Monday, March 2, 2015

यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे The challenge now, then when wake up, not even wake up ?



यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे
बहुत मुश्किल हैं, अपने आपकी जज्ब करना और बढ़ते हुए पारे को रोक कर नियंत्रित करना, मैं ब्राह्मण पुत्र हूँ और विनम्रतापूर्वक मुझे गर्व हैं, कि मेरी धमनियों में वशिष्ठ, विश्वामित्र, कणाद और पुलत्स्य जैसे ऋषि मुदगल का रक्त बह रहा हैं, मंत्रों और तंत्रों के चरणों में मैंने अपनी शानदार जवानी को समर्पित कर दिया हैं. जो उम्र मौज, शौक, आनंद और प्रसन्नता की होती हैं, वह उम्र मैंने हिमालय की कंटकाकीर्ण पगडंडियों पर विचरण करते हुए बितायी हैं, जो उम्र मखमली गद्दों पर सोने की होती हैं, उस उम्र में मैं अपनी पीठ के नीचे उबड़ खाबड़ पहाडों की चट्टानें रख कर सोया हूँ और जो उम्र नवोढ़ा दर्शन में व्यतीत होती हैं, वह उम्र मैंने जर्जर वृद्ध और सूखे हुए सन्यासियों के चरणों में व्यतीत की हैं. पर मुझे इस बात का अफ़सोस नहीं हैं, आज जब इस जीवन यात्रा के पथ पर एक क्षण रूक कर पीछे की और मुड़कर नापे हुए, रस्ते को देखता हूँ तो मुझे अपने आप पर गर्व होता हैं, कि मैंने उस रास्ते पर पैर बढाये हैं, जिस पर कंकर पत्थर कांटे और शूलों के अलावा कुछ भी नहीं हैं. मैं उन हिंसक सामाजिक भेड़ियों के बीच में से बढ़ता हुआ इस जगह तक पहुँचा हूँ जहाँ तक पहुचने के लिए जिंदगी को दांव पर लगाना पड़ता हैं, बिना जिजीविषा के यह रास्ता पार करना सम्भव नहीं. यहाँ पग-पग पर आलोचना, झूठे आक्षेप और प्रताड़ना के अलावा कुछ भी नहीं. ये दिखावटी भेड़िये हैं और इनके दांतों में निंदा रुपी मांस के टुकड़े अटके पड़े हैं, इस मांसों के टुकडों को कुतरने और इन हड्डियों को चबाने में इन्होने अपनी जिंदगी की पूर्णता समझी हैं, जिसका जैसा आत्म होता हैं, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता हैं, सैकड़ों वर्षों से इनका प्रयत्न यही रहा हैं कि रास्ते पर बढ़ने वाले पुरूष को खिंच कर अपनी जमात में मिला लिया जाए, उन्हें भी वही सब कुछ करने का ज्ञान दिया जायें, जो वह करते आ रहे हैं. और मैंने जिंदगी के इस पड़ाव पर एक क्षण के लिए ठहर कर चिंतन किया हैं, तो मेरी झोली में उपलब्धियां ही उपलब्धियां हैं. जब समाज मुग़लों और अंग्रेजों की दासता के नीचे छटपटा रहा था, तब मैंने स्वतन्त्रता के दीपक को जितना भी हो सकें जलाये रखने और अंधड़ तूफ़ान से बचाए रखने का प्रयत्न किया हैं, मैंने गुलामी के अन्धकार को अपनी नंगी आंखों से देखा हैं, अपनी जवानी में मैंने भारत-पाकिस्तान के समय मनुष्य की पाशविकता को अनुभव किया हैं, आधी रात को उन धर्मान्धियों के द्वारा मारे गए मनुष्यों की लाशों पर पाँव रखते हुए बाहर आने के लिए प्रयत्न किया हैं, मैंने वह सब अपनी इन आंखों से देखा हैं, उस दर्द को भोगा हैं, मैंने अपने देवता स्वरुप मित्रों को इन हत्यारों के हाथों कुचलते हुए अनुभव किया हैं. मैं इस दर्द का साक्षी हूँ, और मेरे सारे शरीर के दर्द अभी भी कभी-कभी कचोट मार लेता हैं. और मैंने उन भगवे कपड़े पहिने हुए सन्यासियों को देखा हैं, जो धार्मिक स्थानों पर या जंगलों में चमकीले कपड़े पहिने हुए अपने आपको पुजवाते हुए, ख़ुद के ही ललाट पर सिंदूर लगा कर बैठे हुए देखा हैं. मैंने इनके अन्दर झांक कर अनुभव किया हैं कि केवल ढोंग, पाखंड और छल के अलावा इसके पास कोई पूँजी नहीं हैं, भारतीय आप्त वाणी को भुनाते हुए ये गली कुचों में भटकने वाले भिक्षुओं से भी गए गुजरे हैं, और इनके छल, इनके झूठ और इनके पाखंड के दर्द को मैंने जहर की तरह गले के नीचे उतारा हैं, और भोगा हैं. बड़े-बड़े आश्रमों के ठेठ अन्दर अपने आपको छिपा कर कभी-कभी दर्शन देने वाले इन हथकण्डे बाज सन्यासियों को भी देखा हैं, जिनके पास थोथी बाजीगरी और लफ्फाजी का व्यापार हैं, और यह सब देखकर मेरे शरीर का पारा निश्चित रूप से इतना अधिक बढ़ जाता हैं कि कई बार मुझे अपने आप पर शर्म आने लगती थी कि मैं इन लोगों जैसे ही कपडे पहने हुए हूँ. पर इस अन्धकार में भी मुझे पच्चीस हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए, मुदगल ऋषि के शब्द कानों में बराबर झंकृत हो रहे थे कि अँधेरा पीने वाला ही प्रकाश दे सकता हैं और जो अपने गले में जहर उतरने की हिम्मत रखता हैं, वही नीलकंठ कहला सकता हैं और मैंने इस जहर को हजार-हजार बार पिया हैं, इस अंधेरे में हज़ार-हज़ार बार ठोकरे खायी हैं, पैर लहुलुहान हुए और मैं उस ऋषि की आप्त वाणी की डोर के सहारे बराबर बढ़ता रहा हूँ, कि यदि सूर्य उगने तक मेरी जिंदगी का यह दीपक जलता रहा, तो मैं अवश्य ही उतनी रौशनी तो करता ही रहूँगा, जितनी कि घटाटोप अन्धकार में भारत वर्ष की आँखों को दिखाई दे सकने वाली सामर्थ्य दी जा सकें. और इस अंधकार का पार करते-करते मेरे जिंदगी के सुनहरे दिन समाप्त हो गए, यौवन का आनद पत्थरों से ठोकरे खा खा कर विलुप्त हो गया. आंखों के सुनहरे स्वप्न जंगलों की झड़बेरियों में उलझ कर रह गए, परिवार छुट गया, घर बार छुट गया, जवानी और मस्ती छुट गई, पर इन सबसे परे मुझे वह सब कुछ प्राप्त हुआ, जो हमारे पूर्वजों की धरोहर हैं, उन पूर्वजों ने उन कणाद, पुलस्त्य, अत्रि और मुदगल ने जो कुछ थाती हमें सौंपी थी, हमारे कायर पूर्वजों ने उस थाती को भोज पत्रों और ताड़ पत्रों में छुपा निश्चिंत हो गए थे कि हमने फ़र्ज़ पूरा कर लिया, पर आने वाली पीढियों ने उन लोगों को न माफ़ करने वाली चुन-चुन कर ऐसी गालियाँ दी कि वे पीढियां ही काल के गर्भ में समाप्त हो गई, उनके नाम का भी अस्तित्व नहीं रहा, निश्चय ही शंकराचार्य और गोरखनाथ ने उस दीपक में अपने शरीर को तेल की तरह बना कर डाला और उस दीपक को बचाए रखा, उन्होंने अपनी जिंदगी और जवानी को दांव पर लगाकर उस बुझते हुए दीपक को संरक्षण देने का कार्य किया, और फ़िर कुछ उजाला फैला, कुछ समय के लिए फ़िर कुछ रोशनी हुयी, कुछ क्षणों के लिए ही सही, पर फ़िर कुछ साफ-साफ़ दिखाई देने लगा. पर बाद में एक ही झपट्टे में वह रौशनी मद्धिम पड़ गई. फ़िर हमारी पीढ़ियाँ शेर और शायरी में खो गई फ़िर हमारी जवानी घुन्घुरुओं की रुनझुन में सार्थकता अनुभव करने लगी और फ़िर उस दीपक पर अन्धकार के इतने मोटे-मोटे परदे टांग दिए गए कि दीपक का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया. हमारी पीढी को तो यह एहसास ही नहीं रहा कि हमारे पूर्वजों में वशिष्ठ और विश्वामित्र थे. उन्हें गौत्र शब्द का उच्चारण ही याद नहीं रहा, केवल विवाह के समय ब्राह्मण उनके गौत्र का उच्चारण कर भूले भटके उन ऋषियों में से एक का नाम