भैरवी - भाग १
स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते हैं।
तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है। यह तंत्र एक निश्चित मर्यादा है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो, अथवा वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी 'शक्ति' का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, 'शक्ति' पर आधारित है। कदाचित इसका रहस्य यही है, कि साधक को इस बात का साक्षात करना होता है, कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते है, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं व् संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारणवश तंत्र के क्षेत्र में तो पग-पग पर गुरु साहचर्य की आवश्यकता पड़ती है, अन्य मार्गों की अपेक्षा कहीं अधिक।
जब इस मर्यादा का किसी कारणवश लोप हो गया और समाज की स्मृति में केवल इतना ही शेष रह गया, कि तंत्र के क्षेत्र में भैरवी का साहचर्य करना होता है, तभी व्यभिचार का जन्म हुआ, क्योंकि ऐसी स्थिति में पग-पग संभालने के लिए सदगुरुदेव की वह चैतन्य शक्ति नहीं रही। यह भी संभव है, कि कुछ दूषित प्रवृत्तियों के व्यक्तियों ने एक श्रेष्ठ परम्परा को अपनी वासनापूर्ति के रूप में अपना लिया हो, किन्तु यह तो प्रत्येक दशा में सत्य है ही, कि इस मार्ग में सदगुरु की महत्ता को विस्मृत कर दिया गया।
जो श्रेष्ठ साधक है, वे जानते है, कि तंत्र के क्षेत्र में प्रवेश के पूर्व श्मशान पीठ एवं श्यामा पीठ की परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी होती हैं, तभी साधक उच्चकोटि के रहस्यों को जानने का सुपात्र बन पाता है। भैरवी साधना इसी श्रेणी की साधना है, किन्तु श्यामा पीठ साधना से कुछ कम स्तर की। वस्तुतः जब भैरवी साधना का संकेत सदगुरुदेव से प्राप्त हो जाय, तब साधक को यह समझ लेना चाहिए, कि वे उसे तंत्र की उच्च भावभूमि पर ले जाने का मन बना चुके हैं। भैरवी साधना, भैरवी साधना के उपरांत श्यामा साधना और तब वास्तविक तंत्र की साधना का प्रारम्भ होता है, जहां साधक अपने ही शरीर के तंत्र को समझता हुआ, अपनी ही अनेक अज्ञात शक्तियों से परिचय प्राप्त करता हुआ न केवल अपने ही जीवन को धन्य कर लेता है, वरन सैकडों-हजारों के जीवन को भी धन्य कर देता है।
व्यक्ति के अनेक बंधनों में से सर्वाधिक कठिन बंधन है उसकी दैहिक वासनाओं का - और तंत्र इसी पर आघात कर व्यक्ति को एक नया आयाम दे देता है। वास्तविक तंत्र केवल वासना पर आघात करता है, न कि व्यक्ति की मूल चेतना पर। इसी कारणवश एक तांत्रिक किसी भी अन्य योगी या यति से अधिक तीव्र एवं प्रभावशाली होता है।
'भैरवी' के विषय में समाज की आज जो धारणा है, उसे अधिक वर्णित करने की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु मैंने अपने जीवन में भैरवी का जो स्वरुप देखा, उसे भी वर्णित कर देना अपना धर्म समझता हूं। शेष तो व्यक्ति की अपनी भावना पर निर्भर करता है, कि वह इसे कितना सत्य मानता है अथवा उसे अपनी धारणाओं के विपरीत कितना स्वीकार्य होता है।
आज से कई वर्ष पूर्व मैं अपने सन्यस्त जीवन में साधना के कठोर आयामों से गुजर रहा था, उसी मध्य मुझे भैरवी-साहचर्य का अनुभव मिल सका। संन्यास का मार्ग एक कठोर मार्ग तो होता ही है, साथ ही उसकी कुछ ऐसी जटिलताएं होती हैं, जिसे यदि मैं चाहूं, तो वर्णित नहीं कर सकता, क्योंकि वे भावगत स्थितियां होती हैं, जिन्हें योग की भाषा में आलोडन-विलोडन कहते हैं। संन्यास केवल बाह्य रूप से ही एक कठोर दिनचर्या नहीं है, वरन उससे कहीं अधिक आतंरिक कठोरता की दूःसाध्य स्थिति भी है। कब किस समय गुरुदेव का कौन सा आदेश मिल जाय और बिना किसी हाल-हवाले या ना-नुच के उसे तत्क्षण पूर्ण भी करना पड़े, इसको तो केवल सन्यस्त गुरु भाई-बहन समझ सकते हैं।
भैरवी - भाग २
इसी प्रकार, इसी क्रम में एक दिन मुझे सहसा एक गुरु भाई के द्वारा आज्ञा मिली, कि पूज्य गुरुदेव (निखिलेश्वरानंदजी) ने तत्क्षण एक विशिष्ठ स्थान पर जाने की बात कही है और वहां जाकर एक विशिष्ट साधिका के पास तब तक उसकी अनुज्ञा में रहना होगा, तब तक कि मुझे अगली आज्ञा न मिले। मैंने ऐसा ही किया और दो दिवस बाद एक विशिष्ट स्थान पर पहुंच गया, जहां मुझे किसी विशिष्ट साधिका से भेंट करनी थी।
उस गहन वन-प्रांत में मानों मेरे आने का समाचार किसी दूरसंचार के द्वारा ही पहले पहुंच गया था और एक प्रकार से स्वागत के लिए वह विशिष्ट साधिका पहले से ही तत्पर थी।
- किन्तु यह क्या ??
