Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Monday, July 20, 2015
Apsara Mantra Tantra Sadhana
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Apsara Mantra Tantra Sadhana
Thursday, June 18, 2015
sadhak aur grate sadhak me antar1
.साधक व श्रेष्ठ साधक................
1.साधक :
जो व्यक्ति साधनारत हो एक चित होकर अपने को गुरु चरणों में समर्पित कर आत्मा कल्याण के लिए यात्रा कर रहा हो!
2.श्रेष्ठ साधक :
श्रेष्ठ साधक वह होता है जो अपने चित पर सदगुरु का ध्यान जमा लेता है निरंतर अपने गुरु का चिन्तन करते है और सघन गुरु मंत्र का जप किया करते है वो श्रेष्ठ साधक गुरु कृपा व अपनी आराधाना के बल से पूर्ण विकाश की और अगरसर होते है उस श्रेष्ठ साधक का सम्पुर्ण मोह नष्ट हो जाता है स्वारथ रहित निष्काम भाव से अपना जीवन निर्वाह करता है! पूर्ण वैराग्य को प्राप्त साधक सम्पुर्ण इंद्रियो ,वासनाओ पर विजय पा लेता है. वे योग युक्त साधक गुरु कृपा प्राप्त योग बल से लोक कल्याणरत गुरु कार्य करते है वो उतम साधक अपना कल्याण करते हुए अन्य साधको को साधना की यात्रा में योग्य सहयोग करते है!स्वार्थ रहित कृतव्य कर्म पालन जीवन यापन कर योग युक्ति से सम्पुर्ण लोको को जीतकर षठ: चक्रों को भेदन कर गुरु कृपा से महा मिलन को प्राप्त हो जाते है!
गुरु सेवा का ये अर्थ नहीं की उन के पास रह कर करे वो तो भाग्य साली होते ही है पर आप आपने घर से ही ये सेवा कर सकते है| सद्गुरु के ज्ञान का प्रसार करना पत्रिका का प्रसार करना | आपने यहाँ गुरु पूजन और हवन करवाना | शिविर मैं भाग लेना , गुरु देव से हर संभव समय समय पर मिलते रहे, मार्ग दर्सन उन से पते रहे आगे जो आगया गुरु दे उसे हर संभव से उसे निभाए और आपना कार्य के साथ गुरु सेवा जो करता है निचय ही वो गुरु किरपा का भागीदार होता है , समाज को नाइ दिशा देना यही आच्छा गुरुदेव सेवा है|
Jeevan yantra part1 पूज्य गुरुदेव नारायण दत्त श्रीमाली जी
।।ॐ।।
जीवन यात्रा ~भाग ~1
पूज्य गुरुदेव नारायण दत्त श्रीमाली जी
समझ में नही आ रहा कहा से प्रारम्भ करूँ उनका
जीवन आख्यान , जगमग करते ज्योति पुंज की किरणे ही जिस प्रकार उनके बारे में सब कुछ कह देती है उसी प्रकार पूज्य प्रभु के शब्द उनका ज्ञान ही उनके बारे में सब कुछ कह देती है ।जिनके पास बैटकर एक असीम शांति का अनुभव होता है जिनके स्पर्श से रोग शोक शरीर से तो क्या मन से भी दूर हो जाते है ।ऐसे है हमारे पूज्य गुरुदेव -निखिलेश्वरानन्द जी जिन्हें संसार डॉ., नारायण दत्त श्रीमाली के नाम से जानता है और इस नाम के पीछे भी उनका ही एक बड़ा रहस्य छिपा है ।
ॐ नमो नारायणाय
जन्म हुआ तो माँ ने नाम दिया "नारायण" यह प्रेरणा थी , की हे देवी ! तेरे घर चक्रवर्ती सम्राटो से भी अधिक तेज वाला पुत्र उत्पन्न होगा । माँ ने सोचा कि मेरा पुत्र बड़ा होकर धनी प्रभावशाली व्यक्ति होगा परिवार सुख वैभव से। रहेगा उसने ऐसा थोड़े ही सोचा था कि यह पुत्र तो बडा होकर साधू सन्यासी बन जायेगा और राजाओ का भी राजा होगा ।
यह अवतार ही था , तब न तो माँ ने कुछ सोचा न ही परिवार के अन्य सदस्यों ने ।
बालक नारायण जन्म से ही अन्य बालको से
बिलकुल अलग था चार साल की उम्र में मन्त्रो का , गीता का सन्ध्या का रुद्राभिषेक का इस प्रकार उच्चारण करता था मानों कोई
सिद्ध पण्डित पाठ कर रहा हो यह ज्ञान उन्हें किसी से प्राप्त करने की आवश्यकता थोड़े ही थी यह तो उनके जन्म के साथ ही जुड़ा था उनका तो जन्म ही संसार में एक विराट कार्य के लिए हुआ था , और उन्हें अपने समय में कार्य सम्पन्न करना ही था ।
घर वाले चाहते की बालक नारायण बड़ा होकर अपने पिता की तरह ज्योतिष पूजा कर्मकांड का अभ्यास कर परिवार का नाम विख्यात करे , उनके लिए अलग से अध्यापक लगाने की आवश्यकता ही कहा थी , घर में ही तो नित्य प्रति वेद मन्त्रो की ध्वनि गूंजती थी , नित्य यज्ञ होते थे सारा कुछ वैदिक वातावरण ही था , दूर दूर से बालक इनके पिता से शिक्षा लेने आते थे , ऐसे वातावरण पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व का विकास हुआ , लेकिन उन्हें तो अलग मार्ग बनाना था और यह सब कुछ सही क्रम से चल रहा था , वे अपने पिता से गीता के श्लोको के बारे में बहस करते , वेदों - उपनिषदों के एक एक श्लोक ऋचाओं के सम्बन्ध में उनका तर्क चलता , आखिर को उन्हें यह कहना पड़ा कि बेटा नारायण ! मेरे पास जितना ज्ञान है , वह मैंने तुझे बता दिया है , मेरे पास तेरे सब प्रश्नो के
उत्तर नही है , और यही से बालक नारायण के मन में ज्ञान की भूख जाग्रत हुई कि जो कुछ भी सीखना है , ज्ञान प्राप्त करना है , वह पूर्णता तक होना चाहिए , अधूरा ज्ञान मन का नाश करता है ।
क्रमशः
पूरी जानकारी गुरुदेव के सत्साहित्यो पर आधारित है !
जीवन यात्रा ~भाग ~1
पूज्य गुरुदेव नारायण दत्त श्रीमाली जी
समझ में नही आ रहा कहा से प्रारम्भ करूँ उनका
जीवन आख्यान , जगमग करते ज्योति पुंज की किरणे ही जिस प्रकार उनके बारे में सब कुछ कह देती है उसी प्रकार पूज्य प्रभु के शब्द उनका ज्ञान ही उनके बारे में सब कुछ कह देती है ।जिनके पास बैटकर एक असीम शांति का अनुभव होता है जिनके स्पर्श से रोग शोक शरीर से तो क्या मन से भी दूर हो जाते है ।ऐसे है हमारे पूज्य गुरुदेव -निखिलेश्वरानन्द जी जिन्हें संसार डॉ., नारायण दत्त श्रीमाली के नाम से जानता है और इस नाम के पीछे भी उनका ही एक बड़ा रहस्य छिपा है ।
ॐ नमो नारायणाय
जन्म हुआ तो माँ ने नाम दिया "नारायण" यह प्रेरणा थी , की हे देवी ! तेरे घर चक्रवर्ती सम्राटो से भी अधिक तेज वाला पुत्र उत्पन्न होगा । माँ ने सोचा कि मेरा पुत्र बड़ा होकर धनी प्रभावशाली व्यक्ति होगा परिवार सुख वैभव से। रहेगा उसने ऐसा थोड़े ही सोचा था कि यह पुत्र तो बडा होकर साधू सन्यासी बन जायेगा और राजाओ का भी राजा होगा ।
यह अवतार ही था , तब न तो माँ ने कुछ सोचा न ही परिवार के अन्य सदस्यों ने ।
बालक नारायण जन्म से ही अन्य बालको से
बिलकुल अलग था चार साल की उम्र में मन्त्रो का , गीता का सन्ध्या का रुद्राभिषेक का इस प्रकार उच्चारण करता था मानों कोई
सिद्ध पण्डित पाठ कर रहा हो यह ज्ञान उन्हें किसी से प्राप्त करने की आवश्यकता थोड़े ही थी यह तो उनके जन्म के साथ ही जुड़ा था उनका तो जन्म ही संसार में एक विराट कार्य के लिए हुआ था , और उन्हें अपने समय में कार्य सम्पन्न करना ही था ।
घर वाले चाहते की बालक नारायण बड़ा होकर अपने पिता की तरह ज्योतिष पूजा कर्मकांड का अभ्यास कर परिवार का नाम विख्यात करे , उनके लिए अलग से अध्यापक लगाने की आवश्यकता ही कहा थी , घर में ही तो नित्य प्रति वेद मन्त्रो की ध्वनि गूंजती थी , नित्य यज्ञ होते थे सारा कुछ वैदिक वातावरण ही था , दूर दूर से बालक इनके पिता से शिक्षा लेने आते थे , ऐसे वातावरण पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व का विकास हुआ , लेकिन उन्हें तो अलग मार्ग बनाना था और यह सब कुछ सही क्रम से चल रहा था , वे अपने पिता से गीता के श्लोको के बारे में बहस करते , वेदों - उपनिषदों के एक एक श्लोक ऋचाओं के सम्बन्ध में उनका तर्क चलता , आखिर को उन्हें यह कहना पड़ा कि बेटा नारायण ! मेरे पास जितना ज्ञान है , वह मैंने तुझे बता दिया है , मेरे पास तेरे सब प्रश्नो के
उत्तर नही है , और यही से बालक नारायण के मन में ज्ञान की भूख जाग्रत हुई कि जो कुछ भी सीखना है , ज्ञान प्राप्त करना है , वह पूर्णता तक होना चाहिए , अधूरा ज्ञान मन का नाश करता है ।
क्रमशः
पूरी जानकारी गुरुदेव के सत्साहित्यो पर आधारित है !
param prusrth ke marg par kud pado
परम पुरुषार्थ के मार्ग में कूद पड़ो। भूतकाल के लिए पश्चाताप और भविष्य की चिन्ता छोड़कर निकल पड़ो। परमात्मा के प्रति अनन्य भाव रखो। फिर देखो कि इस घोर कलियुग में भी तुम्हारे लिए अन्न, वस्त्र और निवास की कैसी व्यवस्था होती है।
जिस साधना में तुम्हारी रुचि होगी उस साधना में सद्गुरुदेव मधुरता भर देंगे। तुम्हारी भावना, तुम्हारी निष्ठा पक्की होना महत्त्वपूर्ण है। तुम्हारे परम इष्टदेव ,तुम्हारे सद्गुरुदेव तुम पर खुश हो जायें तो अनिष्ट तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। परम इष्टदेव है तुम्हारा आत्मा, तुम्हारा निजस्वरूप। सद्गुरुदेव में तुम्हारी अनन्य भक्ति हो जाये तो सद्गुरुदेव तुम्हें कुछ देंगे नहीं, वे तुम्हें अपने में मिला लेंगे। अब बताओ, आपको कुछ देना शेष रहा क्या?
सद्गुरुदेव के सिवाय अन्य तमाम सुखों के इर्द गिर्द व्यर्थता के काँटे लगे ही रहते हैं। जरा सा सावधान होकर सोचोगे तो यह बात समझ में आ जायेगी और तुम सद्गुरुदेव के मार्ग पर चल पड़ोगे।
लौकिक सरकार भी अपने सरकारी कर्मचारी की जिम्मेदारी सँभालते हैं। फिर ऊर्ध्वलोक की दिव्य सरकार, परम पालक परमात्मा सद्गुरुदेव अध्यात्म के पथिक का बोझ नहीं उठायेंगे क्या?
Wednesday, April 15, 2015
Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji part 2
श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग २
श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग २
परमपूज्य सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी एक ऐसे उदात्ततम व्यक्तित्व हें, जिनके चिन्तन मात्र से ही दिव्यता का बोध होने लगता हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत को अपने भीतर समाहित किए हुए महात्मा हिरण्यगर्भ की तरह शांत और सौम्य हैं। व्यवहारिक क्षेत्र में स्वच्छ धौत वस्त्र में सुसज्जित ये जितने सीधे-सादे से दिखाई देते हैं, इससे हट कर कुछ और भी हैं, जो सर्वसाधारण गम्य नहीं हैं। साधनाओं के उच्चतम सोपान पर स्थित विश्व के जाने-मने सम्मानित व्यक्तित्व हैं। इनका साधनात्मक क्षेत्र इतना विशालतम है, कि इसे सह्ब्दों के माध्यम से आंका नहीं जा सकता। किसी भी प्रदर्शन से दूर हिमालय की तरह अडिग, सागर की तरह गंभीर, पुष्पों की तरह सुकोमल और आकाश की तरह निर्मल हैं।
इनके संपर्क में आया हुआ व्यक्ति एक बार तो इन्हें देखकर अचम्भे में पड़ जाता हैं, कि ये तो महर्षि जह्रु की तरह अपने अन्तस में ज्ञान गंगा के असीम प्रवाह को समेटे हुए हैं।
पूज्य गुरुदेव ऋषिकालीन भारतीय ज्ञान परम्परा की अद्वितीय कड़ी हैं। जो ज्ञान मध्यकाल में अनेक-प्रतिघात के कारण अविच्छिन्न हो, निष्प्राण हो गया था, जिस दिव्य ज्ञान की छाया तले समस्त जाति ने सुख, शान्ति एवं आनंद का अनुभव किया था, जिसे ज्ञान से संबल पाकर सभी गौरवान्वित हुए थे। तथा समस्त विसंगतियों को परास्त करने में सक्षम हुए थे, जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों ने अपनी तपः ऊर्जा से सबल एवं परिपुष्ट करके जन कल्याण के हितार्थ स्वर्णिम स्वप्न देखे थे... पूज्यपाद सदगुरुदेव श्रीमाली जी ने समाज की प्रत्येक विषमताओं से जूझते हुए, अपने को तिल-तिल जलाकर उसी ज्ञान परम्परा को पुनः जाग्रत किया है, समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर उन्होनें पुनः उस ज्ञान प्रवाह को साधनाओं के माध्यम से आप्लावित किया है। मानव कल्याण के लिए अपनी आंखों में अथाह करुणा लिए उन्होनें मंत्र और तंत्र के माध्यम से, ज्योतिष, कर्मकाण्डएवं यज्ञों के माध्यम से, शिविरों तथा साधनाओं के माध्यम से उन्होनें इस ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाया हैं।
ऐसे महामानव, के लिए कुछ कहने और लिखने से पूर्व बहुत कुछ सोचना पङता है। जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं। निखिल स्तवन के एक-एक श्लोक उनके इसी सन्यासी स्वरुप का वर्णन हैं।
बाहरी शरीर से भले ही वे गृहस्थ दिखाई दें, बाहरी शरीर से वे सुख और दुःख का अनुभव करते हुए, हंसते हुए, उसास होते हुए, पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए या शिष्यों के साथ जीवन का क्रियाकलाप संपन्न करते हों, परन्तु यह तो उनका बाहरी शरीर है। उनका आभ्यंतरिक शरीर तो अपने-आप में चैतन्य, सजग, सप्राण, पूर्ण योगेश्वर का है, जिनको एक-एक पल का ज्ञान है और उस दृष्टि से वे हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगीश्वर हैं, जिनका यदा-कदा ही जन्म पृथ्वी पर हुआ करता है।
एक ही जीवन में उन्होनें प्रत्येक युग को देखा है, त्रेता को, द्वापर को, और इससे भी पहले वैदिक काल को। उनको वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हैं, त्रेता के प्रत्येक क्षण के वे साक्षी रहे हैं।
लगभग १५०० वर्षों का मैं साक्षीभूत शिष्य हूँ, और मैंने इन १५०० वर्षों में उन्हें चिर यौवन, चिर नूतन एक सन्यासी रूम में देखा है। बाहरी रूप में उन्होनें कई चोले बदले, कई स्थानों में जन्म लिया, पर यह मेरा विषय नहीं था, मेरा विषय तो यह था, कि मैं उनके आभ्यन्तरिक जीवन से साक्षीभूत रहूं, एक संन्यासी जीवन के संसर्ग में रहूं और वह संन्यासी जीवन अपन-आप उच्च, उदात्त, दिव्य और अद्वितीय रहा हैं।
उन्होनें जो साधनाएं संपन्न की हैं, वे अपने-आप में अद्वितीय हैं, हजारों-हजारों योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, क्योंकि वे योगी उनके आभ्यन्तरिक जीवन से परिचित हैं, वे समझते हैं कि यह व्यक्तित्व अपने-आप में अद्वितीय हैं, अनूठा हैं, इनके पास साधनात्मक ज्ञान का विशाल भण्डार हैं, इतना विशाल भण्डार, कि वे योगी कई सौ वर्षों तक उनके संपर्क और साहचर्य में रहकर भी वह ज्ञान पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक वेद, पुराण , स्मृति उन्हें स्मरण हैं, और जब वे बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ब्रह्मा अपने मुख से वेद उच्चारित कर रहे हों, क्योंकि मैंने उनके ब्रह्म स्वरुप को भी देखा हैं, रुद्र स्वरुप को भी देखा है, और रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहां हू।
आज भी सिद्धाश्रम का प्रत्येक योगी इस बात को अनुभव करता है, की 'निखिलेश्वरानंद' जी नहीं है, तो सिद्धाश्रम भी नहीं है, क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी उस सिद्धाश्रम के कण-कण में व्याप्त है। वे किसी को दुलारते हैं, किसी को झिड करते हैं, किसी को प्यार करते हैं, तो केवल इसलिए की वे कुछ सीख लें, केवल इसलिए की वे कुछ समझ ले, केवल इसलिए कि वह जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ले, और योगीजन उनके पास बैठ कर के अत्यन्त शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है, कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास बैठे हों, एक साथ हिमालय के आगोश में बैठे हों, एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समेटे हुए जो व्यक्तित्व हैं, उनके पास बैठे हों। वास्तव में 'योगीश्वर निखिलेश्वरानन्द' इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय विभूति हैं।
राम के समय राम को पहिचाना नहीं गया, उस समय का समाज राम की कद्र, उनका मूल्यांकन नहीं कर पाया, वे जंगल-जंगल भटकते रहे। कृष्ण के साथ भी ऐसा हुआ, उनको पीड़ित करने की कोई कसार बाकी नहीं राखी और एक क्षण ऐसा भी आया, जब उनको मथुरा छोड़ कर द्वारिका में शरण लेनी पडी और उस समय के समाज ने भी उनकी कद्र नहीं की। बुद्ध के समय में जीतनी वेदना बुद्ध ने झेली, समाज ने उनकी परवाह नहीं की। महावीर के कानों में कील ठोक दी गईं, उन्हें भूकों मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने उनके महत्त्व को आँका नहीं।
यदि सही अर्थों में 'श्रीमाली जी' को समझना है, तो उनके निखिलेश्वरानन्द स्वरुप समझना पडेगा। इन चर्म चक्षुओं से उन्हें नहीं पहिचान सकते, उसके लिए, तो आत्म-चक्षु या दिव्या चक्षु की आवश्यकता हैं।
मैंने ही नहीं हजारों संन्यासियों ने उनके विराट स्वरुप को देखा है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च और अद्वितीय ब्रह्माण्ड स्वरुप मैंने उनका देखा है, और एहेसास किया है कि वे वास्तव में चौसष्ट कला पूर्ण एक अद्वितीय युग-पुरूष हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पृथ्वी गृह पर आए हैं। मैं अकेला ही साक्षी नहीं हूं, मेरे जैसे हजारों संन्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि उन्हें अभूतपूर्व सिद्धियां प्राप्त हैं। भले ही वे अपने -आप को छिपाते हों, भले ही वे सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते हों, मगर उनके अन्दर जो शक्तियां और सिद्धियां निहित हैं, वे अपने-आप में अन्यतम और अद्वितीय हैं।
एक जगह उन्होनें अपनी डायरी में लिखा हैं --
"मैं तो एक सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करता रहा, लोगों ने मुझे भगवान् कहा, संन्यासी कहा, महात्मा कहा, योगीश्वर कहा, मगर मैं तो अपने आपको एक सामान्य मानव ही समझता हूँ। मैं उसी रूप में गतिशील हूं, लोग कहें तो मैं उनका मुहबन्द नहीं सकता, क्योंकि जो जीतनी गहराई में है, वह उसी रूप में मुझे पहिचान करके अपनी धारणा बनाता हैं। जो मुझे उपरी तलछट में देखता है, वह मुझे सामान्य मनुष्य के रूप में देखता हैं, और जो मेरे आभ्यंतरिक जीवन को देखता है, वह मुझे 'योगीश्वर' कहता है, 'संन्यासी' कहता है। यह उनकी धारणा है, यह उनकी दृष्टि है, यह उनकी दूरदर्शिता है। जो मेरी आलोचना करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, क्योंकि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबसे सर्वथा परे हूं।
मैंने कोई दावा नहीं किया, कि मैं दस हजार वर्षों की आयु प्राप्त योगी हूं, और न ही मैं ऐसा दावा करता हूं, कि मैंने भगवे वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में विचरण किया, हिमालय गया, सिद्धियां प्राप्त कीं, या मैं कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व या मैं कोई अद्वितीय कार्य संपन्न किया है। मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं और सामान्य मनुष्य की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।" डायरी के ये अंश उनकी विनम्रता है, यह उनकी सरलता है, परन्तु जो पहिचानने की क्षमता रखते हैं - उनसे यह छिपा नहीं है, के वे ही वह अद्वितीय पुरूष हैं, तो कई हजार वर्षों बाद पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
परमपूज्य सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी एक ऐसे उदात्ततम व्यक्तित्व हें, जिनके चिन्तन मात्र से ही दिव्यता का बोध होने लगता हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत को अपने भीतर समाहित किए हुए महात्मा हिरण्यगर्भ की तरह शांत और सौम्य हैं। व्यवहारिक क्षेत्र में स्वच्छ धौत वस्त्र में सुसज्जित ये जितने सीधे-सादे से दिखाई देते हैं, इससे हट कर कुछ और भी हैं, जो सर्वसाधारण गम्य नहीं हैं। साधनाओं के उच्चतम सोपान पर स्थित विश्व के जाने-मने सम्मानित व्यक्तित्व हैं। इनका साधनात्मक क्षेत्र इतना विशालतम है, कि इसे सह्ब्दों के माध्यम से आंका नहीं जा सकता। किसी भी प्रदर्शन से दूर हिमालय की तरह अडिग, सागर की तरह गंभीर, पुष्पों की तरह सुकोमल और आकाश की तरह निर्मल हैं।