उच्चारण कर लेता, और हम अजनबियों की तरह चौक उठते कि ग़ालिब, मीर, मिल्टन, और शैक्सपियर जैसे परिचित नामों में इस ब्राह्मण ने यह किस नाम का उच्चारण कर दिया, और फिर अपने आपको समझाकर गौरवान्वित हो जाते हैं कि यह एक जल्दी कराने वाले ब्राह्मण के मंत्रों का ही कोई एक भाग होगा. और पूरे पच्चीस हज़ार वर्षों में अंग्रेजो ने पहली बार हमारे खून को टेक्नोलॉजी के नाम पर ठंडा कर दिया, पश्चिम के ज्ञान ने हम को अपने ही देश में अजनबी बना दिया. हमें जेम्स, स्टुअर्ट, विक्टोरिया जैसे नाम ज्यादा परिचित अनुभव लगे, इंग्लैंड का इतिहास हमारी जिंदगी के ज्यादा निकट रहा और हमारे पाँव राजमार्ग से परे हट कर जिस अस्पष्ट पगडण्डी पर चढ़ रहे थे, वह पगडण्डी भी पैरों से छीन गई, और हम उस उजाड़ जंगल में आगे बढ़ने में ही गौरवशाली अनुभव करने लगे, जिसका कोई अंत नहीं था. और यह सब कुछ हमारे रक्त में मिल गया, हमारे चेहरे बदल गए, हमारी आंखों में अंग्रेजियत झलकने लगी, सिर पर हैट और गले में टाई बाँध कर शीशे में अपने आपको देखने का अभ्यास करने लगे और जब आँखें दीवारों पर टंगे माँ बाप या पूर्वजों के चित्रों पर अटकती तो विश्वास ना होता था, कि हम इनकी संतान हैं, मन के किसी कोने में आवाज़ उठती थी कि इस ड्राइंग रूम में इन फूहड़ और असभ्य लोगों के चित्र टांगना उचित नहीं और वे चित्र उठाकर फेंक देने में मन के किसी कोने में संतोष उभरता, कि हम बहुत कुछ हैं. और इसी खून ने हमें कुछ महाज्ञान भी दिया और यह महाज्ञान था, पूजा पाठ क्या होता हैं, देवताओं के दर्शन करना दकियानूसी हैं, मंत्र तंत्र ढोंग और पाखण्ड हैं, जब इनके कथाकथित माँ बाप अंग्रेज चर्च में घुटने टेक कर ईसा को स्मरण कर रहे होते तब हम घर में पड़ी हुयी देवताओं की मूर्तियों को पिछवाडे घूढ़े के ढेर पर फेंकते होते, जब वे पादरियों के वचनों को घूँट-घूँट पी रहे होते तब हम ब्राहमणों और सन्यासियों का मजाक उड़कर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे होते, जब वे बाईबिल को अपने सिर से लगा रहे होते, तब हम गीता और रामायण को ठोकर मारकर फेंकने में सभ्यता की पूर्णता अनुभव कर रहे होते, यह हमारी पीढ़ी का इतिहास हैं, और हमने यही कुछ प्राप्त किया हैं, इन सबसे मेरे कलेजे पर हजारों फफोले पड़े हैं, मेरी मृत्यु के बाद चिता पर आकर कोई भी मेरे नंगे सीने को उधेड़ कर देख सकता हैं, कि उस पर इतने अधिक जख्म लगे हैं, कि अब कोई नया जख्म लगने के लिए जगह बाकी ही नहीं बची हैं. और ऐसे ही कायर और गुलाम माँ बाप की संतानों ने दो चार शब्द रट रखे हैं, कि पत्रिका को साईंटिफीक तरीके से निकलना चाहिए, मंत्रों तंत्रों में कुछ नई टेकनिक लेनी चाहिए, योग और मंत्रों का साईंटिफीक बेस प्रस्तुत करना चाहिए, मैं तो कह रहा हूँ कि मंत्रों तंत्रों को ही नहीं अपने माँ बाप के पुराने दकियानूसी नामों को भी बदल देना चाहिए, अपनी वृद्धा माँ को भी साईंटिफीक रूप सिखाना चाहिए, अपने वयोवृद्ध पिता को भी नई टेक्निक देनी चाहिए, क्योंकि बिना साईंटिफीक बेस के उनका आधार ही क्या हैं? और जब इनके ये शब्द सुनता हु तो मुझे दो हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए ईसा को सूली पर चढ़ाते समय उनके कहे वाक्य याद आ जाते हैं, कि :- “हे भगवान्! इन्हें माफ़ करना, क्योंकि ये जानते नहीं कि ये क्या कह रहे हैं.” सुश्रुत ने एक बार कहा था, कि सूखा और टूटा हुआ पत्ता हलकी हवा में उसी तरफ़ उड़ने लगता हैं, जिधर हवा बहती हैं, लेकिन गहरी जड़ों वाला वटवृक्ष तेज अंधड़ में भी एक से दूसरी तरफ़ झुकता हुआ भी उखाड़ता नहीं, जिनके पास अपने जड़े नहीं होती, वे केवल ओपन माइंडेड ही हो सकते हैं, इसके अलावा होंगे भी क्या? आप पश्चिम के किसी भी विद्वान् से पूछ लीजिये तो वह भी बता देगा कि हमारी विद्यायें और हमारी तकनीक हमारी स्वयं की जीवन पद्धति से निकली हैं, और उनके द्वारा ही हम अपनी और समाज की समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं, अब कोई लल्लू भी आपको यह बता देगा कि भारतीय जीवन पद्धति अमेरिका या यूरोप की जीवन पद्धति से अलग हैं, यूरोपीय विद्याओं और तकनीक में ऐसा सर्वकालिक कुछ भी नहीं हैं, जो किसी भी परिस्थिति में सच हो, जबकि भारतीय चिंतन और दर्शन बीस हज़ार वर्ष पहले भी उतना ही सच था, जितना आज हैं, यहाँ पर मुझे पश्चिम के वैज्ञानिक सुमाकर की उक्ति याद आती हैं, जो उसने किसी भारतीय को कही थी :- “हे वत्स! पश्चिम के मोडल और टेक्नोलॉजी के पीछे पड़े हुए तुम लोगों पर इसीलिए तरस आता हैं, कि तुम अपनी प्रतिभा, शक्ति, समय और पैसा उन समस्याओं के समाधान में बरबाद कर रहे हो जो तुम्हारे समाज की नहीं, मेरे समाज की हैं.” जब आप अपनी चाबी किसी अनजान ताले में लगा कर उसे खोलने की कोशिश करेंगे तो आप ताला तो बिगडेगा ही, उसके साथ ही साथ कुंजी भी, हमने अभी तक यही किया हैं, हमने अपने जीवन और समाज के बंद पड़े तालों को उन चाबियों से खोलने की कोशिश की हैं, जो उनके लिए बनी ही नहीं हैं और इसीलिए हम पिछले सैकड़ों वर्षों से अपने तालों और चाबियों को ख़राब ही कर रहे हैं. हम हैं, और बहुत कुछ हैं, इसका प्रमाण पत्र लेने के लिए किसी दफ्तर में जाने की जरुरत नहीं, हम मृत्युंजयी संस्कृति के देश के बाशिंदे हैं, हमें बाहर से उच्च तकनीक को गले नहीं लगाना हैं, अपितु अन्दर से अपने सत्य का साक्षात्कार करना हैं, और यह हम स्वयं होकर ही कर सकते हैं, अपने मंत्रों के मध्यम से ही अपने योग और दर्शन के द्वारा ही अपनी जिंदगी को पूर्णता दे सकते हैं, हम विविध साधनाओं के द्वारा ही शरीर की धमनियों में बहते हुए, अशुद्ध रक्त को शुद्ध कर सकते हैं, और यह शुद्ध रक्त ही हमारे चेहरे पर पुनः भारतीयता दे सकेगा, हमारी आँखें वापिस अपने आपको पहिचानने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकेगी, और इन विशिष्ट साधनाओं में भाग लेकर ही हम उस आत्म से साक्षात्कार कर सकेंगे जो हमारा स्वयं का आत्म हैं. और जब ऐसा हो सकेगा, तभी हम अपने आपको पहिचान सकेंगे, तभी हम कूड़े के ढेर पर पड़े हुए अपने माँ बाप के चित्रों को पौंछ कर ड्राइंग रूम में लगाने में गौरव अनुभव कर सकेंगे, तभी हम अपने आत्म को जगाकर इष्ट के साक्षात् जाज्वल्यमान दर्शन कर सकेंगे, जो कि हमारे जीवन की पूर्णता हैं, और तभी मैं एहसास कर सकूँगा कि मेरे पांवों में गडे हुए लांखों कांटे और सीने में उठे हुए फफौले राहत दे रहे हैं, कि मुझे विश्वास हैं ऐसा होगा ही, और इसी सत्य को प्रदान करने की कामना लिए हुए, मैं अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हूँ, और बराबर जीवन की अन्तिम साँस तक अग्रसर बना रहूँगा.

-परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज. (सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमालीजी)

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान अप्रैल 2001

Shunya Siddhi शुन्य सिद्धि (शून्य से पदार्थ प्राप्ति की साधना)


Shunya Siddhi शुन्य सिद्धि (शून्य से पदार्थ प्राप्ति की साधना)

नवरात्री में ये साधना करने से सफलता मिल जाता है |

ॐ अस्य श्री विन्ध्याबसिनी महा लक्ष्मी अष्टाक्षर मन्त्रस्य श्री सदाशिव ऋषि: पंक्तिचंद , श्री महालक्ष्मी देवता ,ह्रीं बीजं , ओम शक्ति ,चतुर्बर्गा सिद्धये जापे बिनियोग:||


ऋष्यादिन्यास :::::::>
श्री सदाशिव ऋषि: नमः शिरसि ,पंक्तिचंदसे नमः मुखे,
बिशालाक्षी-श्रीमहालक्ष्मी-देव्तार्य नमः हृदि ,
ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये ,
ओम शक्तये नमः पादयो: ,
चतुर्बर्ग सिद्धाश्रयऐ जापे बिनियोगे नमः सर्बांगे||

ध्यायेद देवी बिशालाक्षी तप्त - जाम्बू - नद प्रभां, द्विभुजम्बिकाम चंडी खडक खर्पर धारिनिम् ||
नानालकार - सुभगाम रक्ताम्बरम धरां शुभां , सदा षोडश बर्षीयाम प्रसन्नास्याम त्रिलोचानम् ||
मुंड मालवली रम्यां पिनोब्नत - पयोधाराम् , बर -दातां महा - देवी जता - मुकुट मन्दिताम् ||
शत्रु क्षयांकारी देवी साधाकाभिस्ट - दायिकाम् ,सर्ब - सौभाग्य - जननीम् महासम्त्प्रदाम् - स्मरेत ||


इसके बाद मोल मंत्र का जाप करे , और नित्य २१ माला जाप करे , इस कार्य में लगभग २ घंटे लगते है .

मंत्र : - ॐ ह्रीं काली महाकाली महाकाली किले किले फट स्वाहा ..

यह मात्र ५ दिन की साधना है .
हकिक माला से या फिर स्फटिक माला से यह मंत्र जाप किये जा सकते है . जिनके पास सर्पस्तियों की माला हो उपयोग में ला सकते है .सामने शून्य सिद्ध यन्त्र पर नज़र रखके मंत्र जाप करे . यह साधना समाप्त हो जाए तब सवा किलो आटा , तिन पाव गुर , तथा एक पाव घी मिलाकर हलवा बनालें ,और किसी मिटटी की बर्तन में यह हलवा रख दें | उस पर ४ दिए जला दें और उन ४ रो दियो के पास पास लाल मिर्च , पांच कोयले के तुकरे तथा पांच लोहे की किले रख दें | साधक रात्रि में जहा ३ रास्ते या ४ रास्ते मिलते हों वहा रख दें , लौटने वक्त पीछे मुरकर न देखे |घर आकार स्नान कर लें || ऐसा करने से शून्य से पदार्थ प्राप्ति की साधना पूरी हों जाती है ||

क्रोध त्याग अवश्य करें ! Anger must sacrifice!


अगर क्रोध आता है तो रोकें नही तो आपके ध्यान, साधना मे कोई भी आपको क्रोध दिलाता रहेगा इसका त्याग अवश्य करें !

क्रोध क्या है?
क्रोध...या गुस्सा एक भावना है। दैहिक स्तर पर क्रोध करने/होने पर हृदय की गति बढ़ जाती है; रक्त चाँप बढ़ जाता है। क्रोध एक आम, स्वस्थ मनोभाव है, किन्तु जब यह हमारे बस के बाहर हो जाता है तब यह विनाशकारी हो जाता है,

गुस्से और क्रोध में क्या फर्क है?

