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों घुटनों का स्पर्श करें )।
ॐ मों नमः — ऊर्वोः (दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों की जाँघ का स्पर्श करें)।
ॐ नां नमः — उदरे ( दाहिने हाथ की तर्जनी तथा अंगुठा — इन दोनों को मिलाकर पेट का स्पर्श करे )
ॐ रां नमः — हृदि ( मध्यमा-अनामिका-तर्जनी से हृदय का स्पर्श करें )
ॐ यं नमः – उरसि ( मध्यमा- अनामिका-तर्जनी से छाती का स्पर्श करे )
ॐ णां नमः — मुखे ( तर्जनी – अँगुठे के संयोग से मुख का स्पर्श करे )
ॐ यं नमः — शिरसि ( तर्जनी -मध्यमा के संयोग से सिर का स्पर्श करे )
कर-न्यासः-
ॐ ॐ नमः — दक्षिणतर्जन्याम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने तर्जनी के सिरे का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —-दक्षिणमध्यमायाम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ मों नमः —दक्षिणानामिकायाम् ( दहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ भं नमः —-दक्षिणकनिष्ठिकायाम् (दाहिने अँगुठे से हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ गं नमः —-वामकनिष्ठिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ॐ वं नमः —-वामानिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाँथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ तें नमः —-वाममध्यमायाम् ( बाँये अँगुठे से बाये हाथ की मध्यमा का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ वां नमः —वामतर्जन्याम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की तर्जनी का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ॐ सुं नमः —-दक्षिणाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ दें नमः —–दक्षिणाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
ॐ वां नमः —–वामाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये अँगुठे के ऊपरवाला पोर छुए )
ॐ यं नमः ——वामाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
विष्णुषडक्षरन्यासः-
ॐ ॐ नमः ————हृदये ( तर्जनी – मध्यमा एवं अनामिका से हृदय का स्पर्श करे )
ॐ विं नमः ————-मूर्ध्नि ( तर्जनी मध्यमा के संयोग सिर का स्पर्श करे )
ॐ षं नमः —————भ्रुर्वोर्मध्ये ( तर्जनी-मध्यमा से दोनों भौंहों का स्पर्श करे )
ॐ णं नमः —————शिखायाम् ( अँगुठे से शिखा का स्पर्श करे )
ॐ वें नमः —————नेत्रयोः ( तर्जनी -मध्यमा से दोनों नेत्रों का स्पर्श करे )
ॐ नं नमः —————सर्वसन्धिषु ( तर्जनी – मध्यमा और अनामिका से शरीर के सभी जोड़ों — जैसे – कंधा, घुटना, कोहनी आदि का स्पर्श करे )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्राच्याम् (पूर्व की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् –आग्नेय्याम् ( अग्निकोण में चुटकी बजायें )
ॐ मः अस्त्राय फट् — दक्षिणस्याम् ( दक्षिण की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — नैऋत्ये (नैऋत्य कोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — प्रतीच्याम्( पश्चिम की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — वायव्ये ( वायुकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — उदीच्याम्( उत्तर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऐशान्याम् (ईशानकोण में चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — ऊर्ध्वायाम् ( ऊपर की ओर चुटकी बजाएँ )
ॐ मः अस्त्राय फट् — अधरायाम् (नीचे की ओर चुटकी बजाएँ )
श्री हरिः
अथ श्रीनारायणकवच
।।राजोवाच।।
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्।।१
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाssततायिनः शत्रून् येन गुप्तोsजयन्मृधे।।२
राजा परिक्षित ने पूछाः भगवन् ! देवराज इंद्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरङ्गिणी सेना को खेल-खेल में अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राज लक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को सुनाइये और यह भी बतलाईये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की ।।१-२
।।श्रीशुक उवाच।।
वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु।।३
श्रीशुकदेवजी ने कहाः परीक्षित् ! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण कवच का उपदेश दिया तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ।।३
विश्वरूप उवाचधौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः।।४
नारायणमयं वर्म संनह्येद् भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि।।५
मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा।।६
विश्वरूप ने कहा – देवराज इन्द्र ! भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिए उसकी विधि यह है कि पहले हाँथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथ में कुश की पवित्री धारण करके उत्तर मुख करके बैठ जाय इसके बाद कवच धारण पर्यंत और कुछ न बोलने का निश्चय करके पवित्रता से “ॐ नमो नारायणाय” और “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इन मंत्रों के द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि करन्यास करे पहले “ॐ नमो नारायणाय” इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करे अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ॐ कार तक आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ कर उन्हीं आठ अङ्गों में विपरित क्रम से न्यास करे ।।४-६
करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारन्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठ​पर्वसु।।७
तदनन्तर “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस द्वादशाक्षर -मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बाँयीं तर्जनी तक दोनों हाँथ की आठ अँगुलियों और दोनों अँगुठों की दो-दो गाठों में न्यास करे।।७
न्यसेद् हृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्।।८
वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः।।९
सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति ।।१०
फिर “ॐ विष्णवे नमः” इस मन्त्र के पहले के पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदय में, ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्र , में ‘ष’ का भौहों के बीच में, ‘ण’ का चोटी में, ‘वे’ का दोनों नेत्रों और ‘न’ का शरीर की सब गाँठों में न्यास करे तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्ध करे इस प्रकर न्यास करने से इस विधि को जानने वाला पुरूष मन्त्रमय हो जाता है ।।८-१०
आत्मानं परमं ध्यायेद ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत ।।११
इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या, तेज, और तपः स्वरूप इस कवच का पाठ करे ।।११
ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः ।।१२
भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं आठ हाँथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष, और पाश (फंदा) धारण किए हुए हैं वे ही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें।।१२
जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ।।१३
मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण के पाश से मेरी रक्षा करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें 13
दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ।।१४
जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ।।१४
रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद् भरताग्रजोsस्मान् ।।१५
अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुराम जी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगावन् रामचंद्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें ।।१५
मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।१६
भगवान् नारायण मारण – मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें ।।१६
सनत्कुमारो वतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ।।१७
परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ।।१७
धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ।।१८
भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों से मेरी रक्षा करें ।।१८
द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात्।
कल्किः कले कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः ।।१९
भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें धर्म-रक्षा करने वाले महान अवतार धारण करने वाले भगवान् कल्कि पाप-बहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें ।।१९
मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ।।२०
प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।२०
देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतु पद्मनाभः ।।२१
तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें सांयकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषिकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्ध रात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१
श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ।।२२
रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।२२
चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ।।२३
सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह है आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।।२३
गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि। कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्र​हांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ।।२४
कौमुद की गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ इसलिए आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर – चूर कर दिजिये ।।२४
त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्​रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ।।२५
शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से तुरन्त भगा दीजिये ।।२५
त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक​्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् २६
भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिजिये। भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ।।२६
यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ।।२७
सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ।।२८
सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हो और जो हमारे मङ्गल के विरोधी हों – वे सभी भगावान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें ।।२७-२८
गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ।।२९
बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरूड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें।।२९
सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ।।३०
श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ।।३०
यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत्।
सत्यनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपाद्रवाः ।।३१
जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है, वह वास्तव में भगवान् ही है इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें ।।३१
यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।।३२
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ।।३३
जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों से रहित है-भेदों से रहित हैं फिर भी वे अपनी माया शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें ।।३२-३३
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजाः ।।३४
जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में, नीचे -ऊपर, बाहर-भीतर – सब ओर से हमारी रक्षा करें ।।३४
मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ।।३५
देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया है इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य – यूथपतियों को जीत कर लोगे ।।३५
एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ।।३६
इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छू देता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है 36
न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ।।३७
जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता ।।३७
इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि ।।३८
देवराज! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया ।।३८
तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षयः ।।३९
जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके उपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठ कर निकले ।।३९
गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ।।४०
वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को चले गये ।।४०
।।श्रीशुक उवाच।।
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ।।४१
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परिक्षित् जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ।।४१
एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्यऽमृधेसुरान् ।।४२
परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे 42
।।इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्।।
( श्रीमद्भागवत स्कन्ध 6 , अ। 8 )