इनके संपर्क में आया हुआ व्यक्ति एक बार तो इन्हें देखकर अचम्भे में पड़ जाता हैं, कि ये तो महर्षि जह्रु की तरह अपने अन्तस में ज्ञान गंगा के असीम प्रवाह को समेटे हुए हैं।
पूज्य गुरुदेव ऋषिकालीन भारतीय ज्ञान परम्परा की अद्वितीय कड़ी हैं। जो ज्ञान मध्यकाल में अनेक-प्रतिघात के कारण अविच्छिन्न हो, निष्प्राण हो गया था, जिस दिव्य ज्ञान की छाया तले समस्त जाति ने सुख, शान्ति एवं आनंद का अनुभव किया था, जिसे ज्ञान से संबल पाकर सभी गौरवान्वित हुए थे। तथा समस्त विसंगतियों को परास्त करने में सक्षम हुए थे, जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों ने अपनी तपः ऊर्जा से सबल एवं परिपुष्ट करके जन कल्याण के हितार्थ स्वर्णिम स्वप्न देखे थे... पूज्यपाद सदगुरुदेव श्रीमाली जी ने समाज की प्रत्येक विषमताओं से जूझते हुए, अपने को तिल-तिल जलाकर उसी ज्ञान परम्परा को पुनः जाग्रत किया है, समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर उन्होनें पुनः उस ज्ञान प्रवाह को साधनाओं के माध्यम से आप्लावित किया है। मानव कल्याण के लिए अपनी आंखों में अथाह करुणा लिए उन्होनें मंत्र और तंत्र के माध्यम से, ज्योतिष, कर्मकाण्डएवं यज्ञों के माध्यम से, शिविरों तथा साधनाओं के माध्यम से उन्होनें इस ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाया हैं।
ऐसे महामानव, के लिए कुछ कहने और लिखने से पूर्व बहुत कुछ सोचना पङता है। जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं। निखिल स्तवन के एक-एक श्लोक उनके इसी सन्यासी स्वरुप का वर्णन हैं।
बाहरी शरीर से भले ही वे गृहस्थ दिखाई दें, बाहरी शरीर से वे सुख और दुःख का अनुभव करते हुए, हंसते हुए, उसास होते हुए, पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए या शिष्यों के साथ जीवन का क्रियाकलाप संपन्न करते हों, परन्तु यह तो उनका बाहरी शरीर है। उनका आभ्यंतरिक शरीर तो अपने-आप में चैतन्य, सजग, सप्राण, पूर्ण योगेश्वर का है, जिनको एक-एक पल का ज्ञान है और उस दृष्टि से वे हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगीश्वर हैं, जिनका यदा-कदा ही जन्म पृथ्वी पर हुआ करता है।
एक ही जीवन में उन्होनें प्रत्येक युग को देखा है, त्रेता को, द्वापर को, और इससे भी पहले वैदिक काल को। उनको वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हैं, त्रेता के प्रत्येक क्षण के वे साक्षी रहे हैं।
लगभग १५०० वर्षों का मैं साक्षीभूत शिष्य हूँ, और मैंने इन १५०० वर्षों में उन्हें चिर यौवन, चिर नूतन एक सन्यासी रूम में देखा है। बाहरी रूप में उन्होनें कई चोले बदले, कई स्थानों में जन्म लिया, पर यह मेरा विषय नहीं था, मेरा विषय तो यह था, कि मैं उनके आभ्यन्तरिक जीवन से साक्षीभूत रहूं, एक संन्यासी जीवन के संसर्ग में रहूं और वह संन्यासी जीवन अपन-आप उच्च, उदात्त, दिव्य और अद्वितीय रहा हैं।
उन्होनें जो साधनाएं संपन्न की हैं, वे अपने-आप में अद्वितीय हैं, हजारों-हजारों योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, क्योंकि वे योगी उनके आभ्यन्तरिक जीवन से परिचित हैं, वे समझते हैं कि यह व्यक्तित्व अपने-आप में अद्वितीय हैं, अनूठा हैं, इनके पास साधनात्मक ज्ञान का विशाल भण्डार हैं, इतना विशाल भण्डार, कि वे योगी कई सौ वर्षों तक उनके संपर्क और साहचर्य में रहकर भी वह ज्ञान पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक वेद, पुराण , स्मृति उन्हें स्मरण हैं, और जब वे बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ब्रह्मा अपने मुख से वेद उच्चारित कर रहे हों, क्योंकि मैंने उनके ब्रह्म स्वरुप को भी देखा हैं, रुद्र स्वरुप को भी देखा है, और रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहां हू।
आज भी सिद्धाश्रम का प्रत्येक योगी इस बात को अनुभव करता है, की 'निखिलेश्वरानंद' जी नहीं है, तो सिद्धाश्रम भी नहीं है, क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी उस सिद्धाश्रम के कण-कण में व्याप्त है। वे किसी को दुलारते हैं, किसी को झिड करते हैं, किसी को प्यार करते हैं, तो केवल इसलिए की वे कुछ सीख लें, केवल इसलिए की वे कुछ समझ ले, केवल इसलिए कि वह जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ले, और योगीजन उनके पास बैठ कर के अत्यन्त शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है, कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास बैठे हों, एक साथ हिमालय के आगोश में बैठे हों, एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समेटे हुए जो व्यक्तित्व हैं, उनके पास बैठे हों। वास्तव में 'योगीश्वर निखिलेश्वरानन्द' इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय विभूति हैं।
राम के समय राम को पहिचाना नहीं गया, उस समय का समाज राम की कद्र, उनका मूल्यांकन नहीं कर पाया, वे जंगल-जंगल भटकते रहे। कृष्ण के साथ भी ऐसा हुआ, उनको पीड़ित करने की कोई कसार बाकी नहीं राखी और एक क्षण ऐसा भी आया, जब उनको मथुरा छोड़ कर द्वारिका में शरण लेनी पडी और उस समय के समाज ने भी उनकी कद्र नहीं की। बुद्ध के समय में जीतनी वेदना बुद्ध ने झेली, समाज ने उनकी परवाह नहीं की। महावीर के कानों में कील ठोक दी गईं, उन्हें भूकों मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने उनके महत्त्व को आँका नहीं।
यदि सही अर्थों में 'श्रीमाली जी' को समझना है, तो उनके निखिलेश्वरानन्द स्वरुप समझना पडेगा। इन चर्म चक्षुओं से उन्हें नहीं पहिचान सकते, उसके लिए, तो आत्म-चक्षु या दिव्या चक्षु की आवश्यकता हैं।
मैंने ही नहीं हजारों संन्यासियों ने उनके विराट स्वरुप को देखा है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च और अद्वितीय ब्रह्माण्ड स्वरुप मैंने उनका देखा है, और एहेसास किया है कि वे वास्तव में चौसष्ट कला पूर्ण एक अद्वितीय युग-पुरूष हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पृथ्वी गृह पर आए हैं। मैं अकेला ही साक्षी नहीं हूं, मेरे जैसे हजारों संन्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि उन्हें अभूतपूर्व सिद्धियां प्राप्त हैं। भले ही वे अपने -आप को छिपाते हों, भले ही वे सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते हों, मगर उनके अन्दर जो शक्तियां और सिद्धियां निहित हैं, वे अपने-आप में अन्यतम और अद्वितीय हैं।
एक जगह उन्होनें अपनी डायरी में लिखा हैं --
"मैं तो एक सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करता रहा, लोगों ने मुझे भगवान् कहा, संन्यासी कहा, महात्मा कहा, योगीश्वर कहा, मगर मैं तो अपने आपको एक सामान्य मानव ही समझता हूँ। मैं उसी रूप में गतिशील हूं, लोग कहें तो मैं उनका मुहबन्द नहीं सकता, क्योंकि जो जीतनी गहराई में है, वह उसी रूप में मुझे पहिचान करके अपनी धारणा बनाता हैं। जो मुझे उपरी तलछट में देखता है, वह मुझे सामान्य मनुष्य के रूप में देखता हैं, और जो मेरे आभ्यंतरिक जीवन को देखता है, वह मुझे 'योगीश्वर' कहता है, 'संन्यासी' कहता है। यह उनकी धारणा है, यह उनकी दृष्टि है, यह उनकी दूरदर्शिता है। जो मेरी आलोचना करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, क्योंकि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबसे सर्वथा परे हूं।
मैंने कोई दावा नहीं किया, कि मैं दस हजार वर्षों की आयु प्राप्त योगी हूं, और न ही मैं ऐसा दावा करता हूं, कि मैंने भगवे वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में विचरण किया, हिमालय गया, सिद्धियां प्राप्त कीं, या मैं कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व या मैं कोई अद्वितीय कार्य संपन्न किया है। मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं और सामान्य मनुष्य की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।" डायरी के ये अंश उनकी विनम्रता है, यह उनकी सरलता है, परन्तु जो पहिचानने की क्षमता रखते हैं - उनसे यह छिपा नहीं है, के वे ही वह अद्वितीय पुरूष हैं, तो कई हजार वर्षों बाद पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग ४
सिद्धाश्रम के संचालक, 'परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द जी है', वे तो अपने-आप में अन्यतम,अद्वितीय विभूति हैं, समस्त देवताओं, के पुंञ्ज से एकत्र होकर के उनका निर्माण हुआ है, सब देवताओं ने अपना-अपना अंश देकर के ऐसे अदभुद व्यक्तित्व का विकास किया है, जिन्हें सच्चिदानन्द जी कहते हैं।
परमहंस, प्रातः स्मरणीय 'पूज्यपाद स्वामी सच्चिदानन्द जी' के आशीर्वाद तले ऐसा सिद्धाश्रम गतिशील है, जहां की माटी कुंकुम की तरह है, जिसे ललाट पर लगाने की इच्छा की जाती है, जहां पर महाभारत काल और त्रेता युग के योगी व् सन्यासी निरंतर विचरण करते हैं, गतिशील हैं।
सच्चिदानन्द जी ने हजारों साल के अपने जीवन में केवल तीन ही शिष्य बनाएं हैं, अत्यन्त कठोर उनकी क्रिया है, जो उन क्रियाओं पर खरा उतरता है, उसे वे अपना शिष्यत्व प्रदान करते हैं। पूज्य गुरुदेव ऐसे ही अदभुद व्यक्तित्व हैं, जिन्होनें पूर्णता के साथ 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' से दीक्षा प्राप्त की हैं, और पूरा सिद्धाश्रम ही नहीं वरन पूरा ब्रह्माण्ड इस बात के लिए गौरवान्वित है, कि वे 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' के शिष्य है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका विचरण स्थल है
यही नहीं अपितु कई संन्यासियों ने उन्हें इंद्र लोक, पाताल लोक, सूर्य लोक, चन्द्रमा तथा अन्य लोकों में विचरण करते हुए देखा है। शुक्र ग्रह में कई योगी उनके साथ गाएं हैं, क्योंकि ये सूक्ष्म शरीर को इतना उंचा उठा लेते है, कि ये ब्रह्माण्ड का एक भाग बन जाते हैं, और उस भाग से वे समस्त ग्रहों में विचरण करते रहते हैं, उनका बाहरी शरीर यहीं पडा रहता हैं एक सामान्य शरीर की तरह, मगर आभ्यातारिक शरीर समस्त ग्रहों का प्रतिनिधित्व करता है। शुक्र गृह में उनको देखने के लिए लोग मचल पड़ते हैं, दौड़ते हैं, और उनकी एक झलक देख कर वे अपने-आप को परम सौभाग्यशाली समझते हैं।
मैंने उनके साथ उन लोकों की भी यात्रा की हैं, और यह देखा है कि वे जितने मृत्यु लोक में प्रिय हैं, जितने सिद्धाश्रम में प्रिय हैं, उससे भी ज्यादा शुक्र गृह और अन्य लोकों में प्रिय हैं। सभी लोकों में निरंतर प्रतीक्षा होती रहती हैं। जहां भी मैंने उनको देखा हैं, ऐसा लगता हैं कि यह पुरे ब्रह्माण्ड में बिखरा हुआ व्यक्तित्व है। कोई एक गृह या एक स्थान ही उनको महत्त्व नहीं देता, अपितु पुरे ब्रह्माण्ड का प्रत्येक गृह उनको महत्त्व देता है। वे अत्यन्त सूक्ष्म शरीर धारण कर सकते हैं और विराट स्वरुप भी धारण कर सकते हैं। वे एक ही क्षण में एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाने का सामर्थ्य रखते हैं। वे हिमालय की उंची-उंची चोटियों पर उसी पारकर विचरण करते हैं, जैसे मैदान में चल रहे हों, तथा गहन और गहन गुफाओं में मैंने उनको निरंतर साधना करते हुए अनुभव किया हैं।
साबर साधनाओं के अन्यतम योगी
साबर साधनाएं जीवन की सरल, सहज और मत्वपूर्ण साधना है। ऐसी साधनाएं हैं जिनमे जटिल विधि विधान नहीं है जिनमे लम्बा-चौड़ा विस्तार नहीं है, जिनमे सूक्ष्म-श्लोक संस्र्कुत नहीं अपितु सरल भाषा है। संसार की आठ क्रियाएं ऐसी है जो कई हजार वर्ष पहले पूर्व विकास पर थी परन्तु आज ये विद्याएं प्रायः लुप्त हैं और शायद ही उनके बारे में योगियों को जानकारी होगी। सिद्धाश्रम में इनके बारे में निरंतर शोध हो रही हैं और उन चिन्तनों तथा साधना विधियों को ढूं ढूं निकाला गया है।
मैंने देखा कि इस व्यक्तित्व में असीम प्राण चेतना है, सत्य और वास्तविकता से झुठलाकर इसे दबाया नहीं जा सकता। प्रहार कर इसकी गति को अवरुद्ध नहीं किया जा सकता बहलाकर इसे चुप नहीं किया जा सकता। इसके मन में भारत वर्ष के प्रति आसीम त्याग और आगाध श्रद्धा है। यह भारतवर्ष को पुनः उस स्थिति में ले जाना चाहता है जो कि इसका वास्तविक स्वरुप है। वह ऋषि मुनियों के मन्त्रों साधनाओं और सिद्धियों को सही तरीके से पुनः स्थापित करना चाहता है। ज्योतिष। और आयुर्वेद के खोये हुए स्थान को पुनः दिलाना चाहता है।
उनको देखते ही ऐसा आभास होता है कि जैसे प्राचीन समय का आर्य अपनी पूर्ण शारीरिक क्षमता और ज्ञान गरिमा को लेकर साकार है। शरीर लम्बा-चौड़ा, आकर्षक और चुम्बकीय नेत्र, वाणी में गंभीरता और गरिमा, दृढ़तायुक्त सिंहवत चाल और ह्रदय में पौरुष यह सब मिलाकर एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं जिन्हें हमें अपने जीवन में आर्य कहा है, जो हमारे सही अर्थों में पूर्वज है।
यह व्यक्तित्व अंत्यंत ही सरल, सौम्य और सहज है, किसी प्रकार का आडम्बर या प्रदर्शन इनके जीवन में नहीं हैं, आतंरिक और बाह्य जीवन में किसी प्रकार का कोई लुकाव छिपाव नहीं हैं, जो कुछ जीवन में है वही यथार्थ में है, और यही इसकी विशेषता है।
कभी-कभी तो इनके इस सरल व्यक्तित्व को देखकर खीज होती है। इतने उच्चकोटि का योगी, इतना सरल सहज और सामान्य जीवन व्यतीत करता है कि इन्हें देखकर विश्वास नहीं होता कि यह साधनों के क्षेत्र में अप्रतिम है। सिद्धियों का हजारवा हिस्सा भी यदि किसी के पास होता है तो वह अहम् के मद में चूर रहता धरती पर पांव ही नहीं रहता।
ज्योतिर्विज्ञान के पुरोधा
ज्योतिष के क्षेत्र में स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने जो काम किया है, वह पूर्ण साधनात्मक संस्था भी नहीं कर सकती। उन्होनें अकेले जितना और जो कुछ कार्य किया है उसे देखकर आश्चर्य होता है। ज्योतिष की दृष्टि से जन्म कुण्डली में दुसरा भाव द्रव्य से सम्बंधित है। और स्वामी जी ने ज्योतिष के नविन सूत्रों की रचना की। ज्योतिष के उन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जो आज के युग के अनुरूप है, जो वर्त्तमान सामाजिक व्यवस्था में सही है उन छोटे-छोटे ग्रंथों के माध्यम से उन्होनें पुरे देश में एक चेतना पैदा की। ज्योतिष के प्रति उनके मन में चाह उत्पन्न की, उन्हें विश्वास दिलाया, ज्योतिष के क्षेत्र में नविन कार्य हुए, बिखरे हुए ज्योतिषियों को एक मंच दिया, उन्हें यह समझाया कि यह विज्ञान तभी सफल हो ससकता है जब इसे पूर्ण समर्पित भाव से किया जाए।
आयुर्वेद का आधारभूत व्यक्तित्व
आयुर्वेद के क्षेत्र में योगिराज पूज्य गुरुदेव जी का योगदान बेजोड़ है। यदि वास्तविक दृष्टि से देखे, तो ज्योतिष और आयुर्वेद दो ही विद्याएं भारतवर्ष के पास थी जिसमें वह पुरे विश्व का अग्रणी था। आज भी विज्ञान के क्षेत्र में विश्व भले ही बहुत आगे बढ़ गया हो, उन्होनें नई से नई टेक्नोलॉजी प्राप्त कर ली है परन्तु इन दोनों क्षेत्रों में आज भी पूरा विश्व भारतवर्ष की और ही देखता है।
सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रन्थ तो लगभग लुप्त हो गए थे, जो कुछ ग्रन्थ बच गए थे, उनमें जिन जड़ी-बूटियों का विवरण का वर्णन मिलता था वे आज के युग में ज्ञात नहीं थी। उस समय पर वनौषधियों को संस्कृत नाम से पुकारते थे परन्तु आज उन शब्दों से परिचय ही नहीं है, इसीलिए उन वनौषधियों की न पहिचान हो रही थी और न उसकी सही अर्थों में उपयोग ही हो रहा था।
यह अपने आप में अंधकारपूर्ण स्थिति थी। ऐसी स्थिति में किसी भी वनस्पति को किसी भी नाम की सज्ञा दे दी जाती थी। उदाहरण के लिए तेलियाकंद भारतवर्ष की एक अदभुदएवं आश्चर्यजनक गुणों से युक्त दिव्या औषधि है। पर पीछ वैध सम्मलेन में लगभग १८ व्यक्तोयों ने १८ प्रकार के विभिन्न पौधे लाकर उस सम्मलेन में रखे और सभी ने इस बात को सिद्ध करने का प्रयत्न किया किउसने जिस पौधे की खोज की है वह प्रामाणिक और असली तेलियाकंद है जिसका विवरण वर्णन प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में मिलता है। जबकि वास्तविकता यह थी, कि उसमें से एक भी पौधा तेलियाकंद नहीं था।
ऐसी स्थिति में निखिलेश्वरानंद जी ने उन प्राचीन जड़ी-बूटियों को खोज निकाला, जिसका विवरण वर्णन प्राचीन ग्रंथों में मिलता है उनके चित्र गुन धर्म पहचान आदि की विस्तृत व्याख्या कर समझाया और उन जड़ी-बूटियों से आयुर्वेद जगत को परिचित कराया।
स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का आधिकांश समय हिमांचल में व्यतीत हुआ है और वे हिमालय के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। प्रत्येक स्थान, उसकी महत्ता उसकी भौगोलिक और पौराणिक स्थिति का ज्ञान तो स्वामी जी को है ही, साथ ही साथ वहां मिलने वाली जड़ी-बूटियों और पेड़-पौधों को भी उन्हें विस्तृत ज्ञान है।
आप ने एक शिष्य के सहयोग से नैनीताल और रानीखेत के बीच एक बहुत बड़ा फार्म तैयार करवाया है जो लगभग एक मील चौड़ा और ढाई मील लंबा है। इस पुरे फार्म में उन दुर्लभ जड़ी-बूटियों को उगाने का प्रयास किया है जो धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। हिमालय के सुदूर अंचल से ऐसे पौधे लाकर वहां स्थापित करने का प्रयत्न किया है। उन्होनें एक छोटी सी पुस्तिका भी लिखी है जिसमें उन्होनें उन ६४ दुर्लभ जड़ी-बूटियों का परिचय दिया है जिनका धीरे धीरे लोप हो रहा है। यदि समय रहते उनका सवर्द्वन नहीं हो सका तो निश्चय ही वे पौधे समाप्त हो जायेंगे।
इतना व्यस्त व्यक्तित्व होते हुए भी ऐसे पौधों के प्रति उनका ममत्व देखते ही बनाता है। उन्होनें कुछ पौधों को हिमालय की बहुत ही ऊंचाई से प्राप्त कर बड़ी कठिनाई से उस फार्म में आरोपित किया है और उनका पालन पोषण उसी प्रकार से किया जैसे कि मां अपने शिशु का करती है।
उन्होनें कहां प्रकृति हामारी शत्रु या प्रतिस्पर्धी नहीं अपितु सहायक है। उसके साथ द्वंद्व करके सफलता नहीं पाई जा सकती है, अपितु उसके साथ समन्वय करके ही सिद्धि प्राप्त हो सकती है। इसी स्थिति को और सिद्धांत को ध्यान में रखकर पूज्य गुरुदेव ने जो साधनाएं स्पष्ट की, उनके माध्यम से योगियों नें आसानी से प्रकृति पर विजय प्राप्त की।
- स्वामी विश्वेश्रवानंद
परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का व्यक्तित्व अपने-आप में अप्रतिम, अदभुतऔर अनिर्वचनीय रहा है। उनमें हिमालय सी ऊंचाई है, तो सागरवत गहराई भी; साधना के प्रति वे पूर्णतः समर्पित व्यक्तित्व हैं, तो जीवन के प्रति उन्मुक्त सरल और सहृदय भी; वेद, कर्मकांड और शास्त्रों के प्रति उनका अगाध और विस्तृत ज्ञान है, तो मंत्रों और तंत्रों के बारे में पूर्णतः जानकारी भी। यह एक पहला ऐसा व्यक्तित्व है जिसमें प्रत्येक प्रकार की साधनाएं समाहित हैं, उच्चकोटि के वैदिक और दैविक साधनाओं में जहां वे अग्रणी हैं, वहीं औघड शमशान और साबर साधनाओं में भी अपने-आप में अन्यतम हैं।
मैंने उन्हें हजारों-लाखों की भीड़ में प्रवचन देते हुए सूना है। उनका मानस अपने-आप में संतुलित है, किसी भी विषय पर नपे-तुले शब्दों में अजस्त्र, अबाध गति से बोलते रहते हैं। लीक सी एक इंच भी इधर-उधर नहीं हटते। मूल विषय पर, विविध विषयों की गहराई उनके सूक्ष्म विवेचन और साधना सिद्धियों को समाहित करते हुए वे विषय को पूर्णता के साथ इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, कि सामान्य मनुष्य भी सुनकर समझ लेता है और मंत्रमुग्ध बना रहता है।
मैं उनके संन्यास और गृहस्थ दोनों ही जीवन का साक्षी हूंहजारों संन्यासियों के भीड़ में भी उन्हें बोलते हुए सूना है उच्चस्तरीय विद्वत्तापूर्ण शुद्ध सुसंस्कृत में अजस्त्र, अबाध रूप से और गृहस्थ जीवन में भी उन्हें सरल हिन्दी में बोलते हुए सूना है - विषय को अत्याधिक सरल ढंग से समझाते हुए बीच-बीच में हास्य का पुट देते हुए मनोविनोद के साथ अपनी बात वे श्रोताओं के ह्रदय में पूर्णता के साथ उतार देते हैं।
मुझे उनका शिष्य बनने का सौभाग्य मिला है और मैं इसमें अपने-आप को गौरवान्वित अनुभव करता हूं। उनके साथ काफी समय तक मुझे रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, मैंने उनके अथक परिश्रम को देखा है, प्रातः जल्दी चार बजे से रात्री को बारह बजे तक निरंतर कार्य करते हुए भी उनके शरीर में थकावट का चिन्ह ढूंढने पर भी अनुभव नहीं होता।
वे उतने ही तरोताजा और आनंदपूर्ण स्थिति में बने रहते हैं, उनसे बात करते हुए ऐसा लगता है कि जैसे हम प्रचण्ड ग्रीष्म की गर्मी से निकलकर वट वृक्ष की शीतल छाया में आ गए हों, उनकी बातचीत से मन को शान्ति मिलती है जैसे कि पुरवाई बह रही हो, और सारे शरीर को पुलक से भर गई हो।
जीवंत व्यक्तित्व
ऐसे ही अद्वितीय वेदों में वर्णित सिद्धाश्रम के संचालक स्वामी सच्चिदानन्द जी के प्रमुख शिष्य योगिराज निखिलेश्वरानंद है, जिन पर सिद्धाश्रम का अधिकतर भार है। वे चाहे संन्यासी जीवन में हो और चाहे गृहस्थ जीवन में, रात्री को निरंतर नित्य सूक्ष्म शरीर से सिद्धाश्रम जाते हैं, वहां की संचालन व्यवस्था पर बराबर दृष्टि रखते हैं। यदि किसी साधक योगी या संन्यासी की कोई साधना विषयक समस्या होती है तो उसका समाधान करते हैं और उस दिव्य आश्रम को क्षण-क्षण में नविन रखते हुए गतिशील बनाए रखते हैं। वास्तव में ही आज सिद्धाश्रम का जो स्वरुप है उसका बहुत कुछ श्रेय स्वामी निखिलेश्वरानंद जी को है, जिनके प्रयासों से ही वह आश्रम अपने-आप में जीवंत हो सका।
आयुर्वेद के क्षेत्र में भी उन्होनें उन प्राचीन जडी-बूटियों पौधों और वृक्षों को ढूंढ निकाला है जो कि अपने-आप में लुप्त हो गए थे। वैदिक और पौराणिक काल में उन वनस्पतियों का नाम विविध ग्रंथों में अलग है परन्तु आप के युग में वे नाम प्रचलित नहीं हैं। अधिकांशजडी-बूटियां काल के प्रवाह में लुप्त हो गई थी।
अपने फार्म में उसी प्रकार का वातावरण बनते हुए उन जडी-बूटियों को पुनः लगाने और विकसित करने का प्रयास किया। मील से भी ज्यादा लम्बा चौडा ऐसा फार्म आज विश्व का अनूठा स्थल है, जहां पर ऐसी दुर्लभ जडी-बूटियों को सफलता के साथ उगाने में सफलता प्राप्त की है, जिनके द्वारा असाध्य से असाध्य रोग दूर किए जा सकते हैं। उनके गुण दोषों का विवेचन, उनकी सेवन विधि, उनका प्रयोग और उनसे सम्बंधित जीतनी सूक्ष्म जानकारी उनको है वह अपने आप में अन्यतम हैं।
पारद के सोलह संस्कार हे नहीं, अपितु चौवन संस्कार द्वारा उन्होनें सिद्ध कर दिया कि इस क्षेत्र में उन्हें जो ज्ञान है वह अपने-आप में अन्यतम है। एक धातु से दुसरे धातु में रूपांतरित करने की विधियां उन्होनें खोज निकाली और सफलतापूर्वक अपार जन समूह के सामने ऐसा करके उन्होनें दिखा दिया कि रसायन क्षेत्र में हम आज भी विश्व में अद्वितीय हैं। कई शिष्यों नें उनके सान्निध्य में रसायन ज्ञान प्राप्त किया है और ताम्बे स्व स्वर्ण बनाकर इस विद्या को महत्ता और गौरव प्रदान किया है।
सिद्धाश्रम के प्राण
सिद्धाश्रम देवताओं के लिए भी दुर्लभ और अन्यतम स्थान है। जिसे प्राप्त करने के लिए उच्चकोटि के योगी भी तरसते हैं। प्रयेक संन्यासी अपने मन में यही आकांक्षा पाले रहता कि जीवन में एक बार सिद्धाश्रम प्रवेश का अवसर मिल जाय। यह शाश्वत पवित्र और दिव्य स्थल, मानसरोवर और कैलाश से भी आगे स्थित है, जिसे स्थूल दृष्टी से देखा जाना सम्भव नहीं। जिनके ज्ञान चक्षु जागृत हैं, जिनके ह्रदय में सहस्रार का अमृत धारण है, वही ऐसे सिद्ध स्थल को देख सकता है।
ऋग्वेद से भी प्राचीन यह स्थल अपने-आप में महिमामण्डितहै। विश्व में कई बार सृष्टि का निर्माण हुआ और कई बार प्रलय की स्थिति बनी, पर सिद्धाश्रम अपने-आप में अविचल स्थिर रहा। उस पर न काल का कोई प्रभाव पड़ता है न वातावरण अथवा जलवायु का। वह इन सबसे परे आगम्यऔर अद्वितीय है। ऐसे स्थान पर जो योगी पहुंच जाता है, वह अपने आप में अन्यतम और अद्वितीय बन जाता है।
महाभारत कालीन भीष्म, कृपाचार्य, युधिष्ठिर, भगवान् कृष्ण, शंकराचार्य, गोरखनाथ आदि योगी आज भी वहां सशरीर विचरण करते देखे जा सकते हैं, अन्यतम योगियों में स्वामी सच्चिदानन्द जी, महर्षि भृगु आदि हैं, जिनका नाम स्मरण ही पुरे जीवन को पवित्र और दिव्य बनने के लिए पर्याप्त है।
यह मीलों लंबा फैला हुआ सिद्धि क्षेत्र अपने-आप में अद्वितीय है। जहा न रात होती है और न दिन। योगियों के शरीर से निकलने वाले प्रकाश से यह प्रतिक्षण आलोकित रहता है। गोधूली के समय जैसा चित्तार्शक दृश्य और प्रकाश व्याप्त होता है ऐसा प्रकाश वहां बारहों महीने रहता है। उस धरती पर सर्दी गर्मी आदि का कोई प्रभाव प्रतीत नहीं होता। ऐसे सिद्धाश्रम पर रहने वाले योगी कालजयी होते हैं, उन पर ज़रा मृत्यु आदि का प्रभाव व्याप्त नहीं होता।
यह उनके ही प्रबल पुरुषार्थ का फल है कि सिद्धाश्रम अपने-आप में जीवन्त स्थल है, जहां मस्ती आनन्द, उल्लास, उमंग और हलचल है गति है जहां चेतना और आज सिद्धाश्रम को देखने पर ऐसा लगता हैं कि यह नन्दन कानन से भी ज्यादा सुखकर और आनन्ददायक है।
एक मृतप्राय सा सिद्धाश्रम उनके आने से ही आनन्दमय हो गया और सही अर्थों में सिद्धाश्रम बन गया। सिद्धाश्रम में उच्चकोटि के योगी वशिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग, कणाद, आद्य शंकराचार्य, कृष्ण आदि सभी विद्यमान हैं। उच्चकोटि के योगी पृथ्वी पर अपना कार्य पूरा करने के बाद यह बाहरी नश्वर शरीर छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए सिद्धाश्रम चले जाते हैं। सिद्धाश्रम के श्रेष्ठ योगीजन आंखें बिच्चा बैठे रहते हैं, कि कब निखिलेश्वरानंद जी आएं और उनकी चरण धूलि मिले, ऋषि-मुनि अपनी साधनाएं बीच में ही रोककर उस स्थान पर खड़े हो जाते हैं, जहां से निखिलेश्वरानन्द जी गुजरने वाले होते हैं। प्रकृति भी अपने आप में नृत्यमय हो जाती है, क्योंकि सिद्धाश्रम जिस प्राणश्चेतना से गतिशील है, उसी प्राणश्चेतना के आधार हैं, निखिलेश्वरानंद जी।
सिद्धाश्रम, जहां उच्चकोटि की अप्सराएं निरंतर अपने नृत्य से, अपने गायन से, अपने संगीत से पुरे सिद्धाश्रम को गुंजरित बनाएं रखती हैं। एक अदभुद वातावरण है वहां का, ऐसा लगता है, जैसे स्वर्ग भी इसके सामने तुच्छ है और वास्तव में ही स्वर्ग और इंद्र लोक अत्यधिक तुच्छ हैं इस प्रकार के सिद्धाश्रम के सामने, जहां सिद्धयोगा झील गतिशील है, जिसमे स्नान करने से ही समस्त रोग मिट जाते हैं, जिसके किनारे बैठने से ही अपने-आप में सम्पूर्ण पवित्रता का बोध हो जाता है, उसमें अवगाहन करने से ही पूर्ण शीतलता और शान्ति महसूस होने लगती है, इसमें स्नान करने से ही इस देह को, जिस देह में हम गतिशील हैं, तुरंत भान हो जाता है, कि हम पांच हजार साल पहले कौन थे? या तो इस प्रकार के उच्चकोटि के योगियों के पास बैठने से उनके द्वारा ज्ञात हो सकता है या फिर सिद्धयोगा झील में स्नान करने से स्मरण हो जाता हैं।
मैं उनके इस जीवन का साक्षी रहां हूं, और आत्री, कणाद, गौतम, वशिष्ठ सदृश उच्चकोटि के योगी भी निखिलेश्वरानंद जी के व्यक्तित्व को देखकर आल्हादित और रोमांचित हो उठाते हैं। उनके जीवन का स्वप्न ही यह रहता है, कि निखिलेश्वरानंद जी के साथ रहे, उनसे बात-चीत करें और उनकी बात-चीत के प्रत्येक अंश में कोई न कोई साधना निहित रहती हैं। वास्तव में देखा जाए, तो वे योगियों में परम श्रेष्ठ, अदभुद, तेजस्वी एवं अद्वितीयता लिए हुए महामानव हैं।
जो योगीजन उनके साथ सिद्धाश्रम गए हैं, उन्होनें उनके व्यक्तित्व को पहिचाना है। उन्होनें देखा है, कि हजारों साल कि आयु प्राप्त योगी भी, जब 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' सिद्धाश्रम में प्रवेश करते हैं, तो अपनी तपस्या बीच में ही भंग करके खड़े हो जाते हैं, और उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए एक रेलम-पेल सी मच जाती है, चाहे साधक-साधिकाएं हों, चाहे योगी हों, चाहे अप्सराएं हों, सभी में एक ललक, एक ही पुलक, एक ही इच्छा, आकांक्षा होती है, कि 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' के चरणों को स्पर्श कर लिया जाए, जो गंगा की तरह पवित्र हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में वन्दनीय हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में ही अहोभाग्य हैं, और वे जिस रास्ते से गुजर जाते हैं, जहां-जहां उनके चरण-चिन्ह पड़ते हैं, वहां की धूलि उठाकर उच्चकोटि के संन्यासी, योगी ओने ललाट पर लगाते हैं, साधिकाएं उस माटी को चंदन की तरह अपने शरीर मर लगाती हैं और अपने आप को धन्य-धन्य अनुभव करती हैं।
वे किसी को भी अपने साथ सिद्धाश्रम ले जा सकते हैं, चाहे वह किसी भे जाती, वर्ग, भेद, वर्ण, लिंग का स्त्री, पुरूष हो, इसके लिए सिद्धाश्रम से उन्हें एक तरंग प्राप्त होती है, एक आज्ञा प्राप्त होती है, फिर स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी उस व्यक्तित्व को चाहे उसने साधना की हो या न की हो, अपने साथ ले जाते हैं, परन्तु उनके साथ वही जा सकता हैं, जो भाव से समर्पित शिष्य हो।
योगी विश्वेश्रवानंद
श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग ४
सिद्धाश्रम के संचालक, 'परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द जी है', वे तो अपने-आप में अन्यतम,अद्वितीय विभूति हैं, समस्त देवताओं, के पुंञ्ज से एकत्र होकर के उनका निर्माण हुआ है, सब देवताओं ने अपना-अपना अंश देकर के ऐसे अदभुद व्यक्तित्व का विकास किया है, जिन्हें सच्चिदानन्द जी कहते हैं।
परमहंस, प्रातः स्मरणीय 'पूज्यपाद स्वामी सच्चिदानन्द जी' के आशीर्वाद तले ऐसा सिद्धाश्रम गतिशील है, जहां की माटी कुंकुम की तरह है, जिसे ललाट पर लगाने की इच्छा की जाती है, जहां पर महाभारत काल और त्रेता युग के योगी व् सन्यासी निरंतर विचरण करते हैं, गतिशील हैं।
सच्चिदानन्द जी ने हजारों साल के अपने जीवन में केवल तीन ही शिष्य बनाएं हैं, अत्यन्त कठोर उनकी क्रिया है, जो उन क्रियाओं पर खरा उतरता है, उसे वे अपना शिष्यत्व प्रदान करते हैं। पूज्य गुरुदेव ऐसे ही अदभुद व्यक्तित्व हैं, जिन्होनें पूर्णता के साथ 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' से दीक्षा प्राप्त की हैं, और पूरा सिद्धाश्रम ही नहीं वरन पूरा ब्रह्माण्ड इस बात के लिए गौरवान्वित है, कि वे 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' के शिष्य है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका विचरण स्थल है
यही नहीं अपितु कई संन्यासियों ने उन्हें इंद्र लोक, पाताल लोक, सूर्य लोक, चन्द्रमा तथा अन्य लोकों में विचरण करते हुए देखा है। शुक्र ग्रह में कई योगी उनके साथ गाएं हैं, क्योंकि ये सूक्ष्म शरीर को इतना उंचा उठा लेते है, कि ये ब्रह्माण्ड का एक भाग बन जाते हैं, और उस भाग से वे समस्त ग्रहों में विचरण करते रहते हैं, उनका बाहरी शरीर यहीं पडा रहता हैं एक सामान्य शरीर की तरह, मगर आभ्यातारिक शरीर समस्त ग्रहों का प्रतिनिधित्व करता है। शुक्र गृह में उनको देखने के लिए लोग मचल पड़ते हैं, दौड़ते हैं, और उनकी एक झलक देख कर वे अपने-आप को परम सौभाग्यशाली समझते हैं।
मैंने उनके साथ उन लोकों की भी यात्रा की हैं, और यह देखा है कि वे जितने मृत्यु लोक में प्रिय हैं, जितने सिद्धाश्रम में प्रिय हैं, उससे भी ज्यादा शुक्र गृह और अन्य लोकों में प्रिय हैं। सभी लोकों में निरंतर प्रतीक्षा होती रहती हैं। जहां भी मैंने उनको देखा हैं, ऐसा लगता हैं कि यह पुरे ब्रह्माण्ड में बिखरा हुआ व्यक्तित्व है। कोई एक गृह या एक स्थान ही उनको महत्त्व नहीं देता, अपितु पुरे ब्रह्माण्ड का प्रत्येक गृह उनको महत्त्व देता है। वे अत्यन्त सूक्ष्म शरीर धारण कर सकते हैं और विराट स्वरुप भी धारण कर सकते हैं। वे एक ही क्षण में एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाने का सामर्थ्य रखते हैं। वे हिमालय की उंची-उंची चोटियों पर उसी पारकर विचरण करते हैं, जैसे मैदान में चल रहे हों, तथा गहन और गहन गुफाओं में मैंने उनको निरंतर साधना करते हुए अनुभव किया हैं।
साबर साधनाओं के अन्यतम योगी
साबर साधनाएं जीवन की सरल, सहज और मत्वपूर्ण साधना है। ऐसी साधनाएं हैं जिनमे जटिल विधि विधान नहीं है जिनमे लम्बा-चौड़ा विस्तार नहीं है, जिनमे सूक्ष्म-श्लोक संस्र्कुत नहीं अपितु सरल भाषा है। संसार की आठ क्रियाएं ऐसी है जो कई हजार वर्ष पहले पूर्व विकास पर थी परन्तु आज ये विद्याएं प्रायः लुप्त हैं और शायद ही उनके बारे में योगियों को जानकारी होगी। सिद्धाश्रम में इनके बारे में निरंतर शोध हो रही हैं और उन चिन्तनों तथा साधना विधियों को ढूं ढूं निकाला गया है।
मैंने देखा कि इस व्यक्तित्व में असीम प्राण चेतना है, सत्य और वास्तविकता से झुठलाकर इसे दबाया नहीं जा सकता। प्रहार कर इसकी गति को अवरुद्ध नहीं किया जा सकता बहलाकर इसे चुप नहीं किया जा सकता। इसके मन में भारत वर्ष के प्रति आसीम त्याग और आगाध श्रद्धा है। यह भारतवर्ष को पुनः उस स्थिति में ले जाना चाहता है जो कि इसका वास्तविक स्वरुप है। वह ऋषि मुनियों के मन्त्रों साधनाओं और सिद्धियों को सही तरीके से पुनः स्थापित करना चाहता है। ज्योतिष। और आयुर्वेद के खोये हुए स्थान को पुनः दिलाना चाहता है।
उनको देखते ही ऐसा आभास होता है कि जैसे प्राचीन समय का आर्य अपनी पूर्ण शारीरिक क्षमता और ज्ञान गरिमा को लेकर साकार है। शरीर लम्बा-चौड़ा, आकर्षक और चुम्बकीय नेत्र, वाणी में गंभीरता और गरिमा, दृढ़तायुक्त सिंहवत चाल और ह्रदय में पौरुष यह सब मिलाकर एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं जिन्हें हमें अपने जीवन में आर्य कहा है, जो हमारे सही अर्थों में पूर्वज है।
यह व्यक्तित्व अंत्यंत ही सरल, सौम्य और सहज है, किसी प्रकार का आडम्बर या प्रदर्शन इनके जीवन में नहीं हैं, आतंरिक और बाह्य जीवन में किसी प्रकार का कोई लुकाव छिपाव नहीं हैं, जो कुछ जीवन में है वही यथार्थ में है, और यही इसकी विशेषता है।
कभी-कभी तो इनके इस सरल व्यक्तित्व को देखकर खीज होती है। इतने उच्चकोटि का योगी, इतना सरल सहज और सामान्य जीवन व्यतीत करता है कि इन्हें देखकर विश्वास नहीं होता कि यह साधनों के क्षेत्र में अप्रतिम है। सिद्धियों का हजारवा हिस्सा भी यदि किसी के पास होता है तो वह अहम् के मद में चूर रहता धरती पर पांव ही नहीं रहता।
ज्योतिर्विज्ञान के पुरोधा
ज्योतिष के क्षेत्र में स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने जो काम किया है, वह पूर्ण साधनात्मक संस्था भी नहीं कर सकती। उन्होनें अकेले जितना और जो कुछ कार्य किया है उसे देखकर आश्चर्य होता है। ज्योतिष की दृष्टि से जन्म कुण्डली में दुसरा भाव द्रव्य से सम्बंधित है। और स्वामी जी ने ज्योतिष के नविन सूत्रों की रचना की। ज्योतिष के उन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जो आज के युग के अनुरूप है, जो वर्त्तमान सामाजिक व्यवस्था में सही है उन छोटे-छोटे ग्रंथों के माध्यम से उन्होनें पुरे देश में एक चेतना पैदा की। ज्योतिष के प्रति उनके मन में चाह उत्पन्न की, उन्हें विश्वास दिलाया, ज्योतिष के क्षेत्र में नविन कार्य हुए, बिखरे हुए ज्योतिषियों को एक मंच दिया, उन्हें यह समझाया कि यह विज्ञान तभी सफल हो ससकता है जब इसे पूर्ण समर्पित भाव से किया जाए।
आयुर्वेद का आधारभूत व्यक्तित्व
आयुर्वेद के क्षेत्र में योगिराज पूज्य गुरुदेव जी का योगदान बेजोड़ है। यदि वास्तविक दृष्टि से देखे, तो ज्योतिष और आयुर्वेद दो ही विद्याएं भारतवर्ष के पास थी जिसमें वह पुरे विश्व का अग्रणी था। आज भी विज्ञान के क्षेत्र में विश्व भले ही बहुत आगे बढ़ गया हो, उन्होनें नई से नई टेक्नोलॉजी प्राप्त कर ली है परन्तु इन दोनों क्षेत्रों में आज भी पूरा विश्व भारतवर्ष की और ही देखता है।
सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रन्थ तो लगभग लुप्त हो गए थे, जो कुछ ग्रन्थ बच गए थे, उनमें जिन जड़ी-बूटियों का विवरण का वर्णन मिलता था वे आज के युग में ज्ञात नहीं थी। उस समय पर वनौषधियों को संस्कृत नाम से पुकारते थे परन्तु आज उन शब्दों से परिचय ही नहीं है, इसीलिए उन वनौषधियों की न पहिचान हो रही थी और न उसकी सही अर्थों में उपयोग ही हो रहा था।
यह अपने आप में अंधकारपूर्ण स्थिति थी। ऐसी स्थिति में किसी भी वनस्पति को किसी भी नाम की सज्ञा दे दी जाती थी। उदाहरण के लिए तेलियाकंद भारतवर्ष की एक अदभुदएवं आश्चर्यजनक गुणों से युक्त दिव्या औषधि है। पर पीछ वैध सम्मलेन में लगभग १८ व्यक्तोयों ने १८ प्रकार के विभिन्न पौधे लाकर उस सम्मलेन में रखे और सभी ने इस बात को सिद्ध करने का प्रयत्न किया किउसने जिस पौधे की खोज की है वह प्रामाणिक और असली तेलियाकंद है जिसका विवरण वर्णन प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में मिलता है। जबकि वास्तविकता यह थी, कि उसमें से एक भी पौधा तेलियाकंद नहीं था।
ऐसी स्थिति में निखिलेश्वरानंद जी ने उन प्राचीन जड़ी-बूटियों को खोज निकाला, जिसका विवरण वर्णन प्राचीन ग्रंथों में मिलता है उनके चित्र गुन धर्म पहचान आदि की विस्तृत व्याख्या कर समझाया और उन जड़ी-बूटियों से आयुर्वेद जगत को परिचित कराया।