क्रोध उसे कहेंगे, जो अहंकार सहित हो। गुस्सा और अहंकार दोनों मिले, तब क्रोध कहलाता हैं जो घृणा करता है, वह घृणा उत्तर में पाता है। जो क्रोध करता है, वह क्रोध को पैदा करता है। जो वैर करता है, वह वैर को जन्म देता है। और इस श़ृंखला का कोई अंत नहीं है। और इसमें केवल शक्ति ही व्यय हो सकती है। 

क्रोध पर विजय पाना क्यों जरूरी है? क्रोध के आने के कारण क्या-क्या हैं। क्रोध से होने वाली हानियां क्या-क्या है,?

1- क्रोध को जीतने में मौन सबसे अधिक सहायक है।
2- मूर्ख मनुष्य क्रोध को जोर-शोर से प्रकट करता है, किंतु
बुद्धिमान शांति से उसे वश में करता है।
3- क्रोध करने का मतलब है,
दूसरों की गलतियों कि सजा स्वयं को देना।
4- जब क्रोध आए तो उसके परिणाम पर विचार करो।
5- क्रोध से धनी व्यक्ति घृणा और निर्धन तिरस्कार
का पात्र होता है।
6- क्रोध मूर्खता से प्रारम्भ और पश्चाताप पर खत्म होता है।
7- क्रोध के सिंहासनासीन होने पर बुद्धि वहां से खिसक
जाती है।
8- जो मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप में नहीं कह सकता,
उसी को क्रोध अधिक आता है।
9- क्रोध मस्तिष्क के दीपक को बुझा देता है। अतः हमें सदैव
शांत व स्थिरचित्त रहना चाहिए।
10- क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत
हो जाती है, स्मृति भ्रांत हो जाने से बुद्धि का नाश
हो जाता है और बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं नष्ट
हो जाता है।
11- क्रोध यमराज है।
12- क्रोध एक प्रकार का क्षणिक पागलपन है।
13-क्रोध में की गयी बातें अक्सर अंत में उलटी निकलती हैं।
14- जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं करता और
क्षमा करता है वह अपनी और क्रोध करने वाले की महासंकट
से रक्षा करता है।
15- सुबह से शाम तक काम करके
आदमी उतना नहीं थकता जितना क्रोध या चिन्ता से पल
भर में थक जाता है।
16- क्रोध में हो तो बोलने से पहले दस तक गिनो, अगर
ज़्यादा क्रोध में तो सौ तक।
17- क्रोध क्या हैं ? क्रोध भयावह हैं, क्रोध भयंकर हैं, क्रोध
बहरा हैं, क्रोध गूंगा हैं, क्रोध विकलांग है।
18- क्रोध की फुफकार अहं पर चोट लगने से उठती है।
19- क्रोध करना पागलपन हैं, जिससे सत्संकल्पो का विनाश
होता है।
20- क्रोध में विवेक नष्ट हो जाता है।



क्रोध पर विजय कैसे प्राप्त करें?

