Tuesday, June 21, 2011

A hundred years later, the same strength, will power in front of you.

मैं तुम्हे गिडगीडाने वाला नहीं बनाना चाहता, मैं बना ही नहीं सकता। बन भी नहीं सकता, जब मैं खुद बना ही नहीं तो तुम्हे कैसे बनाउंगा। पहले हाथ उठाऊंगा नहीं, और हाथ उसका उठा और मेरे गाल तक पहुंचे उससे पहले छः थप्पड़ मार कर निचे गिरा दूंगा, आज भी इतनी ताक़त क्षमता रखता हूँ, आज से सौ साल बाद भी इतनी ही ताक़त, क्षमता रखूंगा आपके सामने।

सम्राट होते होंगे, मैंने देखा नही सम्राट कैसे होते है, मगर सम्राटों के सिर भी गुरू के चरणों मे झुकते है, उनके मुकुट भी गुरू के चरणों मे पड़ते हैं यदि वह सही अर्थों मे गुरू है, ज्ञान, चेतना युक्त है।

आज से हजारों वर्ष पहले सिंधु नदी के किनारे पहली बार आर्यों ने आंख खोली, हमारी पूर्वजों ने पहली बार अनुभव किया कि ज्ञान भी कुछ चीज़ होती है, पहली बार उन्होने एहसास किया कि जीवन मे कुछ उद्देश्य भी होता है, कुछ लक्ष्य भी होता है, तब उन्होने सबसे पहले गुरू मंत्र रचा, गुरू की ऋचाओँ को आवाहन किया। और भी देवताओं का कर सकते थे, भगवान रुद्र का कर सकते थे, विष्णु का कर सकते थे, उन ऋंषियों के सामने ब्रह्मा थे, इंद्र थे, वरुण थे, यम थे, कुबेर थे, सैकड़ों थे।

मगर सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना कि या संसार मे सबसे पहले जिस मंत्र कि रचना हुई, वह गुरू मंत्र था।

जो कहूं वह करना ही है आपको। शास्त्रों ने कहा है- जैसे गुरू करे ऐसा आप मत करिए, जो गुरू कहे वह करिए। जो गुरू कहे वह करिए। आपको यह करना है तो करना है।

आप गुरू के बताए मार्ग चलेंगे, गतिशील होंगे, तो अवश्य आपको सफ़लता मिलेगी, गारंटी के साथ मिलेगी। और साधना आप पूर्ण धारण शक्ति के साथ करेंगे तो अवश्य ही पौरुषवान, हिम्मतवान, क्षमतावान बन सकते है। आप अपने जीवन मे उच्च से उच्च साधनाएं, मंत्र और तंत्र का ज्ञान गुरू से प्राप्त कर सके और प्राप्त ही नहीं करें, उसे धारण कर सकें, आत्मसात कर सके ऐसा मैं आपको ह्रदय से आर्शीवाद देता हूं, कल्यान कामना करता हूं

Saturday, May 14, 2011

Guru Gita

गुरु गीता

गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।
गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।
वह सद्गुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।
[संपादित करें]गुरु

गुरु गीता में ऐसे सभी गुरुओं का कथन है जिनकों 'सूचक गुरु' ,'वाचक गुरु', बोधक गुरु', 'निषिद्ध गुरु', 'विहित गुरु', 'कारणाख्य गुरु', तथा 'परम गुरु' कहा जाता है।

इनमें निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं वही सद्गुरु हैं।

गुरु गीता

न जानन्ति परम तत्त्वं गुरुदीक्षा परान्ग्मुखा:|
भ्रांत पशुसमा हेय्ता: स्वपरिज्ञान वर्जिता ||

अतार्थ गुरु दीक्षा के बिना परम तत्व को नहीं जाना जा सकता और परमतत्व को जाने बिना मनुष्य भ्रांत पशु के सामान होता है |दीक्षा का तात्पर्य है पशुत्व से मानत्व और मानत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने की क्रिया |दीक्षा ही ऐसे प्रक्रिया है ,जिसके माध्यम से गुरु अपना तपस्यांश प्रदान कर शिष्य को देवत्व की ओर बढ़ाते है ,उसके जीवन की समस्त कमियों को समाप्त करते हुए शिष्य को पूर्णत्व देने के लिए तत्पर होते है | इसलिए गुरु के महिमा को कभी नहीं भूलना चाहिए |

गुरुभाव परम तीर्थम अनयेतीर्थ नीरार्थकम |
सर्वेतीर्थमयम देवी श्रीगुरो शेचर्नाम्बुजम||

अतार्थ हे पार्वती |गुरु ही सर्वश्रेष्ट तीर्थ है अन्य तीर्थ निरर्थक है |श्री गुरु के चरण कमल ही सर्व तीर्थमय है |जितने भी तीर्थ है कांची ,काशी ,गया ,अवंतिका आदि वहा कुछ पाने के लिए जाना आयास मात्रे है ,वे निर्जीव है ,निरर्थक है वे आपने उपासक को कोई चेतेन्यता नहीं दे सकते ,इसके अपेक्षा जीवित जाग्रत गुरु के चरणों में बैठकर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है इसलिए गुरु चरणों को तीर्थराज माना गया है जो श्रेय और प्रेय दोनों देने में समर्थ है |

गुरु गीता

हृद्याम्बुजे कर्निक्मध्येसंस्थं सिंहासने गुरुम संस्थितामदिव्येमुर्तिम |
ध्यायेद गुरुम चन्द्रकलाप्रकाषम चित्पुस्ताकाभिश्त्वरम दधानम ||


अतार्थ ह्रदय कमल के मध्ये में विराजमान दिव्य मूर्ति वाले ,चंद्रमा की कलाओं के सामान प्रकाशवान,वेद ज्ञान से युक्त ,शिष्यों को अभीष्ट वरदान देने वाले गुरुदेव का मैं अत्यंत भाव भेरे हृदये से ध्यान करता हूं |गुरु मूर्ति को आपने हृदय में ध्यान करना चाह्हिये इस प्रक्रियानुसार साधक द्वारा हृदय कमल के आसन पर गुरु के स्वरूप को स्थापित करके ,ध्यानावस्था में उनका चिंतन करने से ,विशेषकर उनके चरणों का ध्यान करने से चित्त के एकाग्रता बढती है |

गुरु गीता

नमस्ते नाथ भगवन शिवाय गुरुरूपिने |
विद्यावतारम संसिद्द्ये स्वीकृतानेक विग्रह :||


अतार्थ शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के लिए ज्ञान स्वरूप ,अनेकविध शरीर धारण करने वाले शिव स्वरूप सदगुरु को बारम्बार नमस्कार है |जब शिष्य के अज्ञान विशिप्त के अवस्था आती है तब शिव ही शिष्य को ज्ञान देने के लिए मानव शरीर धारेण कर उसे पूर्णता प्रदान करते है क्योंकि शिष्य जिस धरातल पर खड़ा होता है ,उसकी बराबर अवस्था में आकर ही ज्ञान प्रदान किया जा सकता है ,अत: शिष्य जिस स्थिति में होता है गुरु भी उसी स्थिति में आते है |

Wednesday, April 20, 2011

MAHAKALI Sadhana


 श्मशान काली साधना 

सन् 1985 के वसंत ऋतू की बात हैं. जोधपुर गुरुधाम में होली का शिविर चल रहा था. पूज्य गुरुदेव ने एक ऐसा प्रयोग को संपन्न कराने का मानस निर्मित किया था, जिसे श्मशान में ही संपन्न किया जाता था और वह भी शव के ऊपर आरूढ़ होकर.

शवारूढाम्महाभीमां घोर दंष्ट्राम हसंमुखीम,
चतुर्भुजांखड्ग मुण्ड वराभयकरां शिवाम्.
मुण्डमालाधरां देवीं ललज्जिह्वान्दिगम्बराम्.
एवं संचिन्त्येकत्काली श्मशानालयवासिनीम्.


काली के इस ध्यान मंत्र से स्पष्ट हैं, कि काली श्मशान में वास करती हैं, और शव पर आरूढ़ हैं.
काली की अनेकों प्रकार से साधना संभव हैं, परन्तु उस दिन पूज्यपाद सदगुरुदेव जो साधना संपन्न करा रहे थे, वह श्मशान में ही संपन्न हो सकती थी. और साधना के गूढ़तम रहस्यों को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव ने बताया कि यदि श्मशान पद्धति से काली को आत्मस्थ कर उनकी ही भांति शव पर आरूढ़ होकर इस श्मशान साधना को सिद्ध किया जायें, तो ऐसा संभव ही नहीं हैं, कि श्मशान सिद्धि और महाकाली सिद्धि प्राप्त न हो, और जब गुरु स्वयं ही इस साधना को संपन्न करावे तो अनिश्चितता जैसी कोई सम्भावना रह ही नहीं जाती हैं. परन्तु इसके लिए आवश्यक हैं, कि साधक शव पर बैठ कर मंत्र जाप करें. बिना शव पर आसीन हुए इस मंत्र जाप का कोई अर्थ नहीं होता. परन्तु इस प्रकार की श्मशान क्रियाएं सम्पन्न कराना मैं पसंद नहीं करता हूँ, क्योंकि इसके लिए शवों की आवश्यकता पड़ती हैं.

साधक पहले तो अति प्रसन्न हुए कि पूज्य गुरुदेव से एक अत्यंत उच्चा कोटि की महाविद्या साधना प्राप्त होने जा रही हैं, जो प्रथम बार में ही सिद्ध हो जाती हैं, परन्तु उनकी दूसरी बात सुनकर वे पुनः दुखी हो गए. वास्तव में बात सही थी, क्योंकि इस साधना में शवो की आवश्यकता थी, और प्रत्येक साधक के लिए ऐसी व्यवस्था करना सर्वथा असंभव और अनैतिक था. इसीलिए गुरुदेव इस प्रकार की साधना पद्धतियों का उल्लेख तो अवश्य किया करते थे, परन्तु संपन्न कभी नहीं करवाते थे.थोडी देर में साधकों को प्लाई वुड के टुकड़े दिए गए और साधकों को उन पर बैठने का आदेश दिया गया. लकडी पर मानवाकृति अंकित थी. उधर मंच पर पूज्य सदगुरुदेव आसन से तुंरत उठ खड़े हुए और गगनभेदी आवाज में जो उनका मंत्रोच्चारण प्रारम्भ हुआ तो आस पास का पूरा वातावरण एकदम ठक सा रह गया. हवा रूक गयी और चारों ओर घोर निःस्तब्धता छा गयी, बस कुछ सुनाई दे रहा था, तो गुरुदेव का अबाध गति में मंत्रोच्चार. साधक अपना दिल थामे लकडी के टुकडों पर बैठे थे. जो साधक उस समय उपस्थित थे, उन्हें गुरुधाम का वह दृश्य आज भी याद होगा.

थोडी ही देर में आसमान में चील और गिद्ध मंडराने लगे, एक दो नहीं सैकडो-हजारों की संख्या में और वातावरण में भी दुर्गन्ध सी व्याप्त होने लगी, कुछ गिद्ध तो एकदम नीचे तक आ रहे थे, जिससे साधक विचलित भी हो रहे थे. गुरुदेव आधे घंटे तक उसी अजस्त्र वेग से मंत्रोच्चार किये गए, और उसी में कई साधकों को अनेकों अनुभव हुए.वस्तुतः यही वह क्रिया होती हैं, जिसे प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं, और इसी क्रिया द्वारा एक सामान्य से लकडी के टुकड़े को या पत्थर के टुकड़े को या किसी माला यन्त्र को इच्छानुसार कोई भी रूप दिया जा सकता हैंगुरुदेव जब किसी माला को या यंत्र को किसी साधक को देते हैं, तो वह माला या यंत्र पत्थर के टुकडों की एक लड़ी या तांबे का एक टुकडा भर नहीं होता, अपितु उसमें देवताओं का अंश सुक्ष्म रूप से विराज रहा होता हैंयही प्राण प्रतिष्ठा क्रिया का महत्त्व हैंपरंतु यह क्रिया मात्र मंत्रोच्चारण तक ही सीमित नहीं होती, अपितु यह तो सदगुरु अपने प्राणों की ऊर्जा के एक अंश को ही किसी वास्तु में उतार देते हैं, जिससे साधक का कल्याण हो सकें. उसी प्राण ऊर्जा को जब किसी जड़ पदार्थ में उतरा जाता हैं, तो उसे प्राणप्रतिष्ठा कहा जाता हैं, और उसी प्राण ऊर्जा को जब किसी चेतन व्यक्ति में उतारा जाता हैं, तो उसे दीक्षा कहा जाता हैं.और प्राण प्रतिष्ठा जब हो जाती हैं, तो वही यंत्र, वही माला एक माला न रहकर एक अत्यंत दिव्य वस्तु बन जाती हैं, जो साधक का निश्चित रूप से कल्याण करने में सहायक होती हैं, क्योंकि फिर वह एक धातु नहीं रह जाती, अपितु देवताओं का निवास स्थान होती हैं. और ऐसी ही कोई दिव्य चैतन्य सामग्री प्राप्त कर जब साधक यंत्र में और देवता में बिना कोई भेद समझते हुए जब मंत्र प्रक्रिया या साधना करता हैं, तो यंत्र में निहित देवांश उपस्थित होकर उसका कल्याण करता हैं. फिर यंत्र की वह ऊर्जा स्वयं ही साधक के अन्तः में स्थित हो जाती हैं. ये यंत्र या मालाएं उस दिव्य ऊर्जा को साधक के शारीर में स्थापित करने का मात्र एक माध्यम भर ही होती हैं.

कुछ साधको का प्रश्न होता हैं, कि प्राण प्रतिष्ठा कैसे संपन्न की जाती हैं, और वे इसकी विधि पूछते हैं. ऐसे कई ग्रन्थ हैं, जिनमें प्राण प्रतिष्ठा की विधि और मंत्र दिए हुए हैं. परंतु प्राण प्रतिष्ठा की क्रिया मात्र मंत्रोच्चारण या कुछ आवश्यक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं होकर उससे भी आगे की क्रिया हैं, जो मात्र गुरु ही संपन्न कर सकते हैं, और केवल वही गुरु जिन्होंने प्राण तत्व का स्पर्श किया हो, जिनकी कुण्डलिनी पूर्ण रूप से जाग्रत हो, जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हो.
उनके दिव्व्य स्पर्श से और संकल्प से ही प्राण प्रतिष्ठा की क्रिया संपन्न हो पति हैं, ऊच्च कोटि के योगियों और गुरुओं के लिए तो मात्र एक बार विचार करना या संकल्प भर लेना ही पर्याप्त होता हैं, शेष कार्य तो स्वतः ही संपन्न हो जाते हैं.

बाद में सदगुरुदेव ने बताया कि आम के उन टुकडों को भी मंत्रों द्वारा प्रतिष्ठा कर शव का रूप दिया जा सकता हैं. उन्होंने बताया कि तुम तो शायद इसे आम का टुकडा ही समझ रहे होंगे, परन्तु इसकी गंध और इसका प्रभाव पूरा एक मुर्दा शव की तरह ही हो गया था, और वे जो हजारों गिद्ध आ गए थे, वह इसी बात का प्रमाण था, कि ये आम के टुकड़े नहीं वरण मृत मानव देह ही हैं. बाद में जब मंत्रो का विपरीत क्रम गुरुदेव ने दोहराया तब सब शांत और पूर्ववत हो गया, चील और गिद्धों का सैलाब जहाँ से उमड़ा था वहीँ वापस लौट गया.

पूज्य गुरुदेव ने सभी का मानस पढ़ लिया, साधक बहुत दुखी और निराश हो गए थे, और यही वह बिंदु होता हैं, जो गुरु से देखा नहीं जाता. सदगुरुदेव ने पुनः कहा कि कोई बात नहीं मैं इसकी व्यवस्था करूँगा और प्रत्येक साधक को यह साधना संपन्न कराऊंगा और निश्चित रूप से कराऊंगा, यह गुरु का वाक्य हैं.

Thursday, April 14, 2011

So that my disciples who are moves toward completion

अपनी समस्याओं का दुखड़ा रोने वाले; छिपकर, पीठ पीछे वार करने वाले; इर्ष्यालू, लोभी, झूठे व अकर्मण्य व्यक्ति मेरे शिष्य नहीं हो सकते | मेरे शिष्य तो वो हैं जो पूर्णता की ओर अग्रसर हों | - परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद

I am a painter

मैंने चित्र बनाये है ,सैंकड़ो,हजारो,साधको के साधिकाओ के |
और प्रत्येक चित्र आपने आप में अलग है ,प्रत्येक चित्र में अलग प्रकार का रंग भरा हुआ है ,कोई भी दो चित्र सामान नहीं बनाए है |
क्योंकि मैं चित्रकार हूं और तुलिका और रंगों का मुझे भली प्रकार ज्ञान है ,मुझे ज्ञान है के कोन से चित्र में कोंन सा रंग भरना है |
पर ध्यान रखना परिवार का तूफ़ान चित्र को फाड़ न दे ,मोह माया के दीवारे चित्र के रंग को बदरंग न कर दे ,समाज के अंधड़ चित्र को अस्त व्यस्त न कर दे |
क्योंकि इन तुफानो,अंधड़ो ने यही किया है,धूल ,धक्कड़ फेंकने के अलावा इनके पास है ही क्या ,आलोचनाओ के बोछार से बदरंग करने के अलावा इनके पास युक्ति है भी क्या ?
मैंने तुम्हारे चित्र को अदभुत बनाने का प्रयत्न किया है,जरूरत है इसे बदरंग होने से बचाने के ,फटने से सुरक्षित रखने की
और यदि ऐसा हुआ तो यह चित्र इश्वर की कलाकृति से भी ज्यादा सुंदर ,ज्यादा पूजनीय हो सकेगा |
तुम्हारा सदगुरुदेव

मैं एक चित्रकार हूँ 

Thursday, April 7, 2011

Ode Thu footer


गुरु पादुका स्तोत्र

ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यो नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः!
आचार्य सिद्धेश्वरपादुकाभ्यो नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्यो!!1!! 

मैं पूज्य गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ, मेरी उच्चतम भक्ति गुरु चरणों और उनकी पादुका के प्रति हैं, क्योंकि गंगा -यमुना आदि समस्त नदियाँ और संसार के समस्त तीर्थ उनके चरणों में समाहित हैं, यह पादुकाएं ऐसे चरणों से आप्लावित रहती हैं, इसलिए मैं इस पादुकाओं को प्रणाम करता हु, यह मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, यह पूर्णता देने में सहायक हैं, ये पादुकाएं आचार्य और सिद्ध योगी के चरणों में सुशोभित रहती हैं, और ज्ञान के पुंज को अपने ऊपर उठाया हैं, इसीलिए ये पादुकाएं ही सही अर्थों में सिद्धेश्वर बन गई हैं, इसीलिए मैं इस गुरु पादुकाओं कोभक्ति भावः से प्रणाम करता हूँ!!1!!

ऐंकार ह्रींकाररहस्ययुक्त श्रींकारगूढार्थ महाविभूत्या!
ओंकारमर्म प्रतिपादिनीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!2!! 


गुरुदेव "ऐंकार" रूप युक्त हैं, जो कि साक्षात् सरसवती के पुंज हैं, गुरुदेव "ह्रींकार" युक्त हैं, एक प्रकार से देखा जाये तो वे पूर्णरूपेण लक्ष्मी युक्त हैं, मेरे गुरुदेव "श्रींकार" युक्त हैं, जो संसार के समस्त वैभव, सम्पदा और सुख से युक्त हैं, जो सही अर्थों में महान विभूति हैं, मेरे गुरुदेव "ॐ" शब्द के मर्म को समझाने में सक्षम हैं, वे अपने शिष्यों को भी उच्च कोटि कि साधना सिद्ध कराने में सहायक हैं, ऐसे गुरुदेव के चरणों में लिपटी रहने वाली ये पादुकाएं साक्षात् गुरुदेव का ही विग्रह हैं, इसीलिए मैं इन पादुकाओं को श्रद्धा - भक्ति युक्त प्रणाम करता हूँ!!2!!

होत्राग्नि होत्राग्नि हविश्यहोतृ - होमादिसर्वाकृतिभासमानं !
यद् ब्रह्म तद्वोधवितारिणीभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!3!! 


ये पादुकाएं अग्नि स्वरूप हैं, जो मेरे समस्त पापो को समाप्त करने में समर्थ हैं, ये पादुकाएं मेरे नित्य प्रति के पाप, असत्य, अविचार, और अचिन्तन से युक्त दोषों को दूर करने में समर्थ हैं, ये अग्नि कि तरह हैं, जिनका पूजन करने से मेरे समस्त पाप एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं, इनके पूजन से मुझे करोडो यज्ञो का फल प्राप्त होता हैं, जिसकी वजह से मैं स्वयं ब्रह्म स्वरुप होकर ब्रह्म को पहिचानने कि क्षमता प्राप्त कर सका हूँ, जब गुरुदेव मेरे पास नहीं होते, तब ये पादुकाएं ही उनकी उपस्थिति का आभास प्रदान कराती रहती हैं, जो मुझे भवसागर से पार उतारने में सक्षम हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं पूर्णता के साथ प्रणाम करता हूँ!!3!!

कामादिसर्प वज्रगारूडाभ्याम विवेक वैराग्यनिधिप्रदाभ्याम.
बोधप्रदाभ्याम द्रुतमोक्षदाभ्याम नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम!!4!! 


मेरे मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार के सर्प विचरते ही रहते हैं, जिसकी वजह से मैं दुखी हूँ, और साधनाओं में मैं पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता, ऐसी स्थिति में गुरु पादुकाएं गरुड़ के समान हैं, जो एक क्षण में ही ऐसे कामादि सर्पों को भस्म कर देती हैं, और मेरे ह्रदय में विवेक, वैराग्य, ज्ञान, चिंतन, साधना और सिद्धियों का बोध प्रदान करती हैं, जो मुझे उन्नति की ओर ले जाने में समर्थ हैं, जो मुझे मोक्ष प्रदान करने में सहायक हैं, ऐसी गुरु पादुकाओं को मैं प्रणाम करता हूँ!!4!!

अनंतसंसार समुद्रतार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्यां!
जाड्याब्धिसंशोषणवाड्वाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम!!5!! 


यह संसार विस्तृत हैं, इस भवसागर पार करने में ये पादुकाएं नौका की तरह हैं, जिसके सहारे मैं इस अनंत संसार सागर को पार कर सकता हूँ, जो मुझे स्थिर भक्ति देने में समर्थ हैं, मेरे अन्दर अज्ञान की घनी झाडियाँ हैं, उसे अग्नि की तरह जला कर समाप्त करने में सहायक हैं, ऐसी पादुकाओं को मैं भक्ति सहित प्रणाम करता हूँ!!5

Tuesday, January 4, 2011

What's Narayanhtava Ahmatta initiation awakening?

  क्या हैं नारायणतत्व आतमतत्व जागरण दीक्षा?
What's Narayanhtava Ahmatta initiation awakening?
ॐ जो सत् चित्त आनंद और अनंत हैं, असीम हैं! जो नित्य और सर्वव्यापी हैं वही हैं नारायन्तत्व आपका आत्मतत्व!

ॐ जो अद्वितीय, अखण्ड, नित्य और आनंद स्वरुप हैं! वेदों में जिसे अनित्य, विषयों के परे बताया गया हैं, वही हैं नारायणतत्व!

ॐ जिसकी प्राप्ति के बाद फिर अन्य कोई वस्तु प्राप्त करने को नहीं रह जाती! जिसके आनंद के बाद फिर किसी अन्य आनंद की कामना नहीं रहती! जिसे जान लेने के बाद फिर कुछ ज्ञातव्य नहीं रह जाता वही हैं नारायणतत्व!

ॐ जिसके दर्शन के बाद फिर कुछ और देखने की शेष नहीं रह जाता, जिसके साथ एकाकार हो जाने पर मनुष्य फिर जन्म-मरण के बंधन से छूट जाता हैं!

ॐ ब्रह्मा तथा इन्द्र आदि देवता भी जिस परब्रह्म के असीम आनंद का केवल एक कण मात्र प्राप्त कर धन्य हो चुके हैं और उसी में अपने भाग्य की सराहना करते हैं!

ॐ जो सभी वस्तुओं में व्याप्त हैं! सभी कर्म उस नारायणतत्व के कारण ही संभव हैं, जिस प्रकार से दूध में मक्खन व्याप्त हैं उसी प्रकार नारायणतत्व सर्व जगत में व्याप्त हैं!

ॐ जिसके प्रकाश से सूर्य, चंद्र और समस्त पृथ्वी मंडल आलोकित हैं किन्तु उनके प्रकाश से जो प्रकाशित नहीं हो सकता बल्कि जिसके प्रकाश से सभी प्रकाशित हैं उसे तू नारायणतत्व जान!

ॐ नारायणतत्व नित्य और शाश्वत हैं! अज्ञान के नष्ट हुए बिना, उसका साक्षात्कार अन्य किसी उपाय से संभव नहीं हैं!

ॐ नारायण जगत से पृथक हैं परन्तु नारायण से पृथक किसी वस्तु की कोई सत्ता नहीं! यदि नारायणतत्व के अतिरिकत किसी अन्य वस्तु का कोई अस्तित्व प्रतीत हो तो वह मृगतृष्णा के जल की तरह असत हैं!

ॐ जो कुछ हम देखते हैं, जो कुछ सुनते हैं यह हमारा नारायणतत्व आत्मतत्व ही हैं अन्य कुछ नहीं हैं और परम सत् का ज्ञान हो जाने पर समस्त विश्व अद्वैतपूर्ण एकरूप नारायण ही दिखाई देता हैं!

ॐ नारायणतत्व का ज्ञान ही आत्मतत्व का ज्ञान हैं, सम्पूर्ण जगत का ज्ञान हैं! इसके बाद कुछ शेष नहीं रहता!

ॐ नारायण अनंत आनंद का भण्डार हैं, फलतः जो सत् को जानने वाले हैं वह उन्हीं की शरण लेते हैं!

ॐ जिस प्रकार से नमक का ढेला जल में घुल जाने पर फिर नेत्रों से दिखायी नहीं देता केवल जिव्हा से हो चखा जा सकता हैं, उसी प्रकार हृदय के अंतर में प्रवाहित नारायणतत्व को बाह्य इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता! केवल गुरु के अनुग्रह से, उसकी कृपा से उस तत्व को जाना जा सकता हैं, उसे जाग्रत किया जा सकता हैं! अतः जो नारायणतत्व हैं उसे ही तू आत्मतत्व जान!

ॐ जो नम्र हो सकता हैं, वही बड़े-बड़े तूफ़ान झेल सकता हैं, क्योंकि तूफ़ान के बाद वही पेड़-पौधे शेष रहते हैं, जिनमें लचीलापन हैं! प्रेम, नम्रता एवं लचीलापन ही एक महापुरुष की पहचान हैं!

ॐ वह असीम, आनंद एवं परम सत्य हैं, वह महान हैं! इसीलिए उसे ब्रह्म कहा जाता हैं! उसे ही शक्तिपात द्वारा जगाने की क्रिया हैं नारायणतत्व आत्मतत्व जागरण दीक्षा!

“नारायण-मंत्र-साधना-विज्ञान” से साभार