मैं उसकी वेशभूषा देखकर आश्चर्य से भूमि पर ठोकर खाकर गिरते-गिरते ही बचा। लगभग तीस-पैंतीस वर्ष के एक स्वस्थ एवं प्रायः काली महिला, जो मेरे 'स्वागत' में सामने आयी थी, वह पूर्णतया निर्वस्त्र ही थी ... उसकी सपूर्ण देहयष्टि पर एक आभूषण तक भी नहीं था, जिसे मैं उसके वस्त्र मानकर उसे आच्छादित कल्पित भी कर लेता। मैंने अपने सम्पूर्ण संन्यस्त जीवन में कभी इस प्रकार किसी स्त्री को सर्वथा नग्न नहीं देखा था, अतः मेरे संस्कारों एवं वास्तविकता के मध्य द्वन्द्व उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही था।
कुछ आश्चर्य, कुछ लज्जा और किसी अंश तक जुगुप्सा से भर कर मैंने अपने नेत्र नीचे कर लिए, किन्तु इसके उपरांत भी मेरे मन में वासना का लेशमात्र भी संचार नहीं हो सका था। यह कहकर में अपनी प्रशंसा करने का इच्छुक नहीं हूं, क्योंकि अपनी दृष्टि की स्वछता तो प्रत्येक व्यक्ति अपने मन में जानता ही है।
इसके पीछे उसके व्यक्तित्व का कोई विलक्षण प्रभाव एवं उसके तप की गरिमा का आभामंडल था, इसे स्वीकार करने में मुझे कोई भी संकोच नहीं।
मैं पता नहीं उस दशा में कब तक संकुचित सा खडा रहता, किन्तु उसकी गुरु-गंभीर वाणी से सचेतन हो गया -
'चलो' के संक्षिप्त सम्बोधन से उसने मुझे तर्जनी से एक और इंगित किया और मैं सम्मोहन सा उसका अनुसरण करने लगा। अपने मन के संकोच एवं संस्कारों के द्वन्द्व से उबरने के लिए मैंने वार्तालाप का एक क्रम प्रारम्भ करना चाहा और अपना परिचय देने का प्रयास किया, किन्तु उसके तो कानों में कोई ध्वनि जैसे जा ही नहीं रही थी और में झेंप कर चुप हो गया।
अपने निवास स्थान पर पहुंचकर (जो कि एक छोटी सी झोपडी ही थी) उसने मुझे एक ओर बैठने की आज्ञा दी और चुपचाप भीतर से जाकर एक मिट्टी के पात्र में कोई जंगली साग और किसी जंगली दाने की मोटी-मोटी रोटियों के साथ एक पात्र में जल भी लेती आयी। मेरा हाथ-पांव धुलवा कर उसने मुझे भोजन करने की आज्ञा दी। उसकी प्रत्येक बात संक्षिप्त एवं आज्ञात्मक स्वर में ही संपन्न हो रही थी तथा मैं अपना सारा विज्ञान भूला कर उसकी आज्ञा का बिना किसी चूं-चपड़ के पालन भी करता जा रहा था ...