मनोविकारों पर विजय प्राप्त करने के लिए सबसे पहले उनके बारे में पूरी समझ का होना जरूरी है। बिना गहरी समझ के किसी भी दोष (विकार) पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करना सहज सम्भव नहीं होता। क्रोध विकार पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिए हमें यह जानना होगा कि क्रोध क्या है? क्रोध पर विजय पाना क्यों जरूरी है? क्रोध के आने के कारण क्या-क्या हैं। क्रोध से होने वाली हानियां क्या-क्या है,? क्रोध पर विजय प्राप्त करने के लिए उपाय क्या-क्या हैं?
क्रोध क्या है?
क्रोध और कुछ नहीं अपितु एक नकारात्मक भाव है। मानसिक पटल पर उभरी हुई किसी क्रिया की यह आक्रामक प्रतिक्रिया मात्र है। इस प्रतिक्रिया के कारण शरीर के समूचे स्नायविक तन्त्र (नर्वस सिस्टम) में आक्रामक भाव की तरंगें पैदा हो जाती हैं। यह प्रतिक्रिया अपने स्व के अस्तित्व की पूर्णतः विस्मृति की अवस्था में होती है। यह पूरी तरह बहिर्मुखी चेतना होती है। बहिर्मुखी वृत्ति ंिहंसात्मक होती है। बहिर्मुखी आत्म से अंहिसा की आशा नहीं की जा सकती। क्रोध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा ही है। इस मानसिक अवस्था में आत्मा की बुद्धि किसी घटना, परिस्थिति, व्यक्ति या विचार से अत्यन्त सम्बन्द्ध हो जाती है। इसलिए बुद्धि की निर्णय शक्ति समाप्त हो जाती है। शरीर की सभी मुद्राऐं हिंसात्मक अर्थात् आक्रामक हो जाती हैं। मनोविज्ञान के अनुसार यह प्रतिक्रिया (क्रोध) अपनी तीव्रता या मंदता की अवस्था की हो सकती है।
क्रोध से हानियां
क्रोध के प्रभाव से शरीर की अन्तःश्रावी प्रणाली पर बुरा असर पड़ता है। क्रोध से रोग प्रतिकारक शक्ति कम हो जाती है। हार्ट एटैक, सिर दर्द, कमर दर्द, मानसिक असन्तुलन जैसी अनेक प्रकार की बीमारियां पैदा हो जाती हैं। परिवार में कलह-क्लेश मारपीट होने से नारकीय वातावरण हो जाता है। सम्बन्ध विच्छेद हो जाते हैं। जीवन संघर्षों से भर जाता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व (चरित्र) खराब हो जाता है। क्रोध से शारीरिक व मानसिक रूप से अनेक प्रकार की हानियां ही हानियां हैं।
क्रोध के कारण
क्रोध के कारण क्या-क्या हो सकते हैं? जैसेः- जब कोई व्यक्ति इच्छा पूर्ति में बाधा डाले या असहयोग करे, तब होने वाली प्रतिक्रिया ही क्रोध का रूप होती है। यदि कोई व्यक्ति अधिक समय तक चिन्ताग्रस्त रहे, तब भी वह मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाता है। इस के कारण छोटी-छोटी बातों में क्रोध आता है। आहार का हमारे विचारों पर बहुत असर पड़ता है। जैसा आहार, वैसा विचार। तामसिक और राजसिक आहार का सेवन करने से शारीरिक रासायनों का सन्तुलन बिगड़ता है। हारमोन्स का प्रभाव असन्तुलित हो जाता है। इसका मस्तिश्क पर बुरा असर पड़ता है। प्रकृति के नेगेटिव ऊर्जा के प्रभाव के कारण विचार ज्यादा चलने लगते हैं। अनियंत्रित मानसिक स्थिति में क्रोध के शीघ्र आने की सम्भावनाएं बढ़ जाती है। नींद कुदरत का वरदान है। नींद से ऊर्जा के क्षय की पूर्ति होती है। अन्तःश्रावी ग्रन्थियों से निकलने वाले हारमोन्स संतुलित रहते हैं। शरीर की सभी कोशिकाएं तरोताजा हो जाती हैं। यदि अनुचित आहार, चिन्ता या अन्य किसी भी कारण से नींद गहरी नहीं होती है, तब कोशिकाएं ऊर्जा वान नहीं रहती। ऐसी स्थिति में भी क्रोध आने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं। किसी भी ज्ञात या अज्ञात कारण से यदि शरीर से पित्त की वृद्धि हो जाती है, तब भी हारमोन्स असन्तुलित हो जाते हैं। यह राजसिक आहार के कारण भी हो सकता है। नेगेटिव दृष्टिकोण के कारण भी पित्त (एसिड) में वृद्धि हो सकती है। पित्त वृद्धि के कारण स्वभाव चिड़चिड़ा होने या क्रोध आने की सम्भावना बढ़ जाती है। अधिक समय से अस्वस्थ्य रहने से हाने वाली शारीरिक व मानसिक कमजोरी भी क्रोध आने का एक कारण बनती है। मैं ही ठीक हूं। मेरी बात ही ठीक है। यह अपनी बात मनवाने की मानसिकता क्रोध आने का कारण बनती है। जब हम दूसरों को जबरदस्ती कन्ट्रोल करना चाहते हैं। लेकिन कन्ट्रोल करने में असफल होते हैं तब क्रोध आने की सम्भावना रहती है। जब कोई झूठ बोलता है। इसने झूठ क्यों बोला? झूठ बोलने वाले पर गुस्सा आता है। झूठ को सहन नहीं कर सकने पर क्रोध आता है। न्याय न मिलने पर या अन्याय होने पर गुस्सा आता है। यदि व्यर्थ की टीका- टिप्पणी पसन्द नहीं है। कोई व्यर्थ ही टीका-टिप्पणी करता है, तब उस पर क्रोध आता है। कभी-कभी क्रोध ऐसे ही नहीं आता बल्कि हम पहले से ही अन्दर-अन्दर सोचकर प्रोग्रामिंग कर देते हैं। फलां आदमी ऐसे ऐसे कहेगा, तो मैं ऐसे ऐसे जवाब दूंगा। क्रोध पर विजय प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक और व्यवहारिक ज्ञान की बौद्धिक समझ के साथ साथ राजयोग के गहन अभ्यास का द्विआयामी पुरुषार्थ अनिवार्य है। आध्यात्मिक व व्यवहारिक बौद्धिक समझ:- इस विश्‍व नाटक में हर आत्मा का अपना अपना अविनाशी अभिनय है। वह अपना पार्ट ड्रामानुसार ठीक प्ले कर रही है। उसका सहयोग देना, न देना और अवरोध करना, वह इसमें भी स्वतन्त्र नहीं है। परतन्त्र परवश आत्मा के साथ क्रोध की प्रतिक्रिया का क्या औचित्य? स्वयं की शक्तियों को पहचान कर आत्मनिर्भरता में विश्‍वास करना चाहिए। अनावश्‍यक अपेक्षाओं को मन में नहीं पालना चाहिए। अपने चिन्तन को श्रेष्‍ठ बनायें। चिन्ता वे ही करतें है, जिनके जीवन में कोई परिस्थिति विशेष हो और जिन की गहरी समझ नहीं हो। आध्यात्मिक व्यक्तित्व की धनी आत्माएं कभी चिन्ता नहीं करती अपितु वे तो एकाग्र चिन्तन करती हैं। आध्यात्म के सैद्धान्तिक ज्ञान के मनन-मंथन से मानसिक विक्षिप्तता हो नहीं सकती। शरीर की आयु और कर्मयोगी जीवन की परि पक्वता के आधार पर नींद की आवश्‍यकता कम-ज्यादा होती है। आवश्‍यकता के अनुसार नींद का औसतन समय 5 से 6 घंटे हो सकता है। औसतन समय जो भी हो लेकिन एक बात का ध्यान रखना है कि नींद गहरी होनी चाहिए। इसके लिये काम और विश्राम (नींद) दोनों का सन्तुलन रखना चाहिए। शरीरिक या बौद्धिक कार्य की थकान के बाद गहरी नींद आ सकती है। नींद की जितनी गहराई बढ़ती है। उतनी ही लम्बाई घटती है। सामान्यतः एक कर्मयोगी को सात्विक आहार के सेवन के महत्व को समझ कर अपने आहार को सात्विक और सन्तुलित रखना चाहिए। ऐसे आहार का परित्याग कर देना चहिए जो रासायनिक प्रक्रिया के बाद तेजाब (ऐसिड) ज्यादा बनाता हो। आहार को सात्विक और सन्तुलित रख पित्त को बढ़ने नहीं देना चाहिए। दृष्टिकोण सदा पाॅजिटिव ही रखना चाहिए। अशुभ (नेगेटिव) शुभ का शत्रु न मानें। नेगेटिव तो पाॅजिटिव का अवरुद्ध है और कुछ नहीं। नकारात्कता, सकारात्मकाता की अनुपस्थिति है। समय प्रति समय अपनी शारीरिक जांच कराते रहना चाहिए। स्वयं की प्रकृति की पूरी समझ होना आवश्‍यक है। स्वयं को प्रकृति से अलग समझ प्रकृति के साथ सद्भाव सामंजस्य का भाव रखना चाहिए। व्यायाम आदि के द्वारा स्वयं को शारीरिक रूप से स्वस्थ रखना चाहिए। किसी एक ही बात को देखने समझने के अनेक दृष्टिकोण हो सकते हैं। किसी हद तक हर आदमी अपनी बात को ठीक समझ कर ही अपने दृष्टिकोण बनाता है। लेकिन यह जरूरी नहीं कि सभी दृष्टिकोण सदा ही ठीक या मान्य समझें जायें इसलिए दृश्टिकोण को ठीक ठहराने की जिद्द ना करते हुए स्वयं को शान्त रखना चाहिए। अपनी दृष्टि का कोण बदल समाधान की भाषा में सोचना चाहिए। यह याद रखना चाहिए कि झूठ के पैर नहीं होते। झूठ अधिक समय तक चल नहीं सकता। अन्तिम विजय सत्य की ही होती है। इस विश्‍व नाटक में अन्याय में भी कहीं ना कहीं न्याय छिपा होता है। वह दिखाई न देने पर भी कहीं न कहीं मौजूद रहता है। यह याद रखें कि ईश्‍वर के दरबार में देर हो सकती है लेकिन कभी अन्धेर नहीं होती। सांच को आंच नहीं के सिद्धांत पर अटल रहना चाहिए। किसी भी परिस्थिति में तुरन्त प्रतिक्रिया नहीं करने की आदत बना लेनी चाहिए। परिस्थिति विशेष में न कोई क्रिया और न प्रतिक्रिया की साक्षीपन की स्थिति के क्रोध आदि किसी भी मनोविकार पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। व्यवहार में आत्मीयता है, तो क्रोध की स्थिति ही पैदा नहीं होती। अपनेपन की भावना रख आपस में एक दूसरे को ठीक ठीक समझना चाहिए। अनुमान, शंका, संदेह से सदा दूर रहना चाहिए। पारस्परिक विचारों और भावनाओं का सम्प्रेशण सही समय पर सही व्यक्ति के साथ होना चाहिए। व्यर्थ और नकारात्मक भावनाओं को पनपनें ही नहीं देना चाहिए। किसी भी बात को ज्यादा गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए। बातों को हल्के रूप से लेकर उनका निरा-करण करना चाहिए।राजयोग के अभ्यास द्वारा अपने चिन्तन को यथार्थ और सकारात्मक बनायें। स्वयं से स्वयं की बातें करनी चाहिए। 
मैं कौन हूं? 
मेरा यथार्थ परिचय क्या है?
 मैं किस स्थान पर हूं? 
मेरे कर्तव्य क्या-क्या हैं?
 मुझे करना क्या है?
 अपनी महानताओं और सम्भावनाओं को याद करना चाहिए। अन्तर्मुखी होकर अपनी आध्यात्म जगत की महानताओं के चित्रांकन द्वारा उन्हें यथार्थ रूप से महसूस करना चाहिए। आत्म केन्द्रित हो अपनी आत्म ज्योति को अपने मस्तक सिंहासक भृकुटि में देखने को अभ्यास करना। इस अभ्यास को प्रातः व सायं कम से कम 6 महीने तक करना चाहिए। परमात्म ज्योति को देखने और उसके साथ भावनात्मक रूप से (कम्बाइन्ड) एकाकार होने का अभ्यास करना। यह अभ्यास भी प्रातः व सायं कम से कम 6 महीने तक करना चाहिए। आत्मा के मूल गुण पवित्रता का चिन्तन और अनुभूति का लक्ष्य रखकर राजयोग का अभ्यास करना। बुद्धि रूपी नेत्र से देखना कि पवित्रता की सफेद किरणें मेरे सिर के ऊपर से उतर रही हैं और मैं आत्मा शीतलता का अनुभव कर रही/रहा हूं। कम से कम 6 महीने दिन में 4 बार अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार यथार्थ बौद्धिक समझ और राजयोग के विधि पूर्वक अभ्यास के द्वारा क्रोध पर सम्पूर्ण विजय सम्भव है।