स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का आधिकांश समय हिमांचल में व्यतीत हुआ है और वे हिमालय के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। प्रत्येक स्थान, उसकी महत्ता उसकी भौगोलिक और पौराणिक स्थिति का ज्ञान तो स्वामी जी को है ही, साथ ही साथ वहां मिलने वाली जड़ी-बूटियों और पेड़-पौधों को भी उन्हें विस्तृत ज्ञान है।
आप ने एक शिष्य के सहयोग से नैनीताल और रानीखेत के बीच एक बहुत बड़ा फार्म तैयार करवाया है जो लगभग एक मील चौड़ा और ढाई मील लंबा है। इस पुरे फार्म में उन दुर्लभ जड़ी-बूटियों को उगाने का प्रयास किया है जो धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। हिमालय के सुदूर अंचल से ऐसे पौधे लाकर वहां स्थापित करने का प्रयत्न किया है। उन्होनें एक छोटी सी पुस्तिका भी लिखी है जिसमें उन्होनें उन ६४ दुर्लभ जड़ी-बूटियों का परिचय दिया है जिनका धीरे धीरे लोप हो रहा है। यदि समय रहते उनका सवर्द्वन नहीं हो सका तो निश्चय ही वे पौधे समाप्त हो जायेंगे।
इतना व्यस्त व्यक्तित्व होते हुए भी ऐसे पौधों के प्रति उनका ममत्व देखते ही बनाता है। उन्होनें कुछ पौधों को हिमालय की बहुत ही ऊंचाई से प्राप्त कर बड़ी कठिनाई से उस फार्म में आरोपित किया है और उनका पालन पोषण उसी प्रकार से किया जैसे कि मां अपने शिशु का करती है।
उन्होनें कहां प्रकृति हामारी शत्रु या प्रतिस्पर्धी नहीं अपितु सहायक है। उसके साथ द्वंद्व करके सफलता नहीं पाई जा सकती है, अपितु उसके साथ समन्वय करके ही सिद्धि प्राप्त हो सकती है। इसी स्थिति को और सिद्धांत को ध्यान में रखकर पूज्य गुरुदेव ने जो साधनाएं स्पष्ट की, उनके माध्यम से योगियों नें आसानी से प्रकृति पर विजय प्राप्त की।
- स्वामी विश्वेश्रवानंद
परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का व्यक्तित्व अपने-आप में अप्रतिम, अदभुतऔर अनिर्वचनीय रहा है। उनमें हिमालय सी ऊंचाई है, तो सागरवत गहराई भी; साधना के प्रति वे पूर्णतः समर्पित व्यक्तित्व हैं, तो जीवन के प्रति उन्मुक्त सरल और सहृदय भी; वेद, कर्मकांड और शास्त्रों के प्रति उनका अगाध और विस्तृत ज्ञान है, तो मंत्रों और तंत्रों के बारे में पूर्णतः जानकारी भी। यह एक पहला ऐसा व्यक्तित्व है जिसमें प्रत्येक प्रकार की साधनाएं समाहित हैं, उच्चकोटि के वैदिक और दैविक साधनाओं में जहां वे अग्रणी हैं, वहीं औघड शमशान और साबर साधनाओं में भी अपने-आप में अन्यतम हैं।
मैंने उन्हें हजारों-लाखों की भीड़ में प्रवचन देते हुए सूना है। उनका मानस अपने-आप में संतुलित है, किसी भी विषय पर नपे-तुले शब्दों में अजस्त्र, अबाध गति से बोलते रहते हैं। लीक सी एक इंच भी इधर-उधर नहीं हटते। मूल विषय पर, विविध विषयों की गहराई उनके सूक्ष्म विवेचन और साधना सिद्धियों को समाहित करते हुए वे विषय को पूर्णता के साथ इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, कि सामान्य मनुष्य भी सुनकर समझ लेता है और मंत्रमुग्ध बना रहता है।
मैं उनके संन्यास और गृहस्थ दोनों ही जीवन का साक्षी हूंहजारों संन्यासियों के भीड़ में भी उन्हें बोलते हुए सूना है उच्चस्तरीय विद्वत्तापूर्ण शुद्ध सुसंस्कृत में अजस्त्र, अबाध रूप से और गृहस्थ जीवन में भी उन्हें सरल हिन्दी में बोलते हुए सूना है - विषय को अत्याधिक सरल ढंग से समझाते हुए बीच-बीच में हास्य का पुट देते हुए मनोविनोद के साथ अपनी बात वे श्रोताओं के ह्रदय में पूर्णता के साथ उतार देते हैं।
मुझे उनका शिष्य बनने का सौभाग्य मिला है और मैं इसमें अपने-आप को गौरवान्वित अनुभव करता हूं। उनके साथ काफी समय तक मुझे रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, मैंने उनके अथक परिश्रम को देखा है, प्रातः जल्दी चार बजे से रात्री को बारह बजे तक निरंतर कार्य करते हुए भी उनके शरीर में थकावट का चिन्ह ढूंढने पर भी अनुभव नहीं होता।
वे उतने ही तरोताजा और आनंदपूर्ण स्थिति में बने रहते हैं, उनसे बात करते हुए ऐसा लगता है कि जैसे हम प्रचण्ड ग्रीष्म की गर्मी से निकलकर वट वृक्ष की शीतल छाया में आ गए हों, उनकी बातचीत से मन को शान्ति मिलती है जैसे कि पुरवाई बह रही हो, और सारे शरीर को पुलक से भर गई हो।
जीवंत व्यक्तित्व
ऐसे ही अद्वितीय वेदों में वर्णित सिद्धाश्रम के संचालक स्वामी सच्चिदानन्द जी के प्रमुख शिष्य योगिराज निखिलेश्वरानंद है, जिन पर सिद्धाश्रम का अधिकतर भार है। वे चाहे संन्यासी जीवन में हो और चाहे गृहस्थ जीवन में, रात्री को निरंतर नित्य सूक्ष्म शरीर से सिद्धाश्रम जाते हैं, वहां की संचालन व्यवस्था पर बराबर दृष्टि रखते हैं। यदि किसी साधक योगी या संन्यासी की कोई साधना विषयक समस्या होती है तो उसका समाधान करते हैं और उस दिव्य आश्रम को क्षण-क्षण में नविन रखते हुए गतिशील बनाए रखते हैं। वास्तव में ही आज सिद्धाश्रम का जो स्वरुप है उसका बहुत कुछ श्रेय स्वामी निखिलेश्वरानंद जी को है, जिनके प्रयासों से ही वह आश्रम अपने-आप में जीवंत हो सका।
आयुर्वेद के क्षेत्र में भी उन्होनें उन प्राचीन जडी-बूटियों पौधों और वृक्षों को ढूंढ निकाला है जो कि अपने-आप में लुप्त हो गए थे। वैदिक और पौराणिक काल में उन वनस्पतियों का नाम विविध ग्रंथों में अलग है परन्तु आप के युग में वे नाम प्रचलित नहीं हैं। अधिकांशजडी-बूटियां काल के प्रवाह में लुप्त हो गई थी।
अपने फार्म में उसी प्रकार का वातावरण बनते हुए उन जडी-बूटियों को पुनः लगाने और विकसित करने का प्रयास किया। मील से भी ज्यादा लम्बा चौडा ऐसा फार्म आज विश्व का अनूठा स्थल है, जहां पर ऐसी दुर्लभ जडी-बूटियों को सफलता के साथ उगाने में सफलता प्राप्त की है, जिनके द्वारा असाध्य से असाध्य रोग दूर किए जा सकते हैं। उनके गुण दोषों का विवेचन, उनकी सेवन विधि, उनका प्रयोग और उनसे सम्बंधित जीतनी सूक्ष्म जानकारी उनको है वह अपने आप में अन्यतम हैं।
पारद के सोलह संस्कार हे नहीं, अपितु चौवन संस्कार द्वारा उन्होनें सिद्ध कर दिया कि इस क्षेत्र में उन्हें जो ज्ञान है वह अपने-आप में अन्यतम है। एक धातु से दुसरे धातु में रूपांतरित करने की विधियां उन्होनें खोज निकाली और सफलतापूर्वक अपार जन समूह के सामने ऐसा करके उन्होनें दिखा दिया कि रसायन क्षेत्र में हम आज भी विश्व में अद्वितीय हैं। कई शिष्यों नें उनके सान्निध्य में रसायन ज्ञान प्राप्त किया है और ताम्बे स्व स्वर्ण बनाकर इस विद्या को महत्ता और गौरव प्रदान किया है।
सिद्धाश्रम के प्राण
सिद्धाश्रम देवताओं के लिए भी दुर्लभ और अन्यतम स्थान है। जिसे प्राप्त करने के लिए उच्चकोटि के योगी भी तरसते हैं। प्रयेक संन्यासी अपने मन में यही आकांक्षा पाले रहता कि जीवन में एक बार सिद्धाश्रम प्रवेश का अवसर मिल जाय। यह शाश्वत पवित्र और दिव्य स्थल, मानसरोवर और कैलाश से भी आगे स्थित है, जिसे स्थूल दृष्टी से देखा जाना सम्भव नहीं। जिनके ज्ञान चक्षु जागृत हैं, जिनके ह्रदय में सहस्रार का अमृत धारण है, वही ऐसे सिद्ध स्थल को देख सकता है।
ऋग्वेद से भी प्राचीन यह स्थल अपने-आप में महिमामण्डितहै। विश्व में कई बार सृष्टि का निर्माण हुआ और कई बार प्रलय की स्थिति बनी, पर सिद्धाश्रम अपने-आप में अविचल स्थिर रहा। उस पर न काल का कोई प्रभाव पड़ता है न वातावरण अथवा जलवायु का। वह इन सबसे परे आगम्यऔर अद्वितीय है। ऐसे स्थान पर जो योगी पहुंच जाता है, वह अपने आप में अन्यतम और अद्वितीय बन जाता है।
महाभारत कालीन भीष्म, कृपाचार्य, युधिष्ठिर, भगवान् कृष्ण, शंकराचार्य, गोरखनाथ आदि योगी आज भी वहां सशरीर विचरण करते देखे जा सकते हैं, अन्यतम योगियों में स्वामी सच्चिदानन्द जी, महर्षि भृगु आदि हैं, जिनका नाम स्मरण ही पुरे जीवन को पवित्र और दिव्य बनने के लिए पर्याप्त है।
यह मीलों लंबा फैला हुआ सिद्धि क्षेत्र अपने-आप में अद्वितीय है। जहा न रात होती है और न दिन। योगियों के शरीर से निकलने वाले प्रकाश से यह प्रतिक्षण आलोकित रहता है। गोधूली के समय जैसा चित्तार्शक दृश्य और प्रकाश व्याप्त होता है ऐसा प्रकाश वहां बारहों महीने रहता है। उस धरती पर सर्दी गर्मी आदि का कोई प्रभाव प्रतीत नहीं होता। ऐसे सिद्धाश्रम पर रहने वाले योगी कालजयी होते हैं, उन पर ज़रा मृत्यु आदि का प्रभाव व्याप्त नहीं होता।
यह उनके ही प्रबल पुरुषार्थ का फल है कि सिद्धाश्रम अपने-आप में जीवन्त स्थल है, जहां मस्ती आनन्द, उल्लास, उमंग और हलचल है गति है जहां चेतना और आज सिद्धाश्रम को देखने पर ऐसा लगता हैं कि यह नन्दन कानन से भी ज्यादा सुखकर और आनन्ददायक है।
एक मृतप्राय सा सिद्धाश्रम उनके आने से ही आनन्दमय हो गया और सही अर्थों में सिद्धाश्रम बन गया। सिद्धाश्रम में उच्चकोटि के योगी वशिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग, कणाद, आद्य शंकराचार्य, कृष्ण आदि सभी विद्यमान हैं। उच्चकोटि के योगी पृथ्वी पर अपना कार्य पूरा करने के बाद यह बाहरी नश्वर शरीर छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए सिद्धाश्रम चले जाते हैं। सिद्धाश्रम के श्रेष्ठ योगीजन आंखें बिच्चा बैठे रहते हैं, कि कब निखिलेश्वरानंद जी आएं और उनकी चरण धूलि मिले, ऋषि-मुनि अपनी साधनाएं बीच में ही रोककर उस स्थान पर खड़े हो जाते हैं, जहां से निखिलेश्वरानन्द जी गुजरने वाले होते हैं। प्रकृति भी अपने आप में नृत्यमय हो जाती है, क्योंकि सिद्धाश्रम जिस प्राणश्चेतना से गतिशील है, उसी प्राणश्चेतना के आधार हैं, निखिलेश्वरानंद जी।
सिद्धाश्रम, जहां उच्चकोटि की अप्सराएं निरंतर अपने नृत्य से, अपने गायन से, अपने संगीत से पुरे सिद्धाश्रम को गुंजरित बनाएं रखती हैं। एक अदभुद वातावरण है वहां का, ऐसा लगता है, जैसे स्वर्ग भी इसके सामने तुच्छ है और वास्तव में ही स्वर्ग और इंद्र लोक अत्यधिक तुच्छ हैं इस प्रकार के सिद्धाश्रम के सामने, जहां सिद्धयोगा झील गतिशील है, जिसमे स्नान करने से ही समस्त रोग मिट जाते हैं, जिसके किनारे बैठने से ही अपने-आप में सम्पूर्ण पवित्रता का बोध हो जाता है, उसमें अवगाहन करने से ही पूर्ण शीतलता और शान्ति महसूस होने लगती है, इसमें स्नान करने से ही इस देह को, जिस देह में हम गतिशील हैं, तुरंत भान हो जाता है, कि हम पांच हजार साल पहले कौन थे? या तो इस प्रकार के उच्चकोटि के योगियों के पास बैठने से उनके द्वारा ज्ञात हो सकता है या फिर सिद्धयोगा झील में स्नान करने से स्मरण हो जाता हैं।
मैं उनके इस जीवन का साक्षी रहां हूं, और आत्री, कणाद, गौतम, वशिष्ठ सदृश उच्चकोटि के योगी भी निखिलेश्वरानंद जी के व्यक्तित्व को देखकर आल्हादित और रोमांचित हो उठाते हैं। उनके जीवन का स्वप्न ही यह रहता है, कि निखिलेश्वरानंद जी के साथ रहे, उनसे बात-चीत करें और उनकी बात-चीत के प्रत्येक अंश में कोई न कोई साधना निहित रहती हैं। वास्तव में देखा जाए, तो वे योगियों में परम श्रेष्ठ, अदभुद, तेजस्वी एवं अद्वितीयता लिए हुए महामानव हैं।
जो योगीजन उनके साथ सिद्धाश्रम गए हैं, उन्होनें उनके व्यक्तित्व को पहिचाना है। उन्होनें देखा है, कि हजारों साल कि आयु प्राप्त योगी भी, जब 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' सिद्धाश्रम में प्रवेश करते हैं, तो अपनी तपस्या बीच में ही भंग करके खड़े हो जाते हैं, और उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए एक रेलम-पेल सी मच जाती है, चाहे साधक-साधिकाएं हों, चाहे योगी हों, चाहे अप्सराएं हों, सभी में एक ललक, एक ही पुलक, एक ही इच्छा, आकांक्षा होती है, कि 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' के चरणों को स्पर्श कर लिया जाए, जो गंगा की तरह पवित्र हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में वन्दनीय हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में ही अहोभाग्य हैं, और वे जिस रास्ते से गुजर जाते हैं, जहां-जहां उनके चरण-चिन्ह पड़ते हैं, वहां की धूलि उठाकर उच्चकोटि के संन्यासी, योगी ओने ललाट पर लगाते हैं, साधिकाएं उस माटी को चंदन की तरह अपने शरीर मर लगाती हैं और अपने आप को धन्य-धन्य अनुभव करती हैं।
वे किसी को भी अपने साथ सिद्धाश्रम ले जा सकते हैं, चाहे वह किसी भे जाती, वर्ग, भेद, वर्ण, लिंग का स्त्री, पुरूष हो, इसके लिए सिद्धाश्रम से उन्हें एक तरंग प्राप्त होती है, एक आज्ञा प्राप्त होती है, फिर स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी उस व्यक्तित्व को चाहे उसने साधना की हो या न की हो, अपने साथ ले जाते हैं, परन्तु उनके साथ वही जा सकता हैं, जो भाव से समर्पित शिष्य हो।
योगी विश्वेश्रवानंद
सिद्धाश्रम के संचालक, 'परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द जी है', वे तो अपने-आप में अन्यतम,अद्वितीय विभूति हैं, समस्त देवताओं, के पुंञ्ज से एकत्र होकर के उनका निर्माण हुआ है, सब देवताओं ने अपना-अपना अंश देकर के ऐसे अदभुद व्यक्तित्व का विकास किया है, जिन्हें सच्चिदानन्द जी कहते हैं।
परमहंस, प्रातः स्मरणीय 'पूज्यपाद स्वामी सच्चिदानन्द जी' के आशीर्वाद तले ऐसा सिद्धाश्रम गतिशील है, जहां की माटी कुंकुम की तरह है, जिसे ललाट पर लगाने की इच्छा की जाती है, जहां पर महाभारत काल और त्रेता युग के योगी व् सन्यासी निरंतर विचरण करते हैं, गतिशील हैं।
सच्चिदानन्द जी ने हजारों साल के अपने जीवन में केवल तीन ही शिष्य बनाएं हैं, अत्यन्त कठोर उनकी क्रिया है, जो उन क्रियाओं पर खरा उतरता है, उसे वे अपना शिष्यत्व प्रदान करते हैं। पूज्य गुरुदेव ऐसे ही अदभुद व्यक्तित्व हैं, जिन्होनें पूर्णता के साथ 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' से दीक्षा प्राप्त की हैं, और पूरा सिद्धाश्रम ही नहीं वरन पूरा ब्रह्माण्ड इस बात के लिए गौरवान्वित है, कि वे 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' के शिष्य है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका विचरण स्थल है
यही नहीं अपितु कई संन्यासियों ने उन्हें इंद्र लोक, पाताल लोक, सूर्य लोक, चन्द्रमा तथा अन्य लोकों में विचरण करते हुए देखा है। शुक्र ग्रह में कई योगी उनके साथ गाएं हैं, क्योंकि ये सूक्ष्म शरीर को इतना उंचा उठा लेते है, कि ये ब्रह्माण्ड का एक भाग बन जाते हैं, और उस भाग से वे समस्त ग्रहों में विचरण करते रहते हैं, उनका बाहरी शरीर यहीं पडा रहता हैं एक सामान्य शरीर की तरह, मगर आभ्यातारिक शरीर समस्त ग्रहों का प्रतिनिधित्व करता है। शुक्र गृह में उनको देखने के लिए लोग मचल पड़ते हैं, दौड़ते हैं, और उनकी एक झलक देख कर वे अपने-आप को परम सौभाग्यशाली समझते हैं।
मैंने उनके साथ उन लोकों की भी यात्रा की हैं, और यह देखा है कि वे जितने मृत्यु लोक में प्रिय हैं, जितने सिद्धाश्रम में प्रिय हैं, उससे भी ज्यादा शुक्र गृह और अन्य लोकों में प्रिय हैं। सभी लोकों में निरंतर प्रतीक्षा होती रहती हैं। जहां भी मैंने उनको देखा हैं, ऐसा लगता हैं कि यह पुरे ब्रह्माण्ड में बिखरा हुआ व्यक्तित्व है। कोई एक गृह या एक स्थान ही उनको महत्त्व नहीं देता, अपितु पुरे ब्रह्माण्ड का प्रत्येक गृह उनको महत्त्व देता है। वे अत्यन्त सूक्ष्म शरीर धारण कर सकते हैं और विराट स्वरुप भी धारण कर सकते हैं। वे एक ही क्षण में एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाने का सामर्थ्य रखते हैं। वे हिमालय की उंची-उंची चोटियों पर उसी पारकर विचरण करते हैं, जैसे मैदान में चल रहे हों, तथा गहन और गहन गुफाओं में मैंने उनको निरंतर साधना करते हुए अनुभव किया हैं।
साबर साधनाओं के अन्यतम योगी
साबर साधनाएं जीवन की सरल, सहज और मत्वपूर्ण साधना है। ऐसी साधनाएं हैं जिनमे जटिल विधि विधान नहीं है जिनमे लम्बा-चौड़ा विस्तार नहीं है, जिनमे सूक्ष्म-श्लोक संस्र्कुत नहीं अपितु सरल भाषा है। संसार की आठ क्रियाएं ऐसी है जो कई हजार वर्ष पहले पूर्व विकास पर थी परन्तु आज ये विद्याएं प्रायः लुप्त हैं और शायद ही उनके बारे में योगियों को जानकारी होगी। सिद्धाश्रम में इनके बारे में निरंतर शोध हो रही हैं और उन चिन्तनों तथा साधना विधियों को ढूं ढूं निकाला गया है।
मैंने देखा कि इस व्यक्तित्व में असीम प्राण चेतना है, सत्य और वास्तविकता से झुठलाकर इसे दबाया नहीं जा सकता। प्रहार कर इसकी गति को अवरुद्ध नहीं किया जा सकता बहलाकर इसे चुप नहीं किया जा सकता। इसके मन में भारत वर्ष के प्रति आसीम त्याग और आगाध श्रद्धा है। यह भारतवर्ष को पुनः उस स्थिति में ले जाना चाहता है जो कि इसका वास्तविक स्वरुप है। वह ऋषि मुनियों के मन्त्रों साधनाओं और सिद्धियों को सही तरीके से पुनः स्थापित करना चाहता है। ज्योतिष। और आयुर्वेद के खोये हुए स्थान को पुनः दिलाना चाहता है।
उनको देखते ही ऐसा आभास होता है कि जैसे प्राचीन समय का आर्य अपनी पूर्ण शारीरिक क्षमता और ज्ञान गरिमा को लेकर साकार है। शरीर लम्बा-चौड़ा, आकर्षक और चुम्बकीय नेत्र, वाणी में गंभीरता और गरिमा, दृढ़तायुक्त सिंहवत चाल और ह्रदय में पौरुष यह सब मिलाकर एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं जिन्हें हमें अपने जीवन में आर्य कहा है, जो हमारे सही अर्थों में पूर्वज है।
यह व्यक्तित्व अंत्यंत ही सरल, सौम्य और सहज है, किसी प्रकार का आडम्बर या प्रदर्शन इनके जीवन में नहीं हैं, आतंरिक और बाह्य जीवन में किसी प्रकार का कोई लुकाव छिपाव नहीं हैं, जो कुछ जीवन में है वही यथार्थ में है, और यही इसकी विशेषता है।
कभी-कभी तो इनके इस सरल व्यक्तित्व को देखकर खीज होती है। इतने उच्चकोटि का योगी, इतना सरल सहज और सामान्य जीवन व्यतीत करता है कि इन्हें देखकर विश्वास नहीं होता कि यह साधनों के क्षेत्र में अप्रतिम है। सिद्धियों का हजारवा हिस्सा भी यदि किसी के पास होता है तो वह अहम् के मद में चूर रहता धरती पर पांव ही नहीं रहता।
ज्योतिर्विज्ञान के पुरोधा
ज्योतिष के क्षेत्र में स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने जो काम किया है, वह पूर्ण साधनात्मक संस्था भी नहीं कर सकती। उन्होनें अकेले जितना और जो कुछ कार्य किया है उसे देखकर आश्चर्य होता है। ज्योतिष की दृष्टि से जन्म कुण्डली में दुसरा भाव द्रव्य से सम्बंधित है। और स्वामी जी ने ज्योतिष के नविन सूत्रों की रचना की। ज्योतिष के उन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जो आज के युग के अनुरूप है, जो वर्त्तमान सामाजिक व्यवस्था में सही है उन छोटे-छोटे ग्रंथों के माध्यम से उन्होनें पुरे देश में एक चेतना पैदा की। ज्योतिष के प्रति उनके मन में चाह उत्पन्न की, उन्हें विश्वास दिलाया, ज्योतिष के क्षेत्र में नविन कार्य हुए, बिखरे हुए ज्योतिषियों को एक मंच दिया, उन्हें यह समझाया कि यह विज्ञान तभी सफल हो ससकता है जब इसे पूर्ण समर्पित भाव से किया जाए।