किन्तु भोजन करने के नाम पर मैं झिझक से भर गया, क्योंकि विगत कई वर्षों से मैं अपना भोजन स्वयं ही बनाता आया था और किसी विशेष परिस्थिति में केवल किसी गुरु भाई के हाथ का बना भोजन ग्रहण करता था।
- क्योंकि स्त्रियों के साथ उनकी शारीरिक शुचिता का एक अनिवार्य लक्षण जुडा ही होता है तथा वर्त्तमान युग में उस विशेष काल में सभी कार्यों से विरत रहना हास्यास्पद माना जाने लगा है। केवल सामान्य स्त्रियां ही नहीं, वरन साधिकाएं भी इस प्रकार की बातों को ढकोसला मानती हैं, जबकि ऐसा उनके प्रति किसी अपमानवश अथवा द्वेषवश नहीं वरन मर्यादावश ही निर्धारित किया गया है।
मेरा संकोच उसके सामने तब एक और ही धरा रह गया, जब उसने थाली को मेरे सामने सरकाते हुए पुनः आज्ञा दी - 'खाओ'।
भैरवी - भाग ३
मैं चुपचाप उस भोजन को ग्रहण करने लगा, जो आश्चर्यजनक रूप से अत्यन्त स्वादिष्ट एवं क्षुधावर्धक था। भोजन प्रारम्भ करने के उपरांत पुनः वही मौन व्याप्त हो गया और इस विचित्र स्थिति से बचने के लिए मैंने जब अपना सर उठा कर कुछ बात प्रारम्भ करनी चाही, तो देखा, कि उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसी तरलता आ गई है, जो कि किसी मां के चेहरे पर अपनी संतान को भोजन कराते सायं आ जाती है और वह स्वयं को ही तृप्त अनुभव करती है। फिर तो वह उसी स्निग्धता से भरी मुझे खिलाती रही और मैं सब कुछ भूलकर पता नहीं कितना अधिक भोजन ग्रहण कर गया।
भोजन के उपरांत उसने उसी झोपडी में एक ओर बीछे पुआल की ओर संकेत कर दिया और मैं दो दिनों की थकान व भोजन से बोझिल होकर उस पर जा गिरा और तत्क्षण ही निद्रा की गोद में चला गया। उस समय सायंकाल की समाप्ति होकर रात्रि का प्रथम प्रहार आरम्भ हो रहा था।
... संभवतः रात्री का मध्य काल रहा होगा, जब मेरी आंख खुली। झोपडी में एक ओर जलती किसी तैलयुक्त जंगली जडी के प्रकाश में पूरी झोपडी ही मंद प्रकाश से आलोकित हो रही थी और एक कोने में वही भैरवी अपने आसन पर मेरी ओर पीठ करके आसीन थी। उसने अपने घने काले केशों को खोलकर पूरी पीठ पर फैला दिया था और आखे बंद कर पता नहीं किस क्रिया में तल्लीन थी।
यहां मैं इस बात का उल्लेख करना चाहूंगा, कि उसकी झोपडी में न कहीं कोई यज्ञकुंड था, न तरह-तरह के फूल बिखरे थे, न कहीं सिन्दूर पुता हुआ था और न ही किसी धुप या लोबान की मादक गंध थी - जैसा कि अनेक साधक 'भैरवी' शब्द सुनकर कल्पित कर लेते हैं। नितांत एक सामान्य गृहस्थ महिला की ही भांति उसका सम्पूर्ण आचरण था, केवल इस अन्तर से, कि वह वस्त्रादि की आवश्यकता से सर्वथा मुक्त थी।
पूज्यपाद गुरुदेव ने कभी बताया था, कि साधना की एक दशा ऐसी भी आ जाती है, कि साधक को स्वयं की देह का बोध ही नहीं रहता और फलस्वरूप वह नग्न ही रहने लग जाता है, कदाचित वह भैरवी उसी का जीता-जागता प्रमाण थी। मुझे पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीमुख से सुनी एक एनी घटना का स्मरण हो आया। घटना यह थी, कि -
महावीर स्वामी कभी अपनी वस्त्रहीनता की स्थिति में कहीं पहुंचे तो लोगों ने उनसे पूछा - 'आप नग्न क्यों हैं?'