अघोर शिव साधना Aghor Shiv Sadhana

अघोर शिव साधना
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कितना भी लिखने का प्रयास करू परंतु मेरे इष्ट शिव जी का स्तुति मेरे लिये संभव नहीं,क्यूके उनका हर रूप निराला है उनकी पुजा किसी भी समय कीजिये अनुभूतिया तो येसा-येसा मिलेगा के सम्पूर्ण जीवन उनके गुण-गान गाने मे ही निकल जायेगा ,येसा समय आज तक शिवभक्तों के जीवन मे नहीं आया होगा जिस दिन उन्हे शिव कृपा प्राप्त ना हुआ हो,आज एक दिव्य साधना दे रहा हु जो मेरा ही बल्कि बहोत से शिव भक्तो का अनुभूतित साधना है और एक बात इस साधना को किए बिना चाहे कितना भी महाविद्या साधना कर लीजिये प्रत्यक्ष अनुभूतिया शीघ्र नहीं मिलेगा,इसलिये “अघोर शिव साधना” प्रत्येक साधक के जीवन मे लक्ष्य प्राप्ति के और बढ़ने का एक आसान सा मार्ग है,जिसने अघोरत्व प्राप्त कर लिया वह तो जीवन मे सब कुछ प्राप्त कर लेता है अन्यथा जीवन जीने का हर एक अंदाज व्यर्थ ही इच्छा पूर्ति हेतु गमा देता है॰इस साधना से सभी प्रकार के ग्रह दोषो से मुक्ति मिलता है,सभी साधना मे पूर्ण सफलता है,सभी प्रकार के तंत्र से रक्षा प्राप्त होता है अगर पुराना कोई मंत्र-तंत्र दोष किसी साधक के जीवन मे हो चाहे वह इस जन्म का हो या पूर्वजन्म को हो तो समाप्त हो जाता है,चाहे साबर मंत्र हो,वैदिक हो या अघोर मंत्र हो इनमे इस साधना को सम्पन्न करने के पच्छात पूर्ण सफलता मिलता है,साधना के समय शरीर मेबहोत ज्यादा गर्मी महसूस होगी येसे समय मेघबराना मत और साधना को अधूरा नहीं छोड़ना है,येसे समय मे दुर्गंध या डरावना आवाज आ सकता है तो यह आपका साधना सफलता है जिसे आपको महसूस करना है,इस साधना के माध्यम से भोले बाबा भक्तो को स्वप्न मे दर्शन भी प्रदान
करते है और आशीर्वाद भी..............
प्रार्थना:-
जय शम्भो विभो अघोरेश्वर स्वयंभो जय शंकर ।
जयेश्वर जयेशान जय जय सर्वज्ञ कामदं ॥


मंत्र-
॥ ॐ ह्रां ह्रीं हूं अघोरेभ्यो सर्व सिद्धिं देही देही अघोरेश्वराय हूं ह्रीं ह्रां ॐ फट ॥

11 माला रुद्राक्ष या काले हकीक से जाप करना है.........
इशान्य दिशा के और मुख हो,आसान-वस्त्र काले रंग के उत्तम होते है परंतु आपके पास जो भी हो उसे ही इस्तेमाल करे,माला रुद्राक्ष या काले हकीक का हो,पारद शिवलिंग हो तो ठीक है या फिर जो भी शिवलिंग हो ...
का पूजन आप करते है उसी पर साधना सम्पन्न करे,साधना से पूर्व गुरु गणेश पूजन करे और लोहे के कील से अपने आसन को गोल-गोल “ॐ रं अग्नि-प्रकाराय नम:” मंत्र बोलकर घेरा बनाये,जिससे आपका अदृश्य शक्ति से रक्षा हो,माथे पर महामृत्युंजय मंत्र बोलकर बस्म+चन्दन से तिलक करिये,साधना समाप्ती के बाद पाच बिल्वपत्र +दुग्ध युक्त जल,अक्षत (चावल),गंध,वस्त्र,पुष्प,लड्डू का भोग,दक्षिणा मुख्य मंत्र बोलकर चढ़ाये,इस साधना मे 11 माला मंत्र जाप करना है,साधना एक दिवसीय है परंतु तीन दिन तक करने का प्रयास कीजिये ताकि सर्व कार्य किस समस्या के पूर्ण हो सके॰आपको भोले बाबा का आशीर्वाद प्राप्त हो
यही कामना करता हु.........
श्री सदगुरुजीचरनार्पणमस्तू...

गुरुमंत्र की शक्तियाँ Guru Mantra ki shakti


गुरुमंत्र की शक्तियाँ

रक्षण शक्तिः -
ॐ सहित मंत्र का जप करते हैं तो वह हमारे जप तथा पुण्य की रक्षा करता है।
किसी नामदान के लिए हुए साधक पर यदि कोई आपदा आनेवाली है,कोई दुर्घटना घटने वाली है तो मंत्र भगवान उस आपदा को शूली में से काँटा कर देते हैं। साधक का बचाव कर देते हैं। ऐसा बचाव तो एक नहीं,मेरे हजारों साधकों के जीवन में चमत्कारिक ढंग से महसूस होता है। गाड़ी उलट गयी,तीन गुलाटी खा गयी किंतु .....हमको खरोंच तक नहीं आयी.... ! हमारी नौकरी छूट गयी थी,ऐसा हो गया था, वैसा हो गया था किंतु बाद में उसी साहब ने हमको बुलाकर हमसे माफी माँगी और हमारी पुनर्नियुक्ति कर दी। पदोन्नति भी कर दी... इस प्रकार की न जाने कैसी-कैसी अनुभूतियाँ लोगों को होती हैं। ये अनुभूतियाँ समर्थ भगवान की सामर्थ्यता प्रकट करती हैं।

गति शक्तिः -
जिस योग में,ज्ञान में,ध्यान में आप फिसल गये थे, उदासीन हो गये ,किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे उसमें मंत्र दीक्षा लेने के बाद गति आने लगती है। मंत्र दीक्षा के बाद आपके अंदर गति शक्ति कार्य में आपको मदद करने लगती है।