आयुर्वेद का आधारभूत व्यक्तित्व
आयुर्वेद के क्षेत्र में योगिराज पूज्य गुरुदेव जी का योगदान बेजोड़ है। यदि वास्तविक दृष्टि से देखे, तो ज्योतिष और आयुर्वेद दो ही विद्याएं भारतवर्ष के पास थी जिसमें वह पुरे विश्व का अग्रणी था। आज भी विज्ञान के क्षेत्र में विश्व भले ही बहुत आगे बढ़ गया हो, उन्होनें नई से नई टेक्नोलॉजी प्राप्त कर ली है परन्तु इन दोनों क्षेत्रों में आज भी पूरा विश्व भारतवर्ष की और ही देखता है।
सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रन्थ तो लगभग लुप्त हो गए थे, जो कुछ ग्रन्थ बच गए थे, उनमें जिन जड़ी-बूटियों का विवरण का वर्णन मिलता था वे आज के युग में ज्ञात नहीं थी। उस समय पर वनौषधियों को संस्कृत नाम से पुकारते थे परन्तु आज उन शब्दों से परिचय ही नहीं है, इसीलिए उन वनौषधियों की न पहिचान हो रही थी और न उसकी सही अर्थों में उपयोग ही हो रहा था।
यह अपने आप में अंधकारपूर्ण स्थिति थी। ऐसी स्थिति में किसी भी वनस्पति को किसी भी नाम की सज्ञा दे दी जाती थी। उदाहरण के लिए तेलियाकंद भारतवर्ष की एक अदभुदएवं आश्चर्यजनक गुणों से युक्त दिव्या औषधि है। पर पीछ वैध सम्मलेन में लगभग १८ व्यक्तोयों ने १८ प्रकार के विभिन्न पौधे लाकर उस सम्मलेन में रखे और सभी ने इस बात को सिद्ध करने का प्रयत्न किया किउसने जिस पौधे की खोज की है वह प्रामाणिक और असली तेलियाकंद है जिसका विवरण वर्णन प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में मिलता है। जबकि वास्तविकता यह थी, कि उसमें से एक भी पौधा तेलियाकंद नहीं था।
ऐसी स्थिति में निखिलेश्वरानंद जी ने उन प्राचीन जड़ी-बूटियों को खोज निकाला, जिसका विवरण वर्णन प्राचीन ग्रंथों में मिलता है उनके चित्र गुन धर्म पहचान आदि की विस्तृत व्याख्या कर समझाया और उन जड़ी-बूटियों से आयुर्वेद जगत को परिचित कराया।
स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का आधिकांश समय हिमांचल में व्यतीत हुआ है और वे हिमालय के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। प्रत्येक स्थान, उसकी महत्ता उसकी भौगोलिक और पौराणिक स्थिति का ज्ञान तो स्वामी जी को है ही, साथ ही साथ वहां मिलने वाली जड़ी-बूटियों और पेड़-पौधों को भी उन्हें विस्तृत ज्ञान है।
आप ने एक शिष्य के सहयोग से नैनीताल और रानीखेत के बीच एक बहुत बड़ा फार्म तैयार करवाया है जो लगभग एक मील चौड़ा और ढाई मील लंबा है। इस पुरे फार्म में उन दुर्लभ जड़ी-बूटियों को उगाने का प्रयास किया है जो धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। हिमालय के सुदूर अंचल से ऐसे पौधे लाकर वहां स्थापित करने का प्रयत्न किया है। उन्होनें एक छोटी सी पुस्तिका भी लिखी है जिसमें उन्होनें उन ६४ दुर्लभ जड़ी-बूटियों का परिचय दिया है जिनका धीरे धीरे लोप हो रहा है। यदि समय रहते उनका सवर्द्वन नहीं हो सका तो निश्चय ही वे पौधे समाप्त हो जायेंगे।
इतना व्यस्त व्यक्तित्व होते हुए भी ऐसे पौधों के प्रति उनका ममत्व देखते ही बनाता है। उन्होनें कुछ पौधों को हिमालय की बहुत ही ऊंचाई से प्राप्त कर बड़ी कठिनाई से उस फार्म में आरोपित किया है और उनका पालन पोषण उसी प्रकार से किया जैसे कि मां अपने शिशु का करती है।
उन्होनें कहां प्रकृति हामारी शत्रु या प्रतिस्पर्धी नहीं अपितु सहायक है। उसके साथ द्वंद्व करके सफलता नहीं पाई जा सकती है, अपितु उसके साथ समन्वय करके ही सिद्धि प्राप्त हो सकती है। इसी स्थिति को और सिद्धांत को ध्यान में रखकर पूज्य गुरुदेव ने जो साधनाएं स्पष्ट की, उनके माध्यम से योगियों नें आसानी से प्रकृति पर विजय प्राप्त की।
- स्वामी विश्वेश्रवानंद
परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का व्यक्तित्व अपने-आप में अप्रतिम, अदभुतऔर अनिर्वचनीय रहा है। उनमें हिमालय सी ऊंचाई है, तो सागरवत गहराई भी; साधना के प्रति वे पूर्णतः समर्पित व्यक्तित्व हैं, तो जीवन के प्रति उन्मुक्त सरल और सहृदय भी; वेद, कर्मकांड और शास्त्रों के प्रति उनका अगाध और विस्तृत ज्ञान है, तो मंत्रों और तंत्रों के बारे में पूर्णतः जानकारी भी। यह एक पहला ऐसा व्यक्तित्व है जिसमें प्रत्येक प्रकार की साधनाएं समाहित हैं, उच्चकोटि के वैदिक और दैविक साधनाओं में जहां वे अग्रणी हैं, वहीं औघड शमशान और साबर साधनाओं में भी अपने-आप में अन्यतम हैं।
मैंने उन्हें हजारों-लाखों की भीड़ में प्रवचन देते हुए सूना है। उनका मानस अपने-आप में संतुलित है, किसी भी विषय पर नपे-तुले शब्दों में अजस्त्र, अबाध गति से बोलते रहते हैं। लीक सी एक इंच भी इधर-उधर नहीं हटते। मूल विषय पर, विविध विषयों की गहराई उनके सूक्ष्म विवेचन और साधना सिद्धियों को समाहित करते हुए वे विषय को पूर्णता के साथ इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, कि सामान्य मनुष्य भी सुनकर समझ लेता है और मंत्रमुग्ध बना रहता है।
मैं उनके संन्यास और गृहस्थ दोनों ही जीवन का साक्षी हूंहजारों संन्यासियों के भीड़ में भी उन्हें बोलते हुए सूना है उच्चस्तरीय विद्वत्तापूर्ण शुद्ध सुसंस्कृत में अजस्त्र, अबाध रूप से और गृहस्थ जीवन में भी उन्हें सरल हिन्दी में बोलते हुए सूना है - विषय को अत्याधिक सरल ढंग से समझाते हुए बीच-बीच में हास्य का पुट देते हुए मनोविनोद के साथ अपनी बात वे श्रोताओं के ह्रदय में पूर्णता के साथ उतार देते हैं।
मुझे उनका शिष्य बनने का सौभाग्य मिला है और मैं इसमें अपने-आप को गौरवान्वित अनुभव करता हूं। उनके साथ काफी समय तक मुझे रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, मैंने उनके अथक परिश्रम को देखा है, प्रातः जल्दी चार बजे से रात्री को बारह बजे तक निरंतर कार्य करते हुए भी उनके शरीर में थकावट का चिन्ह ढूंढने पर भी अनुभव नहीं होता।
वे उतने ही तरोताजा और आनंदपूर्ण स्थिति में बने रहते हैं, उनसे बात करते हुए ऐसा लगता है कि जैसे हम प्रचण्ड ग्रीष्म की गर्मी से निकलकर वट वृक्ष की शीतल छाया में आ गए हों, उनकी बातचीत से मन को शान्ति मिलती है जैसे कि पुरवाई बह रही हो, और सारे शरीर को पुलक से भर गई हो।
जीवंत व्यक्तित्व
ऐसे ही अद्वितीय वेदों में वर्णित सिद्धाश्रम के संचालक स्वामी सच्चिदानन्द जी के प्रमुख शिष्य योगिराज निखिलेश्वरानंद है, जिन पर सिद्धाश्रम का अधिकतर भार है। वे चाहे संन्यासी जीवन में हो और चाहे गृहस्थ जीवन में, रात्री को निरंतर नित्य सूक्ष्म शरीर से सिद्धाश्रम जाते हैं, वहां की संचालन व्यवस्था पर बराबर दृष्टि रखते हैं। यदि किसी साधक योगी या संन्यासी की कोई साधना विषयक समस्या होती है तो उसका समाधान करते हैं और उस दिव्य आश्रम को क्षण-क्षण में नविन रखते हुए गतिशील बनाए रखते हैं। वास्तव में ही आज सिद्धाश्रम का जो स्वरुप है उसका बहुत कुछ श्रेय स्वामी निखिलेश्वरानंद जी को है, जिनके प्रयासों से ही वह आश्रम अपने-आप में जीवंत हो सका।
आयुर्वेद के क्षेत्र में भी उन्होनें उन प्राचीन जडी-बूटियों पौधों और वृक्षों को ढूंढ निकाला है जो कि अपने-आप में लुप्त हो गए थे। वैदिक और पौराणिक काल में उन वनस्पतियों का नाम विविध ग्रंथों में अलग है परन्तु आप के युग में वे नाम प्रचलित नहीं हैं। अधिकांशजडी-बूटियां काल के प्रवाह में लुप्त हो गई थी।
अपने फार्म में उसी प्रकार का वातावरण बनते हुए उन जडी-बूटियों को पुनः लगाने और विकसित करने का प्रयास किया। मील से भी ज्यादा लम्बा चौडा ऐसा फार्म आज विश्व का अनूठा स्थल है, जहां पर ऐसी दुर्लभ जडी-बूटियों को सफलता के साथ उगाने में सफलता प्राप्त की है, जिनके द्वारा असाध्य से असाध्य रोग दूर किए जा सकते हैं। उनके गुण दोषों का विवेचन, उनकी सेवन विधि, उनका प्रयोग और उनसे सम्बंधित जीतनी सूक्ष्म जानकारी उनको है वह अपने आप में अन्यतम हैं।
पारद के सोलह संस्कार हे नहीं, अपितु चौवन संस्कार द्वारा उन्होनें सिद्ध कर दिया कि इस क्षेत्र में उन्हें जो ज्ञान है वह अपने-आप में अन्यतम है। एक धातु से दुसरे धातु में रूपांतरित करने की विधियां उन्होनें खोज निकाली और सफलतापूर्वक अपार जन समूह के सामने ऐसा करके उन्होनें दिखा दिया कि रसायन क्षेत्र में हम आज भी विश्व में अद्वितीय हैं। कई शिष्यों नें उनके सान्निध्य में रसायन ज्ञान प्राप्त किया है और ताम्बे स्व स्वर्ण बनाकर इस विद्या को महत्ता और गौरव प्रदान किया है।
सिद्धाश्रम के प्राण
सिद्धाश्रम देवताओं के लिए भी दुर्लभ और अन्यतम स्थान है। जिसे प्राप्त करने के लिए उच्चकोटि के योगी भी तरसते हैं। प्रयेक संन्यासी अपने मन में यही आकांक्षा पाले रहता कि जीवन में एक बार सिद्धाश्रम प्रवेश का अवसर मिल जाय। यह शाश्वत पवित्र और दिव्य स्थल, मानसरोवर और कैलाश से भी आगे स्थित है, जिसे स्थूल दृष्टी से देखा जाना सम्भव नहीं। जिनके ज्ञान चक्षु जागृत हैं, जिनके ह्रदय में सहस्रार का अमृत धारण है, वही ऐसे सिद्ध स्थल को देख सकता है।
ऋग्वेद से भी प्राचीन यह स्थल अपने-आप में महिमामण्डितहै। विश्व में कई बार सृष्टि का निर्माण हुआ और कई बार प्रलय की स्थिति बनी, पर सिद्धाश्रम अपने-आप में अविचल स्थिर रहा। उस पर न काल का कोई प्रभाव पड़ता है न वातावरण अथवा जलवायु का। वह इन सबसे परे आगम्यऔर अद्वितीय है। ऐसे स्थान पर जो योगी पहुंच जाता है, वह अपने आप में अन्यतम और अद्वितीय बन जाता है।
महाभारत कालीन भीष्म, कृपाचार्य, युधिष्ठिर, भगवान् कृष्ण, शंकराचार्य, गोरखनाथ आदि योगी आज भी वहां सशरीर विचरण करते देखे जा सकते हैं, अन्यतम योगियों में स्वामी सच्चिदानन्द जी, महर्षि भृगु आदि हैं, जिनका नाम स्मरण ही पुरे जीवन को पवित्र और दिव्य बनने के लिए पर्याप्त है।
यह मीलों लंबा फैला हुआ सिद्धि क्षेत्र अपने-आप में अद्वितीय है। जहा न रात होती है और न दिन। योगियों के शरीर से निकलने वाले प्रकाश से यह प्रतिक्षण आलोकित रहता है। गोधूली के समय जैसा चित्तार्शक दृश्य और प्रकाश व्याप्त होता है ऐसा प्रकाश वहां बारहों महीने रहता है। उस धरती पर सर्दी गर्मी आदि का कोई प्रभाव प्रतीत नहीं होता। ऐसे सिद्धाश्रम पर रहने वाले योगी कालजयी होते हैं, उन पर ज़रा मृत्यु आदि का प्रभाव व्याप्त नहीं होता।
यह उनके ही प्रबल पुरुषार्थ का फल है कि सिद्धाश्रम अपने-आप में जीवन्त स्थल है, जहां मस्ती आनन्द, उल्लास, उमंग और हलचल है गति है जहां चेतना और आज सिद्धाश्रम को देखने पर ऐसा लगता हैं कि यह नन्दन कानन से भी ज्यादा सुखकर और आनन्ददायक है।
एक मृतप्राय सा सिद्धाश्रम उनके आने से ही आनन्दमय हो गया और सही अर्थों में सिद्धाश्रम बन गया। सिद्धाश्रम में उच्चकोटि के योगी वशिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग, कणाद, आद्य शंकराचार्य, कृष्ण आदि सभी विद्यमान हैं। उच्चकोटि के योगी पृथ्वी पर अपना कार्य पूरा करने के बाद यह बाहरी नश्वर शरीर छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए सिद्धाश्रम चले जाते हैं। सिद्धाश्रम के श्रेष्ठ योगीजन आंखें बिच्चा बैठे रहते हैं, कि कब निखिलेश्वरानंद जी आएं और उनकी चरण धूलि मिले, ऋषि-मुनि अपनी साधनाएं बीच में ही रोककर उस स्थान पर खड़े हो जाते हैं, जहां से निखिलेश्वरानन्द जी गुजरने वाले होते हैं। प्रकृति भी अपने आप में नृत्यमय हो जाती है, क्योंकि सिद्धाश्रम जिस प्राणश्चेतना से गतिशील है, उसी प्राणश्चेतना के आधार हैं, निखिलेश्वरानंद जी।
सिद्धाश्रम, जहां उच्चकोटि की अप्सराएं निरंतर अपने नृत्य से, अपने गायन से, अपने संगीत से पुरे सिद्धाश्रम को गुंजरित बनाएं रखती हैं। एक अदभुद वातावरण है वहां का, ऐसा लगता है, जैसे स्वर्ग भी इसके सामने तुच्छ है और वास्तव में ही स्वर्ग और इंद्र लोक अत्यधिक तुच्छ हैं इस प्रकार के सिद्धाश्रम के सामने, जहां सिद्धयोगा झील गतिशील है, जिसमे स्नान करने से ही समस्त रोग मिट जाते हैं, जिसके किनारे बैठने से ही अपने-आप में सम्पूर्ण पवित्रता का बोध हो जाता है, उसमें अवगाहन करने से ही पूर्ण शीतलता और शान्ति महसूस होने लगती है, इसमें स्नान करने से ही इस देह को, जिस देह में हम गतिशील हैं, तुरंत भान हो जाता है, कि हम पांच हजार साल पहले कौन थे? या तो इस प्रकार के उच्चकोटि के योगियों के पास बैठने से उनके द्वारा ज्ञात हो सकता है या फिर सिद्धयोगा झील में स्नान करने से स्मरण हो जाता हैं।
मैं उनके इस जीवन का साक्षी रहां हूं, और आत्री, कणाद, गौतम, वशिष्ठ सदृश उच्चकोटि के योगी भी निखिलेश्वरानंद जी के व्यक्तित्व को देखकर आल्हादित और रोमांचित हो उठाते हैं। उनके जीवन का स्वप्न ही यह रहता है, कि निखिलेश्वरानंद जी के साथ रहे, उनसे बात-चीत करें और उनकी बात-चीत के प्रत्येक अंश में कोई न कोई साधना निहित रहती हैं। वास्तव में देखा जाए, तो वे योगियों में परम श्रेष्ठ, अदभुद, तेजस्वी एवं अद्वितीयता लिए हुए महामानव हैं।
जो योगीजन उनके साथ सिद्धाश्रम गए हैं, उन्होनें उनके व्यक्तित्व को पहिचाना है। उन्होनें देखा है, कि हजारों साल कि आयु प्राप्त योगी भी, जब 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' सिद्धाश्रम में प्रवेश करते हैं, तो अपनी तपस्या बीच में ही भंग करके खड़े हो जाते हैं, और उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए एक रेलम-पेल सी मच जाती है, चाहे साधक-साधिकाएं हों, चाहे योगी हों, चाहे अप्सराएं हों, सभी में एक ललक, एक ही पुलक, एक ही इच्छा, आकांक्षा होती है, कि 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' के चरणों को स्पर्श कर लिया जाए, जो गंगा की तरह पवित्र हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में वन्दनीय हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में ही अहोभाग्य हैं, और वे जिस रास्ते से गुजर जाते हैं, जहां-जहां उनके चरण-चिन्ह पड़ते हैं, वहां की धूलि उठाकर उच्चकोटि के संन्यासी, योगी ओने ललाट पर लगाते हैं, साधिकाएं उस माटी को चंदन की तरह अपने शरीर मर लगाती हैं और अपने आप को धन्य-धन्य अनुभव करती हैं।
वे किसी को भी अपने साथ सिद्धाश्रम ले जा सकते हैं, चाहे वह किसी भे जाती, वर्ग, भेद, वर्ण, लिंग का स्त्री, पुरूष हो, इसके लिए सिद्धाश्रम से उन्हें एक तरंग प्राप्त होती है, एक आज्ञा प्राप्त होती है, फिर स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी उस व्यक्तित्व को चाहे उसने साधना की हो या न की हो, अपने साथ ले जाते हैं, परन्तु उनके साथ वही जा सकता हैं, जो भाव से समर्पित शिष्य हो।
योगी विश्वेश्रवानंद
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श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी
MTYV Vishwa Vidyalaya For Admission
मंत्र तंत्र यन्त्र विज्ञानं विधालय में प्रवेश के लिएसभी साधक और साधिका को सूचित किया जाता है की आप सब के लिए MTYV Vishwa Vidyalaya whatApp ग्रुप बन गया है | जहा पर साधना को सिखने का एक नवीन अवसर मिल सकता है बहुत से साधक और साधिका के अनुरोध पर ये किया जा रहा है , जो नए साधक उन को लाभ मिलेगा और पुरने साधक एस ग्रुप से जुड़ कर आपना ज्ञान, ध्यान और चिन्तन को बड़ा सकते है | जो साधको को साधना में सफलता नहीं मिल रहा है उन के लिए बहुत ही उपयोगी होगा और एक नए उत्साह से हम साधना को सिख कर आपने जीवन को आगे ले सकेगे | ये ग्रुप पैसे कमाने के लिए नहीं बनाया जा रहा है | में सद्गुरु के प्रेरणा से ये सब करने का विचार कर रहा हूँ , ग्रुप मैं कुछ टीम वर्क होगा जो आप को सही से मार्ग दर्सन के साथ उचित सलाह दिया जा सकेगा जिस आप साधना में मिल रही असफलता को कम कर सकेगे और सद्गुरु के ज्ञान को बचने मैं सहयोग के साथ खुद भी नवीन चेतना धारण कर शिष्य बन सकेगे |
तंत्र में किसी कि सहायता कर देना सरल नहीं होता है उसे पग पग पर मुसीबतों का सामना करना पड़ता है ।
एक प्रकार से शिव की तरह जहर पीना पड़ता है ।
सॉर्ट कट नहीं किसी भी चीज़ का तंत्र के क्षेत्र में फिर भी गुरु किरपा हो और अटूट प्रेम श्रद्धा विस्वास है सब संभव है ?
गुरु प्रेम नाम के हीरे मोती मैं बिखराऊ गली~ गली , है कोई गुरु चाहने वाला शोर मचाऊ गली~ गली '' लेकिन मेरी आवाज़ को कोई नहीं सुनता ,
गुरु और प्रेम की सारी विधियाँ , सारे नियम , सारे सिद्धांत , सारी साधना साधक की चेतना के विस्तार के लिए है ! साधना का एक अर्थ चेतना का विस्तार भी है जब तक साधक मूर्छा ( अज्ञानी ) में है तब तक उसकी चेतना का विस्तार संभव नहीं है ! गुरु के सारे उपक्रम इसी मूर्छा को दूर करने के लिए हैं ! गुरु दीक्षा द्वारा शक्तिपात के द्वारा ,साधना के द्वारा कुंडलिनी जागरण के द्वारा दूर करने का प्रयत्न करता है ! साधक को अज्ञान से बाहर निकलता है ! सचमुच गुरु और प्रेम बड़ा ही अद्भुत शास्त्र है ! जितना सीखो उतना कम है ! प्रत्येक साधक यह सोचता है विचारों का संग्रह ही ज्ञान है ! पुस्तकों में हम जो कुछ भी पड़ते हैं वह सब दूसरों के विचार हैं ,ज्ञान नहीं, विचारों के संग्रह से हम कभी भी ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते हैं ! ज्ञान आता है मिलकर बैठने से , ज्ञान आता है आत्मा से , ज्ञान आता है गुरु के वचनों से , ज्ञान आता है स्तरिये पुस्तकों से ,स्मरण रखें ज्ञान हमारी संपत्ति है और विचार दूसरों की सम्पति है !ज्ञान वास्तव मैं आत्मा की ऊर्जा है ! पुरुष कहो या साधक कहो के शरीर मैं श्वेत बिंदु के रूप में शिव और स्त्री कहो साधिका कहो या भैरवी कहो के शरीर में रक्त बिंदु के रूप मैं शक्ति का निवास है ! आपको यह जानकार बेहद आश्चर्य होगा कि बिंदु साधना का ही दूसरा नाम कुंडलिनी साधना है ! दोनों की जड़ में एक ही सिद्धांत , एक ही नियम और एक ही लक्ष्य है ! जैसे वैदिक युग में बिंदु साधना का प्रभाव था ठीक उसी प्रकार तंत्र युग में कुण्डलिनी साधना का प्रभाव था !जब भी गुरु कहीं लेकर चलते हैं ,या किसी गोपनीय साधना के लिए बुलाते हैं तो साधक को यही कहना चाहिए ~ गुरुवर आप बुलाएँ हम ना आयें ऐसे तो हालात ( स्थिती ) नहीं ! कभी न कभी सफल हो जाओगे ...........
जिसे सफलता का और असफलता का अंतर पता है और जो भुतक्भोगी है | में उन की सहायता करना चाहता हूँ जो साधक एस ग्रुप से जुड़ना चाहते है | आप एस विद्यालय में प्रवेश ले कर के अध्यन करे |
ग्रुप और कुछ नियम।
साधक /साधिका जैसा की हम अपनी पिछली पोस्ट में बता चुके है , की एक नविन विद्यालय ग्रुप का निर्माण हो रहा है। जो पूर्ण रूप से गोपनीय होगा। उससे सम्बंधित नियम यहाँ दिए जा रहे है। ध्यानपूर्वक अध्ययन करे।
Monday, March 2, 2015
यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे The challenge now, then when wake up, not even wake up ?
यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे
बहुत मुश्किल हैं, अपने आपकी जज्ब करना और बढ़ते हुए पारे को रोक कर नियंत्रित करना, मैं ब्राह्मण पुत्र हूँ और विनम्रतापूर्वक मुझे गर्व हैं, कि मेरी धमनियों में वशिष्ठ, विश्वामित्र, कणाद और पुलत्स्य जैसे ऋषि मुदगल का रक्त बह रहा हैं, मंत्रों और तंत्रों के चरणों में मैंने अपनी शानदार जवानी को समर्पित कर दिया हैं. जो उम्र मौज, शौक, आनंद और प्रसन्नता की होती हैं, वह उम्र मैंने हिमालय की कंटकाकीर्ण पगडंडियों पर विचरण करते हुए बितायी हैं, जो उम्र मखमली गद्दों पर सोने की होती हैं, उस उम्र में मैं अपनी पीठ के नीचे उबड़ खाबड़ पहाडों की चट्टानें रख कर सोया हूँ और जो उम्र नवोढ़ा दर्शन में व्यतीत होती हैं, वह उम्र मैंने जर्जर वृद्ध और सूखे हुए सन्यासियों के चरणों में व्यतीत की हैं. पर मुझे इस बात का अफ़सोस नहीं हैं, आज जब इस जीवन यात्रा के पथ पर एक क्षण रूक कर पीछे की और मुड़कर नापे हुए, रस्ते को देखता हूँ तो मुझे अपने आप पर गर्व होता हैं, कि मैंने उस रास्ते पर पैर बढाये हैं, जिस पर कंकर पत्थर कांटे और शूलों के अलावा कुछ भी नहीं हैं. मैं उन हिंसक सामाजिक भेड़ियों के बीच में से बढ़ता हुआ इस जगह तक पहुँचा हूँ जहाँ तक पहुचने के लिए जिंदगी को दांव पर लगाना पड़ता हैं, बिना जिजीविषा के यह रास्ता पार करना सम्भव नहीं. यहाँ पग-पग पर आलोचना, झूठे आक्षेप और प्रताड़ना के अलावा कुछ भी नहीं. ये दिखावटी भेड़िये हैं और इनके दांतों में निंदा रुपी मांस के टुकड़े अटके पड़े हैं, इस मांसों के टुकडों को कुतरने और इन हड्डियों को चबाने में इन्होने अपनी जिंदगी की पूर्णता समझी हैं, जिसका जैसा आत्म होता हैं, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता हैं, सैकड़ों वर्षों से इनका प्रयत्न यही रहा हैं कि रास्ते पर बढ़ने वाले पुरूष को खिंच कर अपनी जमात में मिला लिया जाए, उन्हें भी वही सब कुछ करने का ज्ञान दिया जायें, जो वह करते आ रहे हैं. और मैंने जिंदगी के इस पड़ाव पर एक क्षण के लिए ठहर कर चिंतन किया हैं, तो मेरी झोली में उपलब्धियां ही उपलब्धियां हैं. जब समाज मुग़लों और अंग्रेजों की दासता के नीचे छटपटा रहा था, तब मैंने स्वतन्त्रता के दीपक को जितना भी हो सकें जलाये रखने और अंधड़ तूफ़ान से बचाए रखने का प्रयत्न किया हैं, मैंने गुलामी के अन्धकार को अपनी नंगी आंखों से देखा हैं, अपनी जवानी में मैंने भारत-पाकिस्तान के समय मनुष्य की पाशविकता को अनुभव किया हैं, आधी रात को उन धर्मान्धियों के द्वारा मारे गए मनुष्यों की लाशों पर पाँव रखते हुए बाहर आने के लिए प्रयत्न किया हैं, मैंने वह सब अपनी इन आंखों से देखा हैं, उस दर्द को भोगा हैं, मैंने अपने देवता स्वरुप मित्रों को इन हत्यारों के हाथों कुचलते हुए अनुभव किया हैं. मैं इस दर्द का साक्षी हूँ, और मेरे सारे शरीर के दर्द अभी भी कभी-कभी कचोट मार लेता हैं. और मैंने उन भगवे कपड़े पहिने हुए सन्यासियों को देखा हैं, जो धार्मिक स्थानों पर या जंगलों में चमकीले कपड़े पहिने हुए अपने आपको पुजवाते हुए, ख़ुद के ही ललाट पर सिंदूर लगा कर बैठे हुए देखा हैं. मैंने इनके अन्दर झांक कर अनुभव किया हैं कि केवल ढोंग, पाखंड और छल के अलावा इसके पास कोई पूँजी नहीं हैं, भारतीय आप्त वाणी को भुनाते हुए ये गली कुचों में भटकने वाले भिक्षुओं से भी गए गुजरे हैं, और इनके छल, इनके झूठ और इनके पाखंड के दर्द को मैंने जहर की तरह गले के नीचे उतारा हैं, और भोगा हैं. बड़े-बड़े आश्रमों के ठेठ अन्दर अपने आपको छिपा कर कभी-कभी दर्शन देने वाले इन हथकण्डे बाज सन्यासियों को भी देखा हैं, जिनके पास थोथी बाजीगरी और लफ्फाजी का व्यापार हैं, और यह सब देखकर मेरे शरीर का पारा निश्चित रूप से इतना अधिक बढ़ जाता हैं कि कई बार मुझे अपने आप पर शर्म आने लगती थी कि मैं इन लोगों जैसे ही कपडे पहने हुए हूँ. पर इस अन्धकार में भी मुझे पच्चीस हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए, मुदगल ऋषि के शब्द कानों में बराबर झंकृत हो रहे थे कि अँधेरा पीने वाला ही प्रकाश दे सकता हैं और जो अपने गले में जहर उतरने की हिम्मत रखता हैं, वही नीलकंठ कहला सकता हैं और मैंने इस जहर को हजार-हजार बार पिया हैं, इस अंधेरे में हज़ार-हज़ार बार ठोकरे खायी हैं, पैर लहुलुहान हुए और मैं उस ऋषि की आप्त वाणी की डोर के सहारे बराबर बढ़ता रहा हूँ, कि यदि सूर्य उगने तक मेरी जिंदगी का यह दीपक जलता रहा, तो मैं अवश्य ही उतनी रौशनी तो करता ही रहूँगा, जितनी कि घटाटोप अन्धकार में भारत वर्ष की आँखों को दिखाई दे सकने वाली सामर्थ्य दी जा सकें. और इस अंधकार का पार करते-करते मेरे जिंदगी के सुनहरे दिन समाप्त हो गए, यौवन का आनद पत्थरों से ठोकरे खा खा कर विलुप्त हो गया. आंखों के सुनहरे स्वप्न जंगलों की झड़बेरियों में उलझ कर रह गए, परिवार छुट गया, घर बार छुट गया, जवानी और मस्ती छुट गई, पर इन सबसे परे मुझे वह सब कुछ प्राप्त हुआ, जो हमारे पूर्वजों की धरोहर हैं, उन पूर्वजों ने उन कणाद, पुलस्त्य, अत्रि और मुदगल ने जो कुछ थाती हमें सौंपी थी, हमारे कायर पूर्वजों ने उस थाती को भोज पत्रों और ताड़ पत्रों में छुपा निश्चिंत हो गए थे कि हमने फ़र्ज़ पूरा कर लिया, पर आने वाली पीढियों ने उन लोगों को न माफ़ करने वाली चुन-चुन कर ऐसी गालियाँ दी कि वे पीढियां ही काल के गर्भ में समाप्त हो गई, उनके नाम का भी अस्तित्व नहीं रहा, निश्चय ही शंकराचार्य और गोरखनाथ ने उस दीपक में अपने शरीर को तेल की तरह बना कर डाला और उस दीपक को बचाए रखा, उन्होंने अपनी जिंदगी और जवानी को दांव पर लगाकर उस बुझते हुए दीपक को संरक्षण देने का कार्य किया, और फ़िर कुछ उजाला फैला, कुछ समय के लिए फ़िर कुछ रोशनी हुयी, कुछ क्षणों के लिए ही सही, पर फ़िर कुछ साफ-साफ़ दिखाई देने लगा. पर बाद में एक ही झपट्टे में वह रौशनी मद्धिम पड़ गई. फ़िर हमारी पीढ़ियाँ शेर और शायरी में खो गई फ़िर हमारी जवानी घुन्घुरुओं की रुनझुन में सार्थकता अनुभव करने लगी और फ़िर उस दीपक पर अन्धकार के इतने मोटे-मोटे परदे टांग दिए गए कि दीपक का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया. हमारी पीढी को तो यह एहसास ही नहीं रहा कि हमारे पूर्वजों में वशिष्ठ और विश्वामित्र थे. उन्हें गौत्र शब्द का उच्चारण ही याद नहीं रहा, केवल विवाह के समय ब्राह्मण उनके गौत्र का उच्चारण कर भूले भटके उन ऋषियों में से एक का नाम उच्चारण कर लेता, और हम अजनबियों की तरह चौक उठते कि ग़ालिब, मीर, मिल्टन, और शैक्सपियर जैसे परिचित नामों में इस ब्राह्मण ने यह किस नाम का उच्चारण कर दिया, और फिर अपने आपको समझाकर गौरवान्वित हो जाते हैं कि यह एक जल्दी कराने वाले ब्राह्मण के मंत्रों का ही कोई एक भाग होगा. और पूरे पच्चीस हज़ार वर्षों में अंग्रेजो ने पहली बार हमारे खून को टेक्नोलॉजी के नाम पर ठंडा कर दिया, पश्चिम के ज्ञान ने हम को अपने ही देश में अजनबी बना दिया. हमें जेम्स, स्टुअर्ट, विक्टोरिया जैसे नाम ज्यादा परिचित अनुभव लगे, इंग्लैंड का इतिहास हमारी जिंदगी के ज्यादा निकट रहा और हमारे पाँव राजमार्ग से परे हट कर जिस अस्पष्ट पगडण्डी पर चढ़ रहे थे, वह पगडण्डी भी पैरों से छीन गई, और हम उस उजाड़ जंगल में आगे बढ़ने में ही गौरवशाली अनुभव करने लगे, जिसका कोई अंत नहीं था. और यह सब कुछ हमारे रक्त में मिल गया, हमारे चेहरे बदल गए, हमारी आंखों में अंग्रेजियत झलकने लगी, सिर पर हैट और गले में टाई बाँध कर शीशे में अपने आपको देखने का अभ्यास करने लगे और जब आँखें दीवारों पर टंगे माँ बाप या पूर्वजों के चित्रों पर अटकती तो विश्वास ना होता था, कि हम इनकी संतान हैं, मन के किसी कोने में आवाज़ उठती थी कि इस ड्राइंग रूम में इन फूहड़ और असभ्य लोगों के चित्र टांगना उचित नहीं और वे चित्र उठाकर फेंक देने में मन के किसी कोने में संतोष उभरता, कि हम बहुत कुछ हैं. और इसी खून ने हमें कुछ महाज्ञान भी दिया और यह महाज्ञान था, पूजा पाठ क्या होता हैं, देवताओं के दर्शन करना दकियानूसी हैं, मंत्र तंत्र ढोंग और पाखण्ड हैं, जब इनके कथाकथित माँ बाप अंग्रेज चर्च में घुटने टेक कर ईसा को स्मरण कर रहे होते तब हम घर में पड़ी हुयी देवताओं की मूर्तियों को पिछवाडे घूढ़े के ढेर पर फेंकते होते, जब वे पादरियों के वचनों को घूँट-घूँट पी रहे होते तब हम ब्राहमणों और सन्यासियों का मजाक उड़कर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे होते, जब वे बाईबिल को अपने सिर से लगा रहे होते, तब हम गीता और रामायण को ठोकर मारकर फेंकने में सभ्यता की पूर्णता अनुभव कर रहे होते, यह हमारी पीढ़ी का इतिहास हैं, और हमने यही कुछ प्राप्त किया हैं, इन सबसे मेरे कलेजे पर हजारों फफोले पड़े हैं, मेरी मृत्यु के बाद चिता पर आकर कोई भी मेरे नंगे सीने को उधेड़ कर देख सकता हैं, कि उस पर इतने अधिक जख्म लगे हैं, कि अब कोई नया जख्म लगने के लिए जगह बाकी ही नहीं बची हैं. और ऐसे ही कायर और गुलाम माँ बाप की संतानों ने दो चार शब्द रट रखे हैं, कि पत्रिका को साईंटिफीक तरीके से निकलना चाहिए, मंत्रों तंत्रों में कुछ नई टेकनिक लेनी चाहिए, योग और मंत्रों का साईंटिफीक बेस प्रस्तुत करना चाहिए, मैं तो कह रहा हूँ कि मंत्रों तंत्रों को ही नहीं अपने माँ बाप के पुराने दकियानूसी नामों को भी बदल देना चाहिए, अपनी वृद्धा माँ को भी साईंटिफीक रूप सिखाना चाहिए, अपने वयोवृद्ध पिता को भी नई टेक्निक देनी चाहिए, क्योंकि बिना साईंटिफीक बेस के उनका आधार ही क्या हैं? और जब इनके ये शब्द सुनता हु तो मुझे दो हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए ईसा को सूली पर चढ़ाते समय उनके कहे वाक्य याद आ जाते हैं, कि :- “हे भगवान्! इन्हें माफ़ करना, क्योंकि ये जानते नहीं कि ये क्या कह रहे हैं.” सुश्रुत ने एक बार कहा था, कि सूखा और टूटा हुआ पत्ता हलकी हवा में उसी तरफ़ उड़ने लगता हैं, जिधर हवा बहती हैं, लेकिन गहरी जड़ों वाला वटवृक्ष तेज अंधड़ में भी एक से दूसरी तरफ़ झुकता हुआ भी उखाड़ता नहीं, जिनके पास अपने जड़े नहीं होती, वे केवल ओपन माइंडेड ही हो सकते हैं, इसके अलावा होंगे भी क्या? आप पश्चिम के किसी भी विद्वान् से पूछ लीजिये तो वह भी बता देगा कि हमारी विद्यायें और हमारी तकनीक हमारी स्वयं की जीवन पद्धति से निकली हैं, और उनके द्वारा ही हम अपनी और समाज की समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं, अब कोई लल्लू भी आपको यह बता देगा कि भारतीय जीवन पद्धति अमेरिका या यूरोप की जीवन पद्धति से अलग हैं, यूरोपीय विद्याओं और तकनीक में ऐसा सर्वकालिक कुछ भी नहीं हैं, जो किसी भी परिस्थिति में सच हो, जबकि भारतीय चिंतन और दर्शन बीस हज़ार वर्ष पहले भी उतना ही सच था, जितना आज हैं, यहाँ पर मुझे पश्चिम के वैज्ञानिक सुमाकर की उक्ति याद आती हैं, जो उसने किसी भारतीय को कही थी :- “हे वत्स! पश्चिम के मोडल और टेक्नोलॉजी के पीछे पड़े हुए तुम लोगों पर इसीलिए तरस आता हैं, कि तुम अपनी प्रतिभा, शक्ति, समय और पैसा उन समस्याओं के समाधान में बरबाद कर रहे हो जो तुम्हारे समाज की नहीं, मेरे समाज की हैं.” जब आप अपनी चाबी किसी अनजान ताले में लगा कर उसे खोलने की कोशिश करेंगे तो आप ताला तो बिगडेगा ही, उसके साथ ही साथ कुंजी भी, हमने अभी तक यही किया हैं, हमने अपने जीवन और समाज के बंद पड़े तालों को उन चाबियों से खोलने की कोशिश की हैं, जो उनके लिए बनी ही नहीं हैं और इसीलिए हम पिछले सैकड़ों वर्षों से अपने तालों और चाबियों को ख़राब ही कर रहे हैं. हम हैं, और बहुत कुछ हैं, इसका प्रमाण पत्र लेने के लिए किसी दफ्तर में जाने की जरुरत नहीं, हम मृत्युंजयी संस्कृति के देश के बाशिंदे हैं, हमें बाहर से उच्च तकनीक को गले नहीं लगाना हैं, अपितु अन्दर से अपने सत्य का साक्षात्कार करना हैं, और यह हम स्वयं होकर ही कर सकते हैं, अपने मंत्रों के मध्यम से ही अपने योग और दर्शन के द्वारा ही अपनी जिंदगी को पूर्णता दे सकते हैं, हम विविध साधनाओं के द्वारा ही शरीर की धमनियों में बहते हुए, अशुद्ध रक्त को शुद्ध कर सकते हैं, और यह शुद्ध रक्त ही हमारे चेहरे पर पुनः भारतीयता दे सकेगा, हमारी आँखें वापिस अपने आपको पहिचानने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकेगी, और इन विशिष्ट साधनाओं में भाग लेकर ही हम उस आत्म से साक्षात्कार कर सकेंगे जो हमारा स्वयं का आत्म हैं. और जब ऐसा हो सकेगा, तभी हम अपने आपको पहिचान सकेंगे, तभी हम कूड़े के ढेर पर पड़े हुए अपने माँ बाप के चित्रों को पौंछ कर ड्राइंग रूम में लगाने में गौरव अनुभव कर सकेंगे, तभी हम अपने आत्म को जगाकर इष्ट के साक्षात् जाज्वल्यमान दर्शन कर सकेंगे, जो कि हमारे जीवन की पूर्णता हैं, और तभी मैं एहसास कर सकूँगा कि मेरे पांवों में गडे हुए लांखों कांटे और सीने में उठे हुए फफौले राहत दे रहे हैं, कि मुझे विश्वास हैं ऐसा होगा ही, और इसी सत्य को प्रदान करने की कामना लिए हुए, मैं अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हूँ, और बराबर जीवन की अन्तिम साँस तक अग्रसर बना रहूँगा. -परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज. (सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी)
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान अप्रैल 2001
Shunya Siddhi शुन्य सिद्धि (शून्य से पदार्थ प्राप्ति की साधना)
Shunya Siddhi शुन्य सिद्धि (शून्य से पदार्थ प्राप्ति की साधना)
नवरात्री में ये साधना करने से सफलता मिल जाता है |
ॐ अस्य श्री विन्ध्याबसिनी महा लक्ष्मी अष्टाक्षर मन्त्रस्य श्री सदाशिव ऋषि: पंक्तिचंद , श्री महालक्ष्मी देवता ,ह्रीं बीजं , ओम शक्ति ,चतुर्बर्गा सिद्धये जापे बिनियोग:||
ऋष्यादिन्यास :::::::>
श्री सदाशिव ऋषि: नमः शिरसि ,पंक्तिचंदसे नमः मुखे,
बिशालाक्षी-श्रीमहालक्ष्मी-देव्तार्य नमः हृदि ,
ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये ,
ओम शक्तये नमः पादयो: ,
चतुर्बर्ग सिद्धाश्रयऐ जापे बिनियोगे नमः सर्बांगे||
ध्यायेद देवी बिशालाक्षी तप्त - जाम्बू - नद प्रभां, द्विभुजम्बिकाम चंडी खडक खर्पर धारिनिम् ||
नानालकार - सुभगाम रक्ताम्बरम धरां शुभां , सदा षोडश बर्षीयाम प्रसन्नास्याम त्रिलोचानम् ||
मुंड मालवली रम्यां पिनोब्नत - पयोधाराम् , बर -दातां महा - देवी जता - मुकुट मन्दिताम् ||
शत्रु क्षयांकारी देवी साधाकाभिस्ट - दायिकाम् ,सर्ब - सौभाग्य - जननीम् महासम्त्प्रदाम् - स्मरेत ||
इसके बाद मोल मंत्र का जाप करे , और नित्य २१ माला जाप करे , इस कार्य में लगभग २ घंटे लगते है .
मंत्र : - ॐ ह्रीं काली महाकाली महाकाली किले किले फट स्वाहा ..
यह मात्र ५ दिन की साधना है .
हकिक माला से या फिर स्फटिक माला से यह मंत्र जाप किये जा सकते है . जिनके पास सर्पस्तियों की माला हो उपयोग में ला सकते है .सामने शून्य सिद्ध यन्त्र पर नज़र रखके मंत्र जाप करे . यह साधना समाप्त हो जाए तब सवा किलो आटा , तिन पाव गुर , तथा एक पाव घी मिलाकर हलवा बनालें ,और किसी मिटटी की बर्तन में यह हलवा रख दें | उस पर ४ दिए जला दें और उन ४ रो दियो के पास पास लाल मिर्च , पांच कोयले के तुकरे तथा पांच लोहे की किले रख दें | साधक रात्रि में जहा ३ रास्ते या ४ रास्ते मिलते हों वहा रख दें , लौटने वक्त पीछे मुरकर न देखे |घर आकार स्नान कर लें || ऐसा करने से शून्य से पदार्थ प्राप्ति की साधना पूरी हों जाती है ||
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Shunya Siddhi शुन्य सिद्धि
क्रोध त्याग अवश्य करें ! Anger must sacrifice!
क्रोध क्या है?
क्रोध...या गुस्सा एक भावना है। दैहिक स्तर पर क्रोध करने/होने पर हृदय की गति बढ़ जाती है; रक्त चाँप बढ़ जाता है। क्रोध एक आम, स्वस्थ मनोभाव है, किन्तु जब यह हमारे बस के बाहर हो जाता है तब यह विनाशकारी हो जाता है,
क्रोध...या गुस्सा एक भावना है। दैहिक स्तर पर क्रोध करने/होने पर हृदय की गति बढ़ जाती है; रक्त चाँप बढ़ जाता है। क्रोध एक आम, स्वस्थ मनोभाव है, किन्तु जब यह हमारे बस के बाहर हो जाता है तब यह विनाशकारी हो जाता है,
गुस्से और क्रोध में क्या फर्क है?
क्रोध उसे कहेंगे, जो अहंकार सहित हो। गुस्सा और अहंकार दोनों मिले, तब क्रोध कहलाता हैं जो घृणा करता है, वह घृणा उत्तर में पाता है। जो क्रोध करता है, वह क्रोध को पैदा करता है। जो वैर करता है, वह वैर को जन्म देता है। और इस श़ृंखला का कोई अंत नहीं है। और इसमें केवल शक्ति ही व्यय हो सकती है।
क्रोध पर विजय पाना क्यों जरूरी है? क्रोध के आने के कारण क्या-क्या हैं। क्रोध से होने वाली हानियां क्या-क्या है,?
1- क्रोध को जीतने में मौन सबसे अधिक सहायक है।
2- मूर्ख मनुष्य क्रोध को जोर-शोर से प्रकट करता है, किंतु
बुद्धिमान शांति से उसे वश में करता है।
3- क्रोध करने का मतलब है,
दूसरों की गलतियों कि सजा स्वयं को देना।
4- जब क्रोध आए तो उसके परिणाम पर विचार करो।
5- क्रोध से धनी व्यक्ति घृणा और निर्धन तिरस्कार
का पात्र होता है।
6- क्रोध मूर्खता से प्रारम्भ और पश्चाताप पर खत्म होता है।
7- क्रोध के सिंहासनासीन होने पर बुद्धि वहां से खिसक
जाती है।
8- जो मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप में नहीं कह सकता,
उसी को क्रोध अधिक आता है।
9- क्रोध मस्तिष्क के दीपक को बुझा देता है। अतः हमें सदैव
शांत व स्थिरचित्त रहना चाहिए।
10- क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत
हो जाती है, स्मृति भ्रांत हो जाने से बुद्धि का नाश
हो जाता है और बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं नष्ट
हो जाता है।
11- क्रोध यमराज है।
12- क्रोध एक प्रकार का क्षणिक पागलपन है।
13-क्रोध में की गयी बातें अक्सर अंत में उलटी निकलती हैं।
14- जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं करता और
क्षमा करता है वह अपनी और क्रोध करने वाले की महासंकट
से रक्षा करता है।
15- सुबह से शाम तक काम करके
आदमी उतना नहीं थकता जितना क्रोध या चिन्ता से पल
भर में थक जाता है।
16- क्रोध में हो तो बोलने से पहले दस तक गिनो, अगर
ज़्यादा क्रोध में तो सौ तक।
17- क्रोध क्या हैं ? क्रोध भयावह हैं, क्रोध भयंकर हैं, क्रोध
बहरा हैं, क्रोध गूंगा हैं, क्रोध विकलांग है।
18- क्रोध की फुफकार अहं पर चोट लगने से उठती है।
19- क्रोध करना पागलपन हैं, जिससे सत्संकल्पो का विनाश
होता है।
20- क्रोध में विवेक नष्ट हो जाता है।
1- क्रोध को जीतने में मौन सबसे अधिक सहायक है।
2- मूर्ख मनुष्य क्रोध को जोर-शोर से प्रकट करता है, किंतु
बुद्धिमान शांति से उसे वश में करता है।
3- क्रोध करने का मतलब है,
दूसरों की गलतियों कि सजा स्वयं को देना।
4- जब क्रोध आए तो उसके परिणाम पर विचार करो।
5- क्रोध से धनी व्यक्ति घृणा और निर्धन तिरस्कार
का पात्र होता है।
6- क्रोध मूर्खता से प्रारम्भ और पश्चाताप पर खत्म होता है।
7- क्रोध के सिंहासनासीन होने पर बुद्धि वहां से खिसक
जाती है।
8- जो मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप में नहीं कह सकता,
उसी को क्रोध अधिक आता है।
9- क्रोध मस्तिष्क के दीपक को बुझा देता है। अतः हमें सदैव
शांत व स्थिरचित्त रहना चाहिए।
10- क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत
हो जाती है, स्मृति भ्रांत हो जाने से बुद्धि का नाश
हो जाता है और बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं नष्ट
हो जाता है।
11- क्रोध यमराज है।
12- क्रोध एक प्रकार का क्षणिक पागलपन है।
13-क्रोध में की गयी बातें अक्सर अंत में उलटी निकलती हैं।
14- जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं करता और
क्षमा करता है वह अपनी और क्रोध करने वाले की महासंकट
से रक्षा करता है।
15- सुबह से शाम तक काम करके
आदमी उतना नहीं थकता जितना क्रोध या चिन्ता से पल
भर में थक जाता है।
16- क्रोध में हो तो बोलने से पहले दस तक गिनो, अगर
ज़्यादा क्रोध में तो सौ तक।
17- क्रोध क्या हैं ? क्रोध भयावह हैं, क्रोध भयंकर हैं, क्रोध
बहरा हैं, क्रोध गूंगा हैं, क्रोध विकलांग है।
18- क्रोध की फुफकार अहं पर चोट लगने से उठती है।
19- क्रोध करना पागलपन हैं, जिससे सत्संकल्पो का विनाश
होता है।
20- क्रोध में विवेक नष्ट हो जाता है।
मनोविकारों पर विजय प्राप्त करने के लिए सबसे पहले उनके बारे में पूरी समझ का होना जरूरी है। बिना गहरी समझ के किसी भी दोष (विकार) पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करना सहज सम्भव नहीं होता। क्रोध विकार पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिए हमें यह जानना होगा कि क्रोध क्या है? क्रोध पर विजय पाना क्यों जरूरी है? क्रोध के आने के कारण क्या-क्या हैं। क्रोध से होने वाली हानियां क्या-क्या है,? क्रोध पर विजय प्राप्त करने के लिए उपाय क्या-क्या हैं?
क्रोध क्या है?