उत्तर में उन्होंने कहा - 'नग्न मैं नहीं हूं, आप हैं, क्योंकि आपकी आंखों में 'नग्नता' अनुभव करने का भाव है।'
मैं जितनी बार उस भैरवी को 'नग्न' देखता, उतनी ही बार मुझे पूज्यपाद गुरुदेव की उक्त बात स्मरण आ जाती और मुझे एक तमाचा सा लगता। इन्हीं उहापोहों में मैं पुनः निद्रामग्न हो गया।
दुसरे दिन की प्रातः से मेरे पास कोई भी काम नहीं था, क्योंकि पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा था, कि साधना का अगला क्रम वे वहीं आकर बतायेंगे। कोई गृहकार्य भी नहीं था, फलतः मैं घूमने निकल पडा और प्रकृति के विविध रूपों को निहारता रहा। दोपहर हो जाने पर आकर भोजन किया और पुनः वही घूमना व् प्रकृति को निहारना। रात्रि में पुनः भोजन और विश्राम। धीरे-धीरे यही मेरी दिनचर्या हो गई। मुझे लगने लगा, कि मेरा बचपन ही वापस आ गया है। कोई चिंता नहीं, कोई दायित्व नहीं और धीरे-धीरे मैं पुनः किलकारी मार कर हंसने की अपनी पुरानी आदत में लौट आया।
भैरवी के चेहरे पर निरन्तर बनी रहती एक गरिमामय स्मित मुझे एक अभय देती थी। वह साक्षात मातृस्वरूपा ही थी। मैंने अपने साधक जीवन में ऐसी भी स्त्रियां एवं साधिकाएं देखी थी, जो तथाकथित रूप से नारी सुलभ लज्जा ढोते हुए भी घोर कामुक एवं घृणित लगती थीं दूसरी और यह भैरवी थी, जो पूर्णतया नग्न होते हुए भी गरिमामय और मातृवत थीं। मेरा उससे कोई वार्तालाप नहीं होता था, और ऐसा ही लगता था, कि मैं कोई अबोध शिशु हूं, जो बोलना नहीं सीख पाया हो, इसके उपरांत भी 'संवाद' हो ही जाता था।
भैरवी - भाग ४
मेरे संस्कार यद्यपि प्रबल होते थे। वह 'स्त्री' है मन में ऐसा भी भाव आता था, उसके स्पर्शित भोजन को ग्रहण करने में भी संकोच होता था, किन्तु उसके सामने मैं सब कुछ भूल जाता था। मन में मैंने मान लिया था, कि इस स्थिति में पूज्य गुरुदेव ने ही रखा है, अतः उचित-अनुचित का निर्धारण भी वे ही कर लेंगे और मैं सर्वथा द्वन्द्व रहित हो गया।
इन्हीं दिनों के बीच जब एक दिन मैं कहीं से घूम कर लौटा, तो पाया, कि पूज्यपाद गुरुदेव उस भैरवी के समक्ष विद्यमान हैं और उस दिन उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था, जैसे कोई छः-सात माह की बच्ची अपनी माता को पास पाकर दुबक जाती है। मैंने उन्हें प्रणाम किया और एक ओर हट कर बैठ गया।
दोनों में पता नहीं क्या मूक संभाषण हो रहा था, कि सहसा जैसे कोई सम्मोहन टूटा और पूज्यपाद गुरुदेव की गुरु गंभीर वाणी गूंज उठी- "अच्छा अनुगुज्जनी! मैं इसे लेकर जा रहा हूं।" उसने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और मैं पूज्यपाद गुरुदेव के साथ वापस आ गया।
कई दिनों तक मेरे मन में यह रहस्य बना रहा, कि इस प्रकार मुझे उस भैरवी के सान्निध्य में रखने का पूज्यपाद गुरुदेव का क्या अभिप्राय हो सकता है, किन्तु समझ न सका, अंततोगत्वा मैंने एक दिन साहस करके पूछ ही लिया। उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव के मुख मण्डल पर एक स्निग्ध स्मित छा गई।
उन्होनें बताया- वह वास्तव में श्यामा साधना का प्रथम चरण था और यह अनुभव कराना था, कि स्त्री का एक पक्ष मातृरूपेण भी होता है।
मैंने हलके से प्रतिरोधात्मक स्वर में कहा - "किन्तु गुरुदेव! उन पूर्व के दृढ़ नियमों के उपरांत इतनी बन्धनहीनता? मैंने इतने दिन पता नहीं क्या-क्या भक्ष्य-अभक्ष्य खाया होगा, उसका कैसे प्रायश्चित करूं?"
उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव केवल एक सूत्र बोलकर मौन हो गए - "जब तू पालने में पडा रहता, तो क्या अपनी मां से उसकी शुचिता-अशुचिता का प्रश्न पूछता?"
उनके एक ही वाक्य से मेरे मस्तिक्ष के सभी बंद कपाट खुल गए। यह केवल मातृत्व का अनुभव कराना ही नहीं था, अपितु इस बात का भी बोध कराना था, कि अंततोगत्वा मैं वही अशक्त बालक ही हूं। मैंने तत्क्षण इस बात को स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि पिछले कई दिनों में मैं समझ ही गया था, कि पोषण तो वही जगज्जननी ही करती है, भले ही किसी भी रूप में करे। अतः मन में किसी भ्रम अथवा आचार-विचार का दृढ़ धारण रखने से कोई लाभ नहीं।
पूज्यपाद गुरुदेव के इस सूत्र को आधार बनाकर जब मैंने आत्मविवेचन किया, तो मेरे समक्ष साधना जगत के कई रहस्य इस प्रकार खुलते चले गए, जिस प्रकार किसी ग्रन्थ के पन्ने एक हल्के से स्पर्श से ही खुलते चले जाते हैं। इस गहन आत्मविवेचन के पश्चात मेरे समक्ष उनके चरणों में लौट जाने के अतिरिक्त न तो कोई प्रणाम-मुद्रा थी और न ही अश्रु-प्रवाह के अतिरिक्त कोई पूजन सामग्री। ऐसे अर्ध्य निवेदन के पश्चात जब मैंने उनसे निवेदन किया, कि वे कृपा करके इस ज्ञान को सार्वजनिक क्यों नहीं करते, जिससे अनेक साधक अपने जीवन को धन्य कर सकें, तो उत्तर में उनका पुनः संक्षिप्त वचन था- "मैं किसी नूतन विवाद को जन्म नहीं देना चाहता।"
पूज्यपाद गुरुदेव के इस कथन में वेदना छूपी थे, क्योंकि समाज अपनी आघातकारी प्रवृत्ति के सामने उनके ज्ञान का मूल्यांकन करने की धारणा तक नहीं बना पा रहा है, जिसका और कोई परिणाम हो या न हो, किन्तु साधना के अनेक रहस्य, अनेक भावभूमियां लुप्त हो जायेंगी, इसका ही खेद है। जब उनकी सामान्य क्रियायों पर ही आलोचना-प्रत्यालोचना की बाढ़ आती रहती है, तो इस प्रकार की क्रियायों का सार्वजनकीकरण करने पर तो पता नहीं क्या-क्या आरोप लग जायेंगे! महावीर स्वामी की वाणी में कहें, तो सत्य यही है, कि नग्न तो समाज है।"
मुझे एक घटना याद आती है, कि जब वर्ष १९९० में वाराणसी नगर में महाशिवरात्रि पर्व का आयोजन एवं शिविर लगा था, तब वहां के कुछ बुद्धिजीवियों ने कैसा विरोध प्रकट किया था। यज्ञ स्थल को घेर कर प्रदर्शन, गुरुदेव के निवास स्थान पर जाकर अपशब्द कथन एवं धमकियों के बाद भी जब वे साधना शिविर को भंग करने में असफल रहे, तो उन्होनें स्थानीय अखबारों का सहारा लिया, जिसमें अत्यन्त अश्लील भाषा में जो कुछ छापा, उसे मैं यहां वर्णित कर ही नहीं सकता। यह वही नगर है, जिसने युगपुरुष परमहंस स्वामी विशुध्वानन्द जी पर वेश्यागामी होने तक का आरोप लगाया था।
किन्तु यह भी सत्य है, कि समाज जब तक भैरवी साधना या श्यामा साधना जैसी उच्चतम साधनाओं की वास्तविकता नहीं समझेगा, तब तक वह तंत्र को भी नहीं समझ सकेगा, तथा, केवल कुछ धर्मग्रंथों पर प्रवचन सुनकर अपने आपको बहलाता ही रहेगा।
पूज्यपाद गुरुदेव की आज्ञा को ध्यान में रखकर इसी कारणवश मैं भैरवी साधना की पूर्ण एवं प्रामाणिक साधना विधि प्रस्तुत करने में असमर्थ हूं, किन्तु मेरा विश्वास है, कि कुछ साधक ऐसे होंगे ही, जो साधना के मर्म को समझते होंगे तथा व्यक्तिगत रूप से आगे बढकर उन साधनाओं को सुरक्षीत कर सकेंगे, जो हमारे देश की अनमोल थाती हैं।
साधनाएं केवल साधकों के शरीरों के माध्यम से संरक्षित होती है, उन्हें संजो लेने के लिए किसी भी कैसेट या फ्लापी या डिस्क न तो बन सकी है, न बनेगी। आशा है, गंभीर साधक इस बात को विवेचानापूर्वक आत्मसात करेंगे।