कांति शक्तिः-
मंत्रजाप से जापक के कुकर्मों के संस्कार नष्ट होने लगते हैं और उसका चित्त उज्जवल होने लगता है। उसकी आभा उज्जवल होने लगती है, उसकी मति-गति उज्जवल होने लगती है और उसके व्यवहार में उज्जवलता आने लगती है।इसका मतलब ऐसा नहीं है कि आज मंत्र लिया और कल सब छूमंतर हो जायेगा... धीरे-धीरे होगा। एक दिन में कोई स्नातक नहीं होता, एक दिन में कोई एम.ए. नहीं पढ़ लेता, ऐसे ही एक दिन में सब छूमंतर नहीं हो जाता। मंत्र लेकर ज्यों-ज्यों आप श्रद्धा से, एकाग्रता से और पवित्रता से जप करते जायेंगे त्यों-त्यों विशेष लाभ होता जायेगा।

प्रीति शक्तिः-
ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों मंत्र के देवता के प्रति,मंत्र के ऋषि,मंत्र के सामर्थ्य के प्रति आपकी प्रीति बढ़ती जायेगी।

तृप्ति शक्तिः-
ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों आपकी अंतरात्मा में तृप्ति बढ़ती जायेगी, संतोष बढ़ता जायेगा। जिन्होंने नियम लिया है और जिस दिन वे मंत्र नहीं जपते,उनका वह दिन कुछ ऐसा ही जाता है। जिस दिन वे मंत्र जपते हैं,
उस दिन उन्हें अच्छी तृप्ति और संतोष होता है।जिनको गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है उनकी वाणी में सामर्थ्य आ जाता है। नेता भाषण करता है तो लोग इतने तृप्त नहीं होते, किंतु जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है ऐसे महापुरुष बोलते हैं तो लोग बड़े तृप्त हो जाते हैं ।

अवगम शक्तिः-
मंत्रजाप से दूसरों के मनोभावों को जानने की शक्ति विकसित हो जाती है।
दूसरे के मनोभावों को आप अंतर्यामी बनकर जान सकते हो। कोई व्यक्ति कौन सा भाव लेकर आया है ? दो साल पहले उसका क्या हुआ था या अभी उसका क्या हुआ है ?उसकी तबीयत कैसी है? लोगों को आश्चर्य होगा किंतु आप तुरंत बोल दोगे कि 'आपको छाती में जरा दर्द है... आपको रात्रि में ऐसा स्वप्न आता है....कोई कहे कि 'महाराज ! आप तो अंतर्यामी हैं।' वास्तव में यह भगवत्शक्ति के विकास की बात है।

प्रवेश अवति शक्तिः-
अर्थात् सबके अंतरतम की चेतना के साथ एकाकार होने की शक्ति। अंतःकरण के सर्व भावों को तथा पूर्वजीवन के भावों को और भविष्य की यात्रा के भावों को जानने की शक्ति कई योगियों में होती है। वे कभी-कभार मौज में आ जायें तो बता सकते हैं कि आपकी यह गति थी,आप यहाँ थे,फलाने जन्म में ऐसे थे,अभी ऐसे हैं। जैसे दीर्घतपा के पुत्र पावन को माता-पिता की मृत्यु पर उनके लिए शोक करते देखकर उसके बड़े भाई पुण्यक ने उसे उसके पूर्वजन्मों के बारे में बताया था। यह कथा योगवाशिष्ठ महारामायण में आती है।

श्रवण शक्तिः-
मंत्रजाप के प्रभाव से जापक सूक्ष्मतम,गुप्ततम शब्दों का श्रोता बन जाता है।
जैसे,शुकदेवजी महाराज ने जब परीक्षित के लिए सत्संग शुरु किया तो देवता आये।
शुकदेवजी ने उन देवताओं से बात की। माँ आनंदमयी का भी देवलोक के साथ सीधा
सम्बन्ध था। और भी कई संतो का होता है। दूर देश से भक्त पुकारता है कि गुरुजी !
मेरी रक्षा करो... तो गुरुदेव तक उसकी पुकार पहुँच जाती है !

स्वाम्यर्थ शक्तिः-
अर्थात् नियामक और शासन का सामर्थ्य। नियामक और शासक शक्ति का सामर्थ्य विकसित करता है प्रणव का जाप।

याचन शक्तिः-
अर्थात् याचना की लक्ष्यपूर्ति का सामर्थ्य देनेवाला मंत्र।
क्रिया शक्तिः-
अर्थात् निरन्तर क्रियारत रहने की क्षमता, क्रियारत रहनेवाली चेतना
का विकास।

इच्छित अवति शक्तिः-
अर्थात् वह ॐ स्वरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं तो निष्काम है किंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले व्यक्ति का मनोरथ पूरा करने का सामर्थ्य आ जाता है।
इसीलिए संतों के चरणों में लोग मत्था टेकते हैं, कतार लगाते हैं,प्रसाद धरते हैं,आशीर्वाद माँगते हैं आदि आदि।

इच्छित अवन्ति शक्ति:-
अर्थात् निष्काम परमात्मा स्वयं शुभेच्छा का
प्रकाशक बन जाता है।

दीप्ति शक्तिः-
अर्थात् ओंकार जपने वाले के हृदय में ज्ञान का प्रकाश बढ़ जायेगा।
उसकी दीप्ति शक्ति विकसित हो जायेगी।

वाप्ति शक्तिः-
अणु-अणु में जो चेतना व्याप रही है उस चैतन्यस्वरूप ब्रह्म के साथ आपकी
एकाकारता हो जायेगी।

आलिंगन शक्तिः-
अर्थात् अपनापन विकसित करने की शक्ति। ओंकार के जप से पराये भी अपने होने लगेंगे तो अपनों की तो बात ही क्या ?जिनके पास जप-तप की कमाई नहीं है उनको
तो घरवाले भी अपना नहीं मानते,किंतु जिनके पास ओंकार के जप की कमाई है उनको घरवाले, समाजवाले,गाँववाले,नगरवाले,राज्य वाले,राष्ट्रवाले तो क्या विश्ववाले भी अपना मानकर आनंद लेने से इनकार नहीं करते।

हिंसा शक्तिः-
ओंकार का जप करने वाला हिंसक बन जायेगा ?हाँ,हिँसक बन जायेगा किंतु कैसा हिंसक बनेगा ?दुष्ट विचारों का दमन करने वाला बन जायेगा और दुष्टवृत्ति के लोगों के दबाव में नहीं आयेगा। अर्थात् उसके अन्दर अज्ञान को और दुष्ट सरकारों
को मार भगाने का प्रभाव विकसित हो जायेगा।

दान शक्तिः-
अर्थात् वह पुष्टि और वृद्धि का दाता बन जायेगा। फिर वह माँगनेवाला नहीं रहेगा,देने की शक्तिवाला बन जायेगा। वह देवी-देवता से,भगवान से माँगेगा नहीं,
स्वयं देने लगेगा।