क्रोध और कुछ नहीं अपितु एक नकारात्मक भाव है। मानसिक पटल पर उभरी हुई किसी क्रिया की यह आक्रामक प्रतिक्रिया मात्र है। इस प्रतिक्रिया के कारण शरीर के समूचे स्नायविक तन्त्र (नर्वस सिस्टम) में आक्रामक भाव की तरंगें पैदा हो जाती हैं। यह प्रतिक्रिया अपने स्व के अस्तित्व की पूर्णतः विस्मृति की अवस्था में होती है। यह पूरी तरह बहिर्मुखी चेतना होती है। बहिर्मुखी वृत्ति ंिहंसात्मक होती है। बहिर्मुखी आत्म से अंहिसा की आशा नहीं की जा सकती। क्रोध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा ही है। इस मानसिक अवस्था में आत्मा की बुद्धि किसी घटना, परिस्थिति, व्यक्ति या विचार से अत्यन्त सम्बन्द्ध हो जाती है। इसलिए बुद्धि की निर्णय शक्ति समाप्त हो जाती है। शरीर की सभी मुद्राऐं हिंसात्मक अर्थात् आक्रामक हो जाती हैं। मनोविज्ञान के अनुसार यह प्रतिक्रिया (क्रोध) अपनी तीव्रता या मंदता की अवस्था की हो सकती है।
क्रोध से हानियां
क्रोध के प्रभाव से शरीर की अन्तःश्रावी प्रणाली पर बुरा असर पड़ता है। क्रोध से रोग प्रतिकारक शक्ति कम हो जाती है। हार्ट एटैक, सिर दर्द, कमर दर्द, मानसिक असन्तुलन जैसी अनेक प्रकार की बीमारियां पैदा हो जाती हैं। परिवार में कलह-क्लेश मारपीट होने से नारकीय वातावरण हो जाता है। सम्बन्ध विच्छेद हो जाते हैं। जीवन संघर्षों से भर जाता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व (चरित्र) खराब हो जाता है। क्रोध से शारीरिक व मानसिक रूप से अनेक प्रकार की हानियां ही हानियां हैं।
क्रोध के कारण
क्रोध के कारण क्या-क्या हो सकते हैं? जैसेः- जब कोई व्यक्ति इच्छा पूर्ति में बाधा डाले या असहयोग करे, तब होने वाली प्रतिक्रिया ही क्रोध का रूप होती है। यदि कोई व्यक्ति अधिक समय तक चिन्ताग्रस्त रहे, तब भी वह मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाता है। इस के कारण छोटी-छोटी बातों में क्रोध आता है। आहार का हमारे विचारों पर बहुत असर पड़ता है। जैसा आहार, वैसा विचार। तामसिक और राजसिक आहार का सेवन करने से शारीरिक रासायनों का सन्तुलन बिगड़ता है। हारमोन्स का प्रभाव असन्तुलित हो जाता है। इसका मस्तिश्क पर बुरा असर पड़ता है। प्रकृति के नेगेटिव ऊर्जा के प्रभाव के कारण विचार ज्यादा चलने लगते हैं। अनियंत्रित मानसिक स्थिति में क्रोध के शीघ्र आने की सम्भावनाएं बढ़ जाती है। नींद कुदरत का वरदान है। नींद से ऊर्जा के क्षय की पूर्ति होती है। अन्तःश्रावी ग्रन्थियों से निकलने वाले हारमोन्स संतुलित रहते हैं। शरीर की सभी कोशिकाएं तरोताजा हो जाती हैं। यदि अनुचित आहार, चिन्ता या अन्य किसी भी कारण से नींद गहरी नहीं होती है, तब कोशिकाएं ऊर्जा वान नहीं रहती। ऐसी स्थिति में भी क्रोध आने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं। किसी भी ज्ञात या अज्ञात कारण से यदि शरीर से पित्त की वृद्धि हो जाती है, तब भी हारमोन्स असन्तुलित हो जाते हैं। यह राजसिक आहार के कारण भी हो सकता है। नेगेटिव दृष्टिकोण के कारण भी पित्त (एसिड) में वृद्धि हो सकती है। पित्त वृद्धि के कारण स्वभाव चिड़चिड़ा होने या क्रोध आने की सम्भावना बढ़ जाती है। अधिक समय से अस्वस्थ्य रहने से हाने वाली शारीरिक व मानसिक कमजोरी भी क्रोध आने का एक कारण बनती है। मैं ही ठीक हूं। मेरी बात ही ठीक है। यह अपनी बात मनवाने की मानसिकता क्रोध आने का कारण बनती है। जब हम दूसरों को जबरदस्ती कन्ट्रोल करना चाहते हैं। लेकिन कन्ट्रोल करने में असफल होते हैं तब क्रोध आने की सम्भावना रहती है। जब कोई झूठ बोलता है। इसने झूठ क्यों बोला? झूठ बोलने वाले पर गुस्सा आता है। झूठ को सहन नहीं कर सकने पर क्रोध आता है। न्याय न मिलने पर या अन्याय होने पर गुस्सा आता है। यदि व्यर्थ की टीका- टिप्पणी पसन्द नहीं है। कोई व्यर्थ ही टीका-टिप्पणी करता है, तब उस पर क्रोध आता है। कभी-कभी क्रोध ऐसे ही नहीं आता बल्कि हम पहले से ही अन्दर-अन्दर सोचकर प्रोग्रामिंग कर देते हैं। फलां आदमी ऐसे ऐसे कहेगा, तो मैं ऐसे ऐसे जवाब दूंगा। क्रोध पर विजय प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक और व्यवहारिक ज्ञान की बौद्धिक समझ के साथ साथ राजयोग के गहन अभ्यास का द्विआयामी पुरुषार्थ अनिवार्य है। आध्यात्मिक व व्यवहारिक बौद्धिक समझ:- इस विश्व नाटक में हर आत्मा का अपना अपना अविनाशी अभिनय है। वह अपना पार्ट ड्रामानुसार ठीक प्ले कर रही है। उसका सहयोग देना, न देना और अवरोध करना, वह इसमें भी स्वतन्त्र नहीं है। परतन्त्र परवश आत्मा के साथ क्रोध की प्रतिक्रिया का क्या औचित्य? स्वयं की शक्तियों को पहचान कर आत्मनिर्भरता में विश्वास करना चाहिए। अनावश्यक अपेक्षाओं को मन में नहीं पालना चाहिए। अपने चिन्तन को श्रेष्ठ बनायें। चिन्ता वे ही करतें है, जिनके जीवन में कोई परिस्थिति विशेष हो और जिन की गहरी समझ नहीं हो। आध्यात्मिक व्यक्तित्व की धनी आत्माएं कभी चिन्ता नहीं करती अपितु वे तो एकाग्र चिन्तन करती हैं। आध्यात्म के सैद्धान्तिक ज्ञान के मनन-मंथन से मानसिक विक्षिप्तता हो नहीं सकती। शरीर की आयु और कर्मयोगी जीवन की परि पक्वता के आधार पर नींद की आवश्यकता कम-ज्यादा होती है। आवश्यकता के अनुसार नींद का औसतन समय 5 से 6 घंटे हो सकता है। औसतन समय जो भी हो लेकिन एक बात का ध्यान रखना है कि नींद गहरी होनी चाहिए। इसके लिये काम और विश्राम (नींद) दोनों का सन्तुलन रखना चाहिए। शरीरिक या बौद्धिक कार्य की थकान के बाद गहरी नींद आ सकती है। नींद की जितनी गहराई बढ़ती है। उतनी ही लम्बाई घटती है। सामान्यतः एक कर्मयोगी को सात्विक आहार के सेवन के महत्व को समझ कर अपने आहार को सात्विक और सन्तुलित रखना चाहिए। ऐसे आहार का परित्याग कर देना चहिए जो रासायनिक प्रक्रिया के बाद तेजाब (ऐसिड) ज्यादा बनाता हो। आहार को सात्विक और सन्तुलित रख पित्त को बढ़ने नहीं देना चाहिए। दृष्टिकोण सदा पाॅजिटिव ही रखना चाहिए। अशुभ (नेगेटिव) शुभ का शत्रु न मानें। नेगेटिव तो पाॅजिटिव का अवरुद्ध है और कुछ नहीं। नकारात्कता, सकारात्मकाता की अनुपस्थिति है। समय प्रति समय अपनी शारीरिक जांच कराते रहना चाहिए। स्वयं की प्रकृति की पूरी समझ होना आवश्यक है। स्वयं को प्रकृति से अलग समझ प्रकृति के साथ सद्भाव सामंजस्य का भाव रखना चाहिए। व्यायाम आदि के द्वारा स्वयं को शारीरिक रूप से स्वस्थ रखना चाहिए। किसी एक ही बात को देखने समझने के अनेक दृष्टिकोण हो सकते हैं। किसी हद तक हर आदमी अपनी बात को ठीक समझ कर ही अपने दृष्टिकोण बनाता है। लेकिन यह जरूरी नहीं कि सभी दृष्टिकोण सदा ही ठीक या मान्य समझें जायें इसलिए दृश्टिकोण को ठीक ठहराने की जिद्द ना करते हुए स्वयं को शान्त रखना चाहिए। अपनी दृष्टि का कोण बदल समाधान की भाषा में सोचना चाहिए। यह याद रखना चाहिए कि झूठ के पैर नहीं होते। झूठ अधिक समय तक चल नहीं सकता। अन्तिम विजय सत्य की ही होती है। इस विश्व नाटक में अन्याय में भी कहीं ना कहीं न्याय छिपा होता है। वह दिखाई न देने पर भी कहीं न कहीं मौजूद रहता है। यह याद रखें कि ईश्वर के दरबार में देर हो सकती है लेकिन कभी अन्धेर नहीं होती। सांच को आंच नहीं के सिद्धांत पर अटल रहना चाहिए। किसी भी परिस्थिति में तुरन्त प्रतिक्रिया नहीं करने की आदत बना लेनी चाहिए। परिस्थिति विशेष में न कोई क्रिया और न प्रतिक्रिया की साक्षीपन की स्थिति के क्रोध आदि किसी भी मनोविकार पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। व्यवहार में आत्मीयता है, तो क्रोध की स्थिति ही पैदा नहीं होती। अपनेपन की भावना रख आपस में एक दूसरे को ठीक ठीक समझना चाहिए। अनुमान, शंका, संदेह से सदा दूर रहना चाहिए। पारस्परिक विचारों और भावनाओं का सम्प्रेशण सही समय पर सही व्यक्ति के साथ होना चाहिए। व्यर्थ और नकारात्मक भावनाओं को पनपनें ही नहीं देना चाहिए। किसी भी बात को ज्यादा गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए। बातों को हल्के रूप से लेकर उनका निरा-करण करना चाहिए।राजयोग के अभ्यास द्वारा अपने चिन्तन को यथार्थ और सकारात्मक बनायें। स्वयं से स्वयं की बातें करनी चाहिए।
मैं कौन हूं?
मेरा यथार्थ परिचय क्या है?
मैं किस स्थान पर हूं?
मेरे कर्तव्य क्या-क्या हैं?
मुझे करना क्या है?
अपनी महानताओं और सम्भावनाओं को याद करना चाहिए। अन्तर्मुखी होकर अपनी आध्यात्म जगत की महानताओं के चित्रांकन द्वारा उन्हें यथार्थ रूप से महसूस करना चाहिए। आत्म केन्द्रित हो अपनी आत्म ज्योति को अपने मस्तक सिंहासक भृकुटि में देखने को अभ्यास करना। इस अभ्यास को प्रातः व सायं कम से कम 6 महीने तक करना चाहिए। परमात्म ज्योति को देखने और उसके साथ भावनात्मक रूप से (कम्बाइन्ड) एकाकार होने का अभ्यास करना। यह अभ्यास भी प्रातः व सायं कम से कम 6 महीने तक करना चाहिए। आत्मा के मूल गुण पवित्रता का चिन्तन और अनुभूति का लक्ष्य रखकर राजयोग का अभ्यास करना। बुद्धि रूपी नेत्र से देखना कि पवित्रता की सफेद किरणें मेरे सिर के ऊपर से उतर रही हैं और मैं आत्मा शीतलता का अनुभव कर रही/रहा हूं। कम से कम 6 महीने दिन में 4 बार अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार यथार्थ बौद्धिक समझ और राजयोग के विधि पूर्वक अभ्यास के द्वारा क्रोध पर सम्पूर्ण विजय सम्भव है।
अघोर शिव साधना Aghor Shiv Sadhana
अघोर शिव साधना
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कितना भी लिखने का प्रयास करू परंतु मेरे इष्ट शिव जी का स्तुति मेरे लिये संभव नहीं,क्यूके उनका हर रूप निराला है उनकी पुजा किसी भी समय कीजिये अनुभूतिया तो येसा-येसा मिलेगा के सम्पूर्ण जीवन उनके गुण-गान गाने मे ही निकल जायेगा ,येसा समय आज तक शिवभक्तों के जीवन मे नहीं आया होगा जिस दिन उन्हे शिव कृपा प्राप्त ना हुआ हो,आज एक दिव्य साधना दे रहा हु जो मेरा ही बल्कि बहोत से शिव भक्तो का अनुभूतित साधना है और एक बात इस साधना को किए बिना चाहे कितना भी महाविद्या साधना कर लीजिये प्रत्यक्ष अनुभूतिया शीघ्र नहीं मिलेगा,इसलिये “अघोर शिव साधना” प्रत्येक साधक के जीवन मे लक्ष्य प्राप्ति के और बढ़ने का एक आसान सा मार्ग है,जिसने अघोरत्व प्राप्त कर लिया वह तो जीवन मे सब कुछ प्राप्त कर लेता है अन्यथा जीवन जीने का हर एक अंदाज व्यर्थ ही इच्छा पूर्ति हेतु गमा देता है॰इस साधना से सभी प्रकार के ग्रह दोषो से मुक्ति मिलता है,सभी साधना मे पूर्ण सफलता है,सभी प्रकार के तंत्र से रक्षा प्राप्त होता है अगर पुराना कोई मंत्र-तंत्र दोष किसी साधक के जीवन मे हो चाहे वह इस जन्म का हो या पूर्वजन्म को हो तो समाप्त हो जाता है,चाहे साबर मंत्र हो,वैदिक हो या अघोर मंत्र हो इनमे इस साधना को सम्पन्न करने के पच्छात पूर्ण सफलता मिलता है,साधना के समय शरीर मेबहोत ज्यादा गर्मी महसूस होगी येसे समय मेघबराना मत और साधना को अधूरा नहीं छोड़ना है,येसे समय मे दुर्गंध या डरावना आवाज आ सकता है तो यह आपका साधना सफलता है जिसे आपको महसूस करना है,इस साधना के माध्यम से भोले बाबा भक्तो को स्वप्न मे दर्शन भी प्रदान
करते है और आशीर्वाद भी..............
प्रार्थना:-
जय शम्भो विभो अघोरेश्वर स्वयंभो जय शंकर ।
जयेश्वर जयेशान जय जय सर्वज्ञ कामदं ॥
मंत्र-
॥ ॐ ह्रां ह्रीं हूं अघोरेभ्यो सर्व सिद्धिं देही देही अघोरेश्वराय हूं ह्रीं ह्रां ॐ फट ॥
11 माला रुद्राक्ष या काले हकीक से जाप करना है.........
इशान्य दिशा के और मुख हो,आसान-वस्त्र काले रंग के उत्तम होते है परंतु आपके पास जो भी हो उसे ही इस्तेमाल करे,माला रुद्राक्ष या काले हकीक का हो,पारद शिवलिंग हो तो ठीक है या फिर जो भी शिवलिंग हो ...
का पूजन आप करते है उसी पर साधना सम्पन्न करे,साधना से पूर्व गुरु गणेश पूजन करे और लोहे के कील से अपने आसन को गोल-गोल “ॐ रं अग्नि-प्रकाराय नम:” मंत्र बोलकर घेरा बनाये,जिससे आपका अदृश्य शक्ति से रक्षा हो,माथे पर महामृत्युंजय मंत्र बोलकर बस्म+चन्दन से तिलक करिये,साधना समाप्ती के बाद पाच बिल्वपत्र +दुग्ध युक्त जल,अक्षत (चावल),गंध,वस्त्र,पुष्प,लड्डू का भोग,दक्षिणा मुख्य मंत्र बोलकर चढ़ाये,इस साधना मे 11 माला मंत्र जाप करना है,साधना एक दिवसीय है परंतु तीन दिन तक करने का प्रयास कीजिये ताकि सर्व कार्य किस समस्या के पूर्ण हो सके॰आपको भोले बाबा का आशीर्वाद प्राप्त हो
यही कामना करता हु.........
श्री सदगुरुजीचरनार्पणमस्तू...
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कितना भी लिखने का प्रयास करू परंतु मेरे इष्ट शिव जी का स्तुति मेरे लिये संभव नहीं,क्यूके उनका हर रूप निराला है उनकी पुजा किसी भी समय कीजिये अनुभूतिया तो येसा-येसा मिलेगा के सम्पूर्ण जीवन उनके गुण-गान गाने मे ही निकल जायेगा ,येसा समय आज तक शिवभक्तों के जीवन मे नहीं आया होगा जिस दिन उन्हे शिव कृपा प्राप्त ना हुआ हो,आज एक दिव्य साधना दे रहा हु जो मेरा ही बल्कि बहोत से शिव भक्तो का अनुभूतित साधना है और एक बात इस साधना को किए बिना चाहे कितना भी महाविद्या साधना कर लीजिये प्रत्यक्ष अनुभूतिया शीघ्र नहीं मिलेगा,इसलिये “अघोर शिव साधना” प्रत्येक साधक के जीवन मे लक्ष्य प्राप्ति के और बढ़ने का एक आसान सा मार्ग है,जिसने अघोरत्व प्राप्त कर लिया वह तो जीवन मे सब कुछ प्राप्त कर लेता है अन्यथा जीवन जीने का हर एक अंदाज व्यर्थ ही इच्छा पूर्ति हेतु गमा देता है॰इस साधना से सभी प्रकार के ग्रह दोषो से मुक्ति मिलता है,सभी साधना मे पूर्ण सफलता है,सभी प्रकार के तंत्र से रक्षा प्राप्त होता है अगर पुराना कोई मंत्र-तंत्र दोष किसी साधक के जीवन मे हो चाहे वह इस जन्म का हो या पूर्वजन्म को हो तो समाप्त हो जाता है,चाहे साबर मंत्र हो,वैदिक हो या अघोर मंत्र हो इनमे इस साधना को सम्पन्न करने के पच्छात पूर्ण सफलता मिलता है,साधना के समय शरीर मेबहोत ज्यादा गर्मी महसूस होगी येसे समय मेघबराना मत और साधना को अधूरा नहीं छोड़ना है,येसे समय मे दुर्गंध या डरावना आवाज आ सकता है तो यह आपका साधना सफलता है जिसे आपको महसूस करना है,इस साधना के माध्यम से भोले बाबा भक्तो को स्वप्न मे दर्शन भी प्रदान
करते है और आशीर्वाद भी..............
प्रार्थना:-
जय शम्भो विभो अघोरेश्वर स्वयंभो जय शंकर ।
जयेश्वर जयेशान जय जय सर्वज्ञ कामदं ॥
मंत्र-
॥ ॐ ह्रां ह्रीं हूं अघोरेभ्यो सर्व सिद्धिं देही देही अघोरेश्वराय हूं ह्रीं ह्रां ॐ फट ॥
11 माला रुद्राक्ष या काले हकीक से जाप करना है.........
इशान्य दिशा के और मुख हो,आसान-वस्त्र काले रंग के उत्तम होते है परंतु आपके पास जो भी हो उसे ही इस्तेमाल करे,माला रुद्राक्ष या काले हकीक का हो,पारद शिवलिंग हो तो ठीक है या फिर जो भी शिवलिंग हो ...
का पूजन आप करते है उसी पर साधना सम्पन्न करे,साधना से पूर्व गुरु गणेश पूजन करे और लोहे के कील से अपने आसन को गोल-गोल “ॐ रं अग्नि-प्रकाराय नम:” मंत्र बोलकर घेरा बनाये,जिससे आपका अदृश्य शक्ति से रक्षा हो,माथे पर महामृत्युंजय मंत्र बोलकर बस्म+चन्दन से तिलक करिये,साधना समाप्ती के बाद पाच बिल्वपत्र +दुग्ध युक्त जल,अक्षत (चावल),गंध,वस्त्र,पुष्प,लड्डू का भोग,दक्षिणा मुख्य मंत्र बोलकर चढ़ाये,इस साधना मे 11 माला मंत्र जाप करना है,साधना एक दिवसीय है परंतु तीन दिन तक करने का प्रयास कीजिये ताकि सर्व कार्य किस समस्या के पूर्ण हो सके॰आपको भोले बाबा का आशीर्वाद प्राप्त हो
यही कामना करता हु.........
श्री सदगुरुजीचरनार्पणमस्तू...
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अघोर शिव साधना,
मृत्योर्मा अमृतं गमय,
लक्ष्मी साधना,
शिष्यत्व
गुरुमंत्र की शक्तियाँ Guru Mantra ki shakti
रक्षण शक्तिः -
ॐ सहित मंत्र का जप करते हैं तो वह हमारे जप तथा पुण्य की रक्षा करता है।
किसी नामदान के लिए हुए साधक पर यदि कोई आपदा आनेवाली है,कोई दुर्घटना घटने वाली है तो मंत्र भगवान उस आपदा को शूली में से काँटा कर देते हैं। साधक का बचाव कर देते हैं। ऐसा बचाव तो एक नहीं,मेरे हजारों साधकों के जीवन में चमत्कारिक ढंग से महसूस होता है। गाड़ी उलट गयी,तीन गुलाटी खा गयी किंतु .....हमको खरोंच तक नहीं आयी.... ! हमारी नौकरी छूट गयी थी,ऐसा हो गया था, वैसा हो गया था किंतु बाद में उसी साहब ने हमको बुलाकर हमसे माफी माँगी और हमारी पुनर्नियुक्ति कर दी। पदोन्नति भी कर दी... इस प्रकार की न जाने कैसी-कैसी अनुभूतियाँ लोगों को होती हैं। ये अनुभूतियाँ समर्थ भगवान की सामर्थ्यता प्रकट करती हैं।
गति शक्तिः -
जिस योग में,ज्ञान में,ध्यान में आप फिसल गये थे, उदासीन हो गये ,किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे उसमें मंत्र दीक्षा लेने के बाद गति आने लगती है। मंत्र दीक्षा के बाद आपके अंदर गति शक्ति कार्य में आपको मदद करने लगती है।
कांति शक्तिः-
मंत्रजाप से जापक के कुकर्मों के संस्कार नष्ट होने लगते हैं और उसका चित्त उज्जवल होने लगता है। उसकी आभा उज्जवल होने लगती है, उसकी मति-गति उज्जवल होने लगती है और उसके व्यवहार में उज्जवलता आने लगती है।इसका मतलब ऐसा नहीं है कि आज मंत्र लिया और कल सब छूमंतर हो जायेगा... धीरे-धीरे होगा। एक दिन में कोई स्नातक नहीं होता, एक दिन में कोई एम.ए. नहीं पढ़ लेता, ऐसे ही एक दिन में सब छूमंतर नहीं हो जाता। मंत्र लेकर ज्यों-ज्यों आप श्रद्धा से, एकाग्रता से और पवित्रता से जप करते जायेंगे त्यों-त्यों विशेष लाभ होता जायेगा।
प्रीति शक्तिः-
ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों मंत्र के देवता के प्रति,मंत्र के ऋषि,मंत्र के सामर्थ्य के प्रति आपकी प्रीति बढ़ती जायेगी।
तृप्ति शक्तिः-
ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों आपकी अंतरात्मा में तृप्ति बढ़ती जायेगी, संतोष बढ़ता जायेगा। जिन्होंने नियम लिया है और जिस दिन वे मंत्र नहीं जपते,उनका वह दिन कुछ ऐसा ही जाता है। जिस दिन वे मंत्र जपते हैं,
उस दिन उन्हें अच्छी तृप्ति और संतोष होता है।जिनको गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है उनकी वाणी में सामर्थ्य आ जाता है। नेता भाषण करता है तो लोग इतने तृप्त नहीं होते, किंतु जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है ऐसे महापुरुष बोलते हैं तो लोग बड़े तृप्त हो जाते हैं ।
अवगम शक्तिः-
मंत्रजाप से दूसरों के मनोभावों को जानने की शक्ति विकसित हो जाती है।
दूसरे के मनोभावों को आप अंतर्यामी बनकर जान सकते हो। कोई व्यक्ति कौन सा भाव लेकर आया है ? दो साल पहले उसका क्या हुआ था या अभी उसका क्या हुआ है ?उसकी तबीयत कैसी है? लोगों को आश्चर्य होगा किंतु आप तुरंत बोल दोगे कि 'आपको छाती में जरा दर्द है... आपको रात्रि में ऐसा स्वप्न आता है....कोई कहे कि 'महाराज ! आप तो अंतर्यामी हैं।' वास्तव में यह भगवत्शक्ति के विकास की बात है।
प्रवेश अवति शक्तिः-
अर्थात् सबके अंतरतम की चेतना के साथ एकाकार होने की शक्ति। अंतःकरण के सर्व भावों को तथा पूर्वजीवन के भावों को और भविष्य की यात्रा के भावों को जानने की शक्ति कई योगियों में होती है। वे कभी-कभार मौज में आ जायें तो बता सकते हैं कि आपकी यह गति थी,आप यहाँ थे,फलाने जन्म में ऐसे थे,अभी ऐसे हैं। जैसे दीर्घतपा के पुत्र पावन को माता-पिता की मृत्यु पर उनके लिए शोक करते देखकर उसके बड़े भाई पुण्यक ने उसे उसके पूर्वजन्मों के बारे में बताया था। यह कथा योगवाशिष्ठ महारामायण में आती है।
श्रवण शक्तिः-
मंत्रजाप के प्रभाव से जापक सूक्ष्मतम,गुप्ततम शब्दों का श्रोता बन जाता है।
जैसे,शुकदेवजी महाराज ने जब परीक्षित के लिए सत्संग शुरु किया तो देवता आये।
शुकदेवजी ने उन देवताओं से बात की। माँ आनंदमयी का भी देवलोक के साथ सीधा
सम्बन्ध था। और भी कई संतो का होता है। दूर देश से भक्त पुकारता है कि गुरुजी !
मेरी रक्षा करो... तो गुरुदेव तक उसकी पुकार पहुँच जाती है !
स्वाम्यर्थ शक्तिः-
अर्थात् नियामक और शासन का सामर्थ्य। नियामक और शासक शक्ति का सामर्थ्य विकसित करता है प्रणव का जाप।
याचन शक्तिः-
अर्थात् याचना की लक्ष्यपूर्ति का सामर्थ्य देनेवाला मंत्र।
क्रिया शक्तिः-
अर्थात् निरन्तर क्रियारत रहने की क्षमता, क्रियारत रहनेवाली चेतना
का विकास।
इच्छित अवति शक्तिः-
अर्थात् वह ॐ स्वरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं तो निष्काम है किंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले व्यक्ति का मनोरथ पूरा करने का सामर्थ्य आ जाता है।
इसीलिए संतों के चरणों में लोग मत्था टेकते हैं, कतार लगाते हैं,प्रसाद धरते हैं,आशीर्वाद माँगते हैं आदि आदि।
इच्छित अवन्ति शक्ति:-
अर्थात् निष्काम परमात्मा स्वयं शुभेच्छा का
प्रकाशक बन जाता है।
दीप्ति शक्तिः-
अर्थात् ओंकार जपने वाले के हृदय में ज्ञान का प्रकाश बढ़ जायेगा।
उसकी दीप्ति शक्ति विकसित हो जायेगी।
वाप्ति शक्तिः-
अणु-अणु में जो चेतना व्याप रही है उस चैतन्यस्वरूप ब्रह्म के साथ आपकी
एकाकारता हो जायेगी।
आलिंगन शक्तिः-
अर्थात् अपनापन विकसित करने की शक्ति। ओंकार के जप से पराये भी अपने होने लगेंगे तो अपनों की तो बात ही क्या ?जिनके पास जप-तप की कमाई नहीं है उनको
तो घरवाले भी अपना नहीं मानते,किंतु जिनके पास ओंकार के जप की कमाई है उनको घरवाले, समाजवाले,गाँववाले,नगरवाले,राज्य वाले,राष्ट्रवाले तो क्या विश्ववाले भी अपना मानकर आनंद लेने से इनकार नहीं करते।
हिंसा शक्तिः-
ओंकार का जप करने वाला हिंसक बन जायेगा ?हाँ,हिँसक बन जायेगा किंतु कैसा हिंसक बनेगा ?दुष्ट विचारों का दमन करने वाला बन जायेगा और दुष्टवृत्ति के लोगों के दबाव में नहीं आयेगा। अर्थात् उसके अन्दर अज्ञान को और दुष्ट सरकारों
को मार भगाने का प्रभाव विकसित हो जायेगा।
दान शक्तिः-
अर्थात् वह पुष्टि और वृद्धि का दाता बन जायेगा। फिर वह माँगनेवाला नहीं रहेगा,देने की शक्तिवाला बन जायेगा। वह देवी-देवता से,भगवान से माँगेगा नहीं,
स्वयं देने लगेगा।
भोग शक्तिः-
प्रलयकाल स्थूल जगत को अपने में लीन करता है, ऐसे ही तमाम दुःखों को, चिंताओं को,भयों को अपने में लीन करने का सामर्थ्य होता है प्रणव का जप करने वालों में। जैसे दरिया में सब लीन हो जाता है, ऐसे ही उसके चित्त में सब लीन हो जायेगा और वह अपनी ही लहरों में फहराता रहेगा,मस्त रहेगा... नहीं तो एक-दो दुकान,एक-दो कारखाने वाले को भी कभी-कभी चिंता में चूर होना पड़ता है।
किंतु इस प्रकार की साधना जिसने की है उसकी एक दुकान या कारखाना तो क्या,एक आश्रम या समिति तो क्या,1100,1200 या 1500 ही क्यों न हों,सब उत्तम प्रकार से चलती हैं !उसके लिए तो नित्य नवीन रस, नित्य नवीन नंद,नित्य नवीन मौज रहती है।शादी अर्थात् खुशी ! वह ऐसा मस्त फकीर बन जायेगा।
वृद्धि शक्तिः-
अर्थात् प्रकृतिवर्धक, संरक्षक शक्ति। गुरुदेव का जप करने वाले में प्रकृतिवर्धक और
सरंक्षक सामर्थ्य आ जाता है।
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गुरुमंत्र की शक्तियाँ
Guru disciple religion speech शिष्य धर्म गुरु वाणी
शिष्य धर्म गुरु वाणी
जीवन में तुम्हें रुकना नहीं है, निरंतर आगे बढ़ना है क्यूंकि जो साहसी होते हैं, जो दृढ़ निश्चयी होते हैं जिनके प्राणों में गुरुत्व का अंश होता है, वही आगे बढ़ सकता है.. और इस आगे बढ़ने में जो आनंद है, जो तृप्ति है, वह जीवन का सौभाग्य है.
***
गृहस्थ से भागने की जरुरत नहीं है, जरुरत है, एक तरफ खड़े होकर देखने की, तुम्हारी एक आँख गृहस्थ में हो, तो दूसरी आँख गुरु चरणों में नमन युक्त होनी चाहिए. तब तुम्हारे जीवन में कोई न्यूनता रहेगी ही नहीं क्यूंकि वह नमन युक्त आँख तुम्हारे जीवन को पूरी तरह से संवार देगी, सजग कर देगी, प्रकाशित कर देगी.
***
उन सन्यासी शिष्यों ने मेरे आनंद का अमृत चखा है, और इसलिए वो मेरी उपस्थिति के बिना भी मस्त हैं, चैतन्य हैं, नृत्य युक्त हैं, और मैं वही अमृत बांटने आया हूँ, तुम इस अमृत को तृप्ति के साथ चखो, और तुम्हें एहसास होगा की तुम्हारा जीवन संवर गया है, तुम्हारा जीवन जगमगाहट देने लगा है.
***
पिछले जीवन में तुम्ही तो थे, जो मुझसे अलग हुए थे, मैं तुम्हें आवाज़ दे रहा था और तुम नकली स्वप्नों के पीछे पीठ मोड़कर भाग रहे थे, और तुमने अपने कान मेरी आवाज़ सुनने के लिए बंद कर दिए थे, और उसी का परिणाम तुम्हारी ये चिंताएं हैं, ये परेशानियाँ हैं, ये जीवन की बाधाएं हैं.
***
तुम्हें जीवन में कुछ भी विचार करने की जरुरत नहीं है, क्यूंकि मैं प्रतिक्षण प्रतिपल तुम्हारे साथ हूँ, मुझे मालुम है की तुम्हें किस लक्ष्य तक पहुँचाना है, तुम्हें तो चुपचाप अपना हाथ मुझे सौंप देना है आगे का कार्य तो मेरा है.
***
तुम्हें साधना के और सिद्धियों के मोती नहीं मिल रहे हैं, तो यह कसूर तो तुम्हारा ही है, क्यूंकि तुम्हें समुद्र में गहरायी के साथ उतरने की क्रिया नहीं आई, तुममे पूर्ण रूप से डूबने का भाव नहीं आया, गुरु के ह्रदय सागर में निश्चिंत होकर दुबकी लगाने की क्षमता नहीं आई, और जिस दिन तुम गहराई के साथ गुरु के ह्रदय में डूब सकोगे, तब वापिस बाहर आते समय तुम्हारी दोनों हथेलियाँ “सिद्धि” के मोतियों से भरी होंगी.
***
शिष्य का तात्पर्य नजदीक आना है, और ज्यादा नजदीक, इतना नजदीक, कि गुरु के प्राणों में समा जाये, एकाकार हो जाये, गुरु की धड़कनों में अपनी धडकनें मिला ले, और जब ऐसा होगा तो तुम्हारे अन्दर स्वतः गुरुत्व प्रारम्भ हो जायेगा, स्वतः दिव्यत्व प्रारम्भ हो जाएगा, और स्वतः सिद्धियाँ तुम्हारे सामने नृत्य करती सी प्रतीत होंगी.
Mantra Tantra Yantra Vigyan Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji
जीवन में तुम्हें रुकना नहीं है, निरंतर आगे बढ़ना है क्यूंकि जो साहसी होते हैं, जो दृढ़ निश्चयी होते हैं जिनके प्राणों में गुरुत्व का अंश होता है, वही आगे बढ़ सकता है.. और इस आगे बढ़ने में जो आनंद है, जो तृप्ति है, वह जीवन का सौभाग्य है.
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गृहस्थ से भागने की जरुरत नहीं है, जरुरत है, एक तरफ खड़े होकर देखने की, तुम्हारी एक आँख गृहस्थ में हो, तो दूसरी आँख गुरु चरणों में नमन युक्त होनी चाहिए. तब तुम्हारे जीवन में कोई न्यूनता रहेगी ही नहीं क्यूंकि वह नमन युक्त आँख तुम्हारे जीवन को पूरी तरह से संवार देगी, सजग कर देगी, प्रकाशित कर देगी.
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उन सन्यासी शिष्यों ने मेरे आनंद का अमृत चखा है, और इसलिए वो मेरी उपस्थिति के बिना भी मस्त हैं, चैतन्य हैं, नृत्य युक्त हैं, और मैं वही अमृत बांटने आया हूँ, तुम इस अमृत को तृप्ति के साथ चखो, और तुम्हें एहसास होगा की तुम्हारा जीवन संवर गया है, तुम्हारा जीवन जगमगाहट देने लगा है.
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पिछले जीवन में तुम्ही तो थे, जो मुझसे अलग हुए थे, मैं तुम्हें आवाज़ दे रहा था और तुम नकली स्वप्नों के पीछे पीठ मोड़कर भाग रहे थे, और तुमने अपने कान मेरी आवाज़ सुनने के लिए बंद कर दिए थे, और उसी का परिणाम तुम्हारी ये चिंताएं हैं, ये परेशानियाँ हैं, ये जीवन की बाधाएं हैं.
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तुम्हें जीवन में कुछ भी विचार करने की जरुरत नहीं है, क्यूंकि मैं प्रतिक्षण प्रतिपल तुम्हारे साथ हूँ, मुझे मालुम है की तुम्हें किस लक्ष्य तक पहुँचाना है, तुम्हें तो चुपचाप अपना हाथ मुझे सौंप देना है आगे का कार्य तो मेरा है.
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तुम्हें साधना के और सिद्धियों के मोती नहीं मिल रहे हैं, तो यह कसूर तो तुम्हारा ही है, क्यूंकि तुम्हें समुद्र में गहरायी के साथ उतरने की क्रिया नहीं आई, तुममे पूर्ण रूप से डूबने का भाव नहीं आया, गुरु के ह्रदय सागर में निश्चिंत होकर दुबकी लगाने की क्षमता नहीं आई, और जिस दिन तुम गहराई के साथ गुरु के ह्रदय में डूब सकोगे, तब वापिस बाहर आते समय तुम्हारी दोनों हथेलियाँ “सिद्धि” के मोतियों से भरी होंगी.
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शिष्य का तात्पर्य नजदीक आना है, और ज्यादा नजदीक, इतना नजदीक, कि गुरु के प्राणों में समा जाये, एकाकार हो जाये, गुरु की धड़कनों में अपनी धडकनें मिला ले, और जब ऐसा होगा तो तुम्हारे अन्दर स्वतः गुरुत्व प्रारम्भ हो जायेगा, स्वतः दिव्यत्व प्रारम्भ हो जाएगा, और स्वतः सिद्धियाँ तुम्हारे सामने नृत्य करती सी प्रतीत होंगी.
Mantra Tantra Yantra Vigyan Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji
शिष्य धर्म, काही विधि करूं उपासना shisya dhram, do some form of worship
विवेकानन्द सात साल तक साधना में लगे रहे । भोजन में किसी पवित्र घर की ही भिक्षा खाते थे । साधन- भजन के दिनों में बहिर्मुख निगुरे लोगों के हाथ का अन्न कभी नहीं लेते थे । पवित्र घर की रोटी भिक्षा में लेते और वह रोटी लाकर रख देते थे । ध्यान करते जब भूख लगती तो रोटी खा लेते थे । कभी तो सात दिन की बासी रोटी हो जाती । उसको चबाते-चबाते मसूढ़ों में खून निकल आता । फिर भी विवेकानन्द आध्यात्मिक मार्ग पर डटे रहे ।
ऐसा नहीं सोचते थे कि "घर जाकर ताजा रोटी खाकर भजन करेंगे ।" वे
जानते थे कि कितनी भी कठिनाई आ जाये फिर भी आत्मज्ञान पाना ज़रुरी है । गुरु के वचनों का साक्षात्कार करना ज़रूरी है । जो बुद्धिमान ऐसा समझता है उसको प्रत्येक मिनट का सदुपयोग करने की रुचि होती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि ध्यान करो, नियम करो, सुबह जल्दी उठकर संध्या में बैठो ।
जो अपनी ज़िन्दगी की कदर करता है वह तत्पर हो जाता है । जिसका मन मूर्ख है और वह खुद मन का गुलाम है, वह तो चाबुक खाने के बाद
थोड़ा चलेगा और फिर चलना छोड़ देगा । मूर्ख हृदय न चेत
यद्यपि गुरु मिलहीं बिरंचि सम। भले ब्रह्माजी गुरु मिल जायें फिर भी मूर्ख
आदमी सावधान नहीं रहता । बुद्धिमान आदमी गुरु की युक्ति पर डट जाता है । जैसे, एकलव्य गुरु की मूर्ति बनाकर अभ्यास में लग जाता था । कोई गलती होती थी तो अपना कान पकड़ता था । बाँये हाथ से कान पकड़ता था और दायाँ हाथ गुरु का मानकर चाँटा मारता था । ऐसा करते करते गुरु की मूर्ति के आगे धनुर्विद्या सीखा और उसमें श्रेष्ठता प्राप्त की । जो गुरु वचन लग जाते हैं उन्हे हजार विघ्न-बाधाएँ भी आयें फिर भी आध्यात्मिक रास्ता नहीं छोड़ते
। सबसे ऊँचे पद का साक्षात्कार कर ही लेते हैं । ऐसे आत्मवेत्ता अदभुत होते हैं ।
ऐसा नहीं सोचते थे कि "घर जाकर ताजा रोटी खाकर भजन करेंगे ।" वे
जानते थे कि कितनी भी कठिनाई आ जाये फिर भी आत्मज्ञान पाना ज़रुरी है । गुरु के वचनों का साक्षात्कार करना ज़रूरी है । जो बुद्धिमान ऐसा समझता है उसको प्रत्येक मिनट का सदुपयोग करने की रुचि होती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि ध्यान करो, नियम करो, सुबह जल्दी उठकर संध्या में बैठो ।
जो अपनी ज़िन्दगी की कदर करता है वह तत्पर हो जाता है । जिसका मन मूर्ख है और वह खुद मन का गुलाम है, वह तो चाबुक खाने के बाद
थोड़ा चलेगा और फिर चलना छोड़ देगा । मूर्ख हृदय न चेत
यद्यपि गुरु मिलहीं बिरंचि सम। भले ब्रह्माजी गुरु मिल जायें फिर भी मूर्ख
आदमी सावधान नहीं रहता । बुद्धिमान आदमी गुरु की युक्ति पर डट जाता है । जैसे, एकलव्य गुरु की मूर्ति बनाकर अभ्यास में लग जाता था । कोई गलती होती थी तो अपना कान पकड़ता था । बाँये हाथ से कान पकड़ता था और दायाँ हाथ गुरु का मानकर चाँटा मारता था । ऐसा करते करते गुरु की मूर्ति के आगे धनुर्विद्या सीखा और उसमें श्रेष्ठता प्राप्त की । जो गुरु वचन लग जाते हैं उन्हे हजार विघ्न-बाधाएँ भी आयें फिर भी आध्यात्मिक रास्ता नहीं छोड़ते
। सबसे ऊँचे पद का साक्षात्कार कर ही लेते हैं । ऐसे आत्मवेत्ता अदभुत होते हैं ।
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काही विधि करूं उपासना,
शिष्य धर्म
दक्षिणमार्गी पारद शिवलिंग साधना Parad Shivling Dkshinmargi Silence
यह प्रयोग साधक किसी भी सोमवार को कर सकता है.
साधक रात्रीकाल में यह प्रयोग करे तो ज्यादा उत्तम है, वैसे अगर रात्री में करना संभव न हो तो इस प्रयोग को दिन में भी किया जा सकता है.
साधक स्नान आदि से निवृत हो कर लाल वस्त्रों को धारण करे तथा लाल आसान पर बैठ जाए. साधक का मुख उत्तर की तरफ हो.
साधक अपने सामने पारदशिवलिंग को स्थापित करे. साधक गुरु तथा पारद शिवलिंग का पूजन करे तथा गुरुमंत्र का जाप करे और फिरं निम्न मंत्र की ११ माला मंत्र जाप पारदशिवलिंग के सामने करे. यह जाप रुद्राक्ष माला से करना चाहिए.
ॐ नमो भगवते रुद्राय भूत वेताल त्रासनाय फट्
(OM NAMO BHAGAWATE RUDRAAY BHOOT VETAAL TRAASANAAY PHAT)
मंत्र जाप के बाद साधक पारद शिवलिंग को किसी पात्र में रख कर उस पर पानी का अभिषेक उपरोक्त मंत्र को बोलते हुवे करे. यह क्रिया अंदाज़े से १० मिनिट करनी चाहिए. इसके बाद साधक उस पानी को अपने पुरे घर परिवार के सदस्यों पर तथा पुरे घर में छिड़क दे.
इस प्रकार यह क्रिया साधक मात्र ३ दिन करे.
अगर साधक को कोई समस्या नहीं हो तथा मात्र उपरी बाधा से तथा तंत्र प्रयोग से सुरक्षा प्राप्ति के लिए भी अगर यह प्रयोग करना चाहे तो भी यह प्रयोग किया जा सकता है. माला का विसर्जन करने की आवश्यकता नहीं है, साधक इसका उपयोग कई बार कर सकता है.
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दक्षिणमार्गी पारद शिवलिंग साधना
UCHHISHT GANPATI SADHANA उच्छिष्ट गणपति साधना
UCHHISHT GANPATI SADHANA
उच्छिष्ट गणपति साधना होलीका दहन की रात्रि पर साधना करे
FOR RIDDANCE FROM EFFECT OF EVIL RITUALS
If some base ritual has been used against a person or family, life becomes worse than hell. A person under such evil influence becomes much harassed and powerless even though he might be a millionaire.
Tension, quarrels and unrest become common features of family life. All one's respect and social position is reduced to naught. Today hatred and jealousy are so strong that enemies and adversaries lose no time in using base rituals against you. These evil practices can completely destroy your life.
For warding off such evil influence try this Uchhisht Ganpati Sadhana with the help of which you can protect yourself from all negative forces in life.
Uchhisht Ganpati means Ganpati in an angry form standing ready to destroy one's enemies. Generally Ganpati is worshipped in a seated form, but in Tantrokt Sadhanas the Uchhisht or standing form of the Lord is worshipped because this form of the Lord is Vighneshvaraay i.e. it frees one of all problems. A Sadhak should try this Sadhana in an angry mood and with full force.
Early in the morning have a bath and wearing fresh clothes sit in your worship place at home facing East or North. Light incense and a ghee lamp. Keep some water ready in a copper tumbler. Place all these on a wooden seat covered with a red cloth. First offer prayers to the Guru by offering incense, flowers and vermilion on the Guru's picture. Then chant two rounds of Guru Mantra.
Then place before the Guru's picture a steel plate and on it draw a Swastik with vermilion or saffron. On it place a Uchhisht Ganpati Yantra.
Then join both palms and chant thus -
|| Om Gajananam Bhootgannaadhisevitam Kapith Jambu Falchaaru Bhaakshannam ||
Then chanting thus offer the indicated articles on the Yantra.
Then chanting thus offer the indicated articles on the Yantra.
|| Om Gam Mangalmoortaye Namah Snaanam Samarpayaami ||
(water)
|| Om Gam Ekdantaay Namah Tilakam Samarpayaami ||
(vermilion)
|| Om Gam Sumukhaay Namah Akshtaan Samarpayaami ||
(rice grains)
|| Om Gam Lambodaraay Namah Dhoopam Deepam Aaghrapyaami, Darshyaami ||
(ghee lamp)
|| Om Gam Vighnanaashay Namah Pushpam Samarpayaami ||
(flowers)
After this mix vermilion with rice grains and offer them on the Yantra chanting thus.
(water)
|| Om Gam Ekdantaay Namah Tilakam Samarpayaami ||
(vermilion)
|| Om Gam Sumukhaay Namah Akshtaan Samarpayaami ||
(rice grains)
|| Om Gam Lambodaraay Namah Dhoopam Deepam Aaghrapyaami, Darshyaami ||
(ghee lamp)
|| Om Gam Vighnanaashay Namah Pushpam Samarpayaami ||
(flowers)
After this mix vermilion with rice grains and offer them on the Yantra chanting thus.
|| Om Lam Namaste Namah
Om Tvamev Tatvamasi
Om Tvamev Tatvamasi
Om Tvamev Kevalam Kartaasi
Om Tvamev Kevalam Bhartaasi
Om Tvamev Kevalam Hartaasi
Om Gannaadhipataye Namah ||
Offer a spoonful of water on the Yantra.
Thereafter chant 5 rounds of the following Mantra with a coral rosary for 11 days.
होली की रात्रि पर ५१ माला जपने से समस्त मनोकामना पुण्य होता है साधना के बाद समस्त सामग्री को होलिका दहन मैं समर्पित करने से समस्त बांधा दूर हो जाता है
ॐ गं हूं तंत्र बांधा निवारणया श्रीं गणेशाय स्वाहा:
|| Om Gam Hum Tantra Baadhaa Nivaarannaay Shreem Ganneshaay Swaahaa ||
After completion of the Sadhana tie the Yantra and rosary in a red cloth and drop the bundle in a river or pond. One should complete this Sadhana between 4.10 to 6.45 am
'Mantra Tantra Yantra Vigyan June 2000 '59'
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