- एक शिष्य
-मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका, अप्रैल १९९६
स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते हैं।
तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है। यह तंत्र एक निश्चित मर्यादा है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो, अथवा वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी 'शक्ति' का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, 'शक्ति' पर आधारित है। कदाचित इसका रहस्य यही है, कि साधक को इस बात का साक्षात करना होता है, कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते है, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं व् संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारणवश तंत्र के क्षेत्र में तो पग-पग पर गुरु साहचर्य की आवश्यकता पड़ती है, अन्य मार्गों की अपेक्षा कहीं अधिक।
जब इस मर्यादा का किसी कारणवश लोप हो गया और समाज की स्मृति में केवल इतना ही शेष रह गया, कि तंत्र के क्षेत्र में भैरवी का साहचर्य करना होता है, तभी व्यभिचार का जन्म हुआ, क्योंकि ऐसी स्थिति में पग-पग संभालने के लिए सदगुरुदेव की वह चैतन्य शक्ति नहीं रही। यह भी संभव है, कि कुछ दूषित प्रवृत्तियों के व्यक्तियों ने एक श्रेष्ठ परम्परा को अपनी वासनापूर्ति के रूप में अपना लिया हो, किन्तु यह तो प्रत्येक दशा में सत्य है ही, कि इस मार्ग में सदगुरु की महत्ता को विस्मृत कर दिया गया।
जो श्रेष्ठ साधक है, वे जानते है, कि तंत्र के क्षेत्र में प्रवेश के पूर्व श्मशान पीठ एवं श्यामा पीठ की परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी होती हैं, तभी साधक उच्चकोटि के रहस्यों को जानने का सुपात्र बन पाता है। भैरवी साधना इसी श्रेणी की साधना है, किन्तु श्यामा पीठ साधना से कुछ कम स्तर की। वस्तुतः जब भैरवी साधना का संकेत सदगुरुदेव से प्राप्त हो जाय, तब साधक को यह समझ लेना चाहिए, कि वे उसे तंत्र की उच्च भावभूमि पर ले जाने का मन बना चुके हैं। भैरवी साधना, भैरवी साधना के उपरांत श्यामा साधना और तब वास्तविक तंत्र की साधना का प्रारम्भ होता है, जहां साधक अपने ही शरीर के तंत्र को समझता हुआ, अपनी ही अनेक अज्ञात शक्तियों से परिचय प्राप्त करता हुआ न केवल अपने ही जीवन को धन्य कर लेता है, वरन सैकडों-हजारों के जीवन को भी धन्य कर देता है।
व्यक्ति के अनेक बंधनों में से सर्वाधिक कठिन बंधन है उसकी दैहिक वासनाओं का - और तंत्र इसी पर आघात कर व्यक्ति को एक नया आयाम दे देता है। वास्तविक तंत्र केवल वासना पर आघात करता है, न कि व्यक्ति की मूल चेतना पर। इसी कारणवश एक तांत्रिक किसी भी अन्य योगी या यति से अधिक तीव्र एवं प्रभावशाली होता है।
'भैरवी' के विषय में समाज की आज जो धारणा है, उसे अधिक वर्णित करने की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु मैंने अपने जीवन में भैरवी का जो स्वरुप देखा, उसे भी वर्णित कर देना अपना धर्म समझता हूं। शेष तो व्यक्ति की अपनी भावना पर निर्भर करता है, कि वह इसे कितना सत्य मानता है अथवा उसे अपनी धारणाओं के विपरीत कितना स्वीकार्य होता है।