भोग शक्तिः-
प्रलयकाल स्थूल जगत को अपने में लीन करता है, ऐसे ही तमाम दुःखों को, चिंताओं को,भयों को अपने में लीन करने का सामर्थ्य होता है प्रणव का जप करने वालों में। जैसे दरिया में सब लीन हो जाता है, ऐसे ही उसके चित्त में सब लीन हो जायेगा और वह अपनी ही लहरों में फहराता रहेगा,मस्त रहेगा... नहीं तो एक-दो दुकान,एक-दो कारखाने वाले को भी कभी-कभी चिंता में चूर होना पड़ता है।
किंतु इस प्रकार की साधना जिसने की है उसकी एक दुकान या कारखाना तो क्या,एक आश्रम या समिति तो क्या,1100,1200 या 1500 ही क्यों न हों,सब उत्तम प्रकार से चलती हैं !उसके लिए तो नित्य नवीन रस, नित्य नवीन नंद,नित्य नवीन मौज रहती है।शादी अर्थात् खुशी ! वह ऐसा मस्त फकीर बन जायेगा।

वृद्धि शक्तिः-
अर्थात् प्रकृतिवर्धक, संरक्षक शक्ति। गुरुदेव का जप करने वाले में प्रकृतिवर्धक और
सरंक्षक सामर्थ्य आ जाता है।

Guru disciple religion speech शिष्य धर्म गुरु वाणी

शिष्य धर्म गुरु वाणी






















जीवन में तुम्हें रुकना नहीं है, निरंतर आगे बढ़ना है क्यूंकि जो साहसी होते हैं, जो दृढ़ निश्चयी होते हैं जिनके प्राणों में गुरुत्व का अंश होता है, वही आगे बढ़ सकता है.. और इस आगे बढ़ने में जो आनंद है, जो तृप्ति है, वह जीवन का सौभाग्य है.
***
गृहस्थ से भागने की जरुरत नहीं है, जरुरत है, एक तरफ खड़े होकर देखने की, तुम्हारी एक आँख गृहस्थ में हो, तो दूसरी आँख गुरु चरणों में नमन युक्त होनी चाहिए. तब तुम्हारे जीवन में कोई न्यूनता रहेगी ही नहीं क्यूंकि वह नमन युक्त आँख तुम्हारे जीवन को पूरी तरह से संवार देगी, सजग कर देगी, प्रकाशित कर देगी.
***
उन सन्यासी शिष्यों ने मेरे आनंद का अमृत चखा है, और इसलिए वो मेरी उपस्थिति के बिना भी मस्त हैं, चैतन्य हैं, नृत्य युक्त हैं, और मैं वही अमृत बांटने आया हूँ, तुम इस अमृत को तृप्ति के साथ चखो, और तुम्हें एहसास होगा की तुम्हारा जीवन संवर गया है, तुम्हारा जीवन जगमगाहट देने लगा है.
***
पिछले जीवन में तुम्ही तो थे, जो मुझसे अलग हुए थे, मैं तुम्हें आवाज़ दे रहा था और तुम नकली स्वप्नों के पीछे पीठ मोड़कर भाग रहे थे, और तुमने अपने कान मेरी आवाज़ सुनने के लिए बंद कर दिए थे, और उसी का परिणाम तुम्हारी ये चिंताएं हैं, ये परेशानियाँ हैं, ये जीवन की बाधाएं हैं.
***
तुम्हें जीवन में कुछ भी विचार करने की जरुरत नहीं है, क्यूंकि मैं प्रतिक्षण प्रतिपल तुम्हारे साथ हूँ, मुझे मालुम है की तुम्हें किस लक्ष्य तक पहुँचाना है, तुम्हें तो चुपचाप अपना हाथ मुझे सौंप देना है आगे का कार्य तो मेरा है.
***
तुम्हें साधना के और सिद्धियों के मोती नहीं मिल रहे हैं, तो यह कसूर तो तुम्हारा ही है, क्यूंकि तुम्हें समुद्र में गहरायी के साथ उतरने की क्रिया नहीं आई, तुममे पूर्ण रूप से डूबने का भाव नहीं आया, गुरु के ह्रदय सागर में निश्चिंत होकर दुबकी लगाने की क्षमता नहीं आई, और जिस दिन तुम गहराई के साथ गुरु के ह्रदय में डूब सकोगे, तब वापिस बाहर आते समय तुम्हारी दोनों हथेलियाँ “सिद्धि” के मोतियों से भरी होंगी.
***
शिष्य का तात्पर्य नजदीक आना है, और ज्यादा नजदीक, इतना नजदीक, कि गुरु के प्राणों में समा जाये, एकाकार हो जाये, गुरु की धड़कनों में अपनी धडकनें मिला ले, और जब ऐसा होगा तो तुम्हारे अन्दर स्वतः गुरुत्व प्रारम्भ हो जायेगा, स्वतः दिव्यत्व प्रारम्भ हो जाएगा, और स्वतः सिद्धियाँ तुम्हारे सामने नृत्य करती सी प्रतीत होंगी.


Mantra Tantra Yantra Vigyan Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimaliji

शिष्य धर्म, काही विधि करूं उपासना shisya dhram, do some form of worship

विवेकानन्द सात साल तक साधना में लगे रहे । भोजन में किसी पवित्र घर की ही भिक्षा खाते थे । साधन- भजन के दिनों में बहिर्मुख निगुरे लोगों के हाथ का अन्न कभी नहीं लेते थे । पवित्र घर की रोटी भिक्षा में लेते और वह रोटी लाकर रख देते थे । ध्यान करते जब भूख लगती तो रोटी खा लेते थे । कभी तो सात दिन की बासी रोटी हो जाती । उसको चबाते-चबाते मसूढ़ों में खून निकल आता । फिर भी विवेकानन्द आध्यात्मिक मार्ग पर डटे रहे ।
ऐसा नहीं सोचते थे कि "घर जाकर ताजा रोटी खाकर भजन करेंगे ।" वे
जानते थे कि कितनी भी कठिनाई आ जाये फिर भी आत्मज्ञान पाना ज़रुरी है । गुरु के वचनों का साक्षात्कार करना ज़रूरी है । जो बुद्धिमान ऐसा समझता है उसको प्रत्येक मिनट का सदुपयोग करने की रुचि होती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि ध्यान करो, नियम करो, सुबह जल्दी उठकर संध्या में बैठो ।
जो अपनी ज़िन्दगी की कदर करता है वह तत्पर हो जाता है । जिसका मन मूर्ख है और वह खुद मन का गुलाम है, वह तो चाबुक खाने के बाद
थोड़ा चलेगा और फिर चलना छोड़ देगा । मूर्ख हृदय न चेत
यद्यपि गुरु मिलहीं बिरंचि सम। भले ब्रह्माजी गुरु मिल जायें फिर भी मूर्ख
आदमी सावधान नहीं रहता । बुद्धिमान आदमी गुरु की युक्ति पर डट जाता है । जैसे, एकलव्य गुरु की मूर्ति बनाकर अभ्यास में लग जाता था । कोई गलती होती थी तो अपना कान पकड़ता था । बाँये हाथ से कान पकड़ता था और दायाँ हाथ गुरु का मानकर चाँटा मारता था । ऐसा करते करते गुरु की मूर्ति के आगे धनुर्विद्या सीखा और उसमें श्रेष्ठता प्राप्त की । जो गुरु वचन लग जाते हैं उन्हे हजार विघ्न-बाधाएँ भी आयें फिर भी आध्यात्मिक रास्ता नहीं छोड़ते
। सबसे ऊँचे पद का साक्षात्कार कर ही लेते हैं । ऐसे आत्मवेत्ता अदभुत होते हैं ।