आज से कई वर्ष पूर्व मैं अपने सन्यस्त जीवन में साधना के कठोर आयामों से गुजर रहा था, उसी मध्य मुझे भैरवी-साहचर्य का अनुभव मिल सका। संन्यास का मार्ग एक कठोर मार्ग तो होता ही है, साथ ही उसकी कुछ ऐसी जटिलताएं होती हैं, जिसे यदि मैं चाहूं, तो वर्णित नहीं कर सकता, क्योंकि वे भावगत स्थितियां होती हैं, जिन्हें योग की भाषा में आलोडन-विलोडन कहते हैं। संन्यास केवल बाह्य रूप से ही एक कठोर दिनचर्या नहीं है, वरन उससे कहीं अधिक आतंरिक कठोरता की दूःसाध्य स्थिति भी है। कब किस समय गुरुदेव का कौन सा आदेश मिल जाय और बिना किसी हाल-हवाले या ना-नुच के उसे तत्क्षण पूर्ण भी करना पड़े, इसको तो केवल सन्यस्त गुरु भाई-बहन समझ सकते हैं।
भैरवी - भाग २
इसी प्रकार, इसी क्रम में एक दिन मुझे सहसा एक गुरु भाई के द्वारा आज्ञा मिली, कि पूज्य गुरुदेव (निखिलेश्वरानंदजी) ने तत्क्षण एक विशिष्ठ स्थान पर जाने की बात कही है और वहां जाकर एक विशिष्ट साधिका के पास तब तक उसकी अनुज्ञा में रहना होगा, तब तक कि मुझे अगली आज्ञा न मिले। मैंने ऐसा ही किया और दो दिवस बाद एक विशिष्ट स्थान पर पहुंच गया, जहां मुझे किसी विशिष्ट साधिका से भेंट करनी थी।
उस गहन वन-प्रांत में मानों मेरे आने का समाचार किसी दूरसंचार के द्वारा ही पहले पहुंच गया था और एक प्रकार से स्वागत के लिए वह विशिष्ट साधिका पहले से ही तत्पर थी।
- किन्तु यह क्या ??
मैं उसकी वेशभूषा देखकर आश्चर्य से भूमि पर ठोकर खाकर गिरते-गिरते ही बचा। लगभग तीस-पैंतीस वर्ष के एक स्वस्थ एवं प्रायः काली महिला, जो मेरे 'स्वागत' में सामने आयी थी, वह पूर्णतया निर्वस्त्र ही थी ... उसकी सपूर्ण देहयष्टि पर एक आभूषण तक भी नहीं था, जिसे मैं उसके वस्त्र मानकर उसे आच्छादित कल्पित भी कर लेता। मैंने अपने सम्पूर्ण संन्यस्त जीवन में कभी इस प्रकार किसी स्त्री को सर्वथा नग्न नहीं देखा था, अतः मेरे संस्कारों एवं वास्तविकता के मध्य द्वन्द्व उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही था।
कुछ आश्चर्य, कुछ लज्जा और किसी अंश तक जुगुप्सा से भर कर मैंने अपने नेत्र नीचे कर लिए, किन्तु इसके उपरांत भी मेरे मन में वासना का लेशमात्र भी संचार नहीं हो सका था। यह कहकर में अपनी प्रशंसा करने का इच्छुक नहीं हूं, क्योंकि अपनी दृष्टि की स्वछता तो प्रत्येक व्यक्ति अपने मन में जानता ही है।
इसके पीछे उसके व्यक्तित्व का कोई विलक्षण प्रभाव एवं उसके तप की गरिमा का आभामंडल था, इसे स्वीकार करने में मुझे कोई भी संकोच नहीं।
मैं पता नहीं उस दशा में कब तक संकुचित सा खडा रहता, किन्तु उसकी गुरु-गंभीर वाणी से सचेतन हो गया -
'चलो' के संक्षिप्त सम्बोधन से उसने मुझे तर्जनी से एक और इंगित किया और मैं सम्मोहन सा उसका अनुसरण करने लगा। अपने मन के संकोच एवं संस्कारों के द्वन्द्व से उबरने के लिए मैंने वार्तालाप का एक क्रम प्रारम्भ करना चाहा और अपना परिचय देने का प्रयास किया, किन्तु उसके तो कानों में कोई ध्वनि जैसे जा ही नहीं रही थी और में झेंप कर चुप हो गया।
अपने निवास स्थान पर पहुंचकर (जो कि एक छोटी सी झोपडी ही थी) उसने मुझे एक ओर बैठने की आज्ञा दी और चुपचाप भीतर से जाकर एक मिट्टी के पात्र में कोई जंगली साग और किसी जंगली दाने की मोटी-मोटी रोटियों के साथ एक पात्र में जल भी लेती आयी। मेरा हाथ-पांव धुलवा कर उसने मुझे भोजन करने की आज्ञा दी। उसकी प्रत्येक बात संक्षिप्त एवं आज्ञात्मक स्वर में ही संपन्न हो रही थी तथा मैं अपना सारा विज्ञान भूला कर उसकी आज्ञा का बिना किसी चूं-चपड़ के पालन भी करता जा रहा था ...
किन्तु भोजन करने के नाम पर मैं झिझक से भर गया, क्योंकि विगत कई वर्षों से मैं अपना भोजन स्वयं ही बनाता आया था और किसी विशेष परिस्थिति में केवल किसी गुरु भाई के हाथ का बना भोजन ग्रहण करता था।
- क्योंकि स्त्रियों के साथ उनकी शारीरिक शुचिता का एक अनिवार्य लक्षण जुडा ही होता है तथा वर्त्तमान युग में उस विशेष काल में सभी कार्यों से विरत रहना हास्यास्पद माना जाने लगा है। केवल सामान्य स्त्रियां ही नहीं, वरन साधिकाएं भी इस प्रकार की बातों को ढकोसला मानती हैं, जबकि ऐसा उनके प्रति किसी अपमानवश अथवा द्वेषवश नहीं वरन मर्यादावश ही निर्धारित किया गया है।
मेरा संकोच उसके सामने तब एक और ही धरा रह गया, जब उसने थाली को मेरे सामने सरकाते हुए पुनः आज्ञा दी - 'खाओ'।
भैरवी - भाग ३
मैं चुपचाप उस भोजन को ग्रहण करने लगा, जो आश्चर्यजनक रूप से अत्यन्त स्वादिष्ट एवं क्षुधावर्धक था। भोजन प्रारम्भ करने के उपरांत पुनः वही मौन व्याप्त हो गया और इस विचित्र स्थिति से बचने के लिए मैंने जब अपना सर उठा कर कुछ बात प्रारम्भ करनी चाही, तो देखा, कि उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसी तरलता आ गई है, जो कि किसी मां के चेहरे पर अपनी संतान को भोजन कराते सायं आ जाती है और वह स्वयं को ही तृप्त अनुभव करती है। फिर तो वह उसी स्निग्धता से भरी मुझे खिलाती रही और मैं सब कुछ भूलकर पता नहीं कितना अधिक भोजन ग्रहण कर गया।
भोजन के उपरांत उसने उसी झोपडी में एक ओर बीछे पुआल की ओर संकेत कर दिया और मैं दो दिनों की थकान व भोजन से बोझिल होकर उस पर जा गिरा और तत्क्षण ही निद्रा की गोद में चला गया। उस समय सायंकाल की समाप्ति होकर रात्रि का प्रथम प्रहार आरम्भ हो रहा था।
... संभवतः रात्री का मध्य काल रहा होगा, जब मेरी आंख खुली। झोपडी में एक ओर जलती किसी तैलयुक्त जंगली जडी के प्रकाश में पूरी झोपडी ही मंद प्रकाश से आलोकित हो रही थी और एक कोने में वही भैरवी अपने आसन पर मेरी ओर पीठ करके आसीन थी। उसने अपने घने काले केशों को खोलकर पूरी पीठ पर फैला दिया था और आखे बंद कर पता नहीं किस क्रिया में तल्लीन थी।
यहां मैं इस बात का उल्लेख करना चाहूंगा, कि उसकी झोपडी में न कहीं कोई यज्ञकुंड था, न तरह-तरह के फूल बिखरे थे, न कहीं सिन्दूर पुता हुआ था और न ही किसी धुप या लोबान की मादक गंध थी - जैसा कि अनेक साधक 'भैरवी' शब्द सुनकर कल्पित कर लेते हैं। नितांत एक सामान्य गृहस्थ महिला की ही भांति उसका सम्पूर्ण आचरण था, केवल इस अन्तर से, कि वह वस्त्रादि की आवश्यकता से सर्वथा मुक्त थी।
पूज्यपाद गुरुदेव ने कभी बताया था, कि साधना की एक दशा ऐसी भी आ जाती है, कि साधक को स्वयं की देह का बोध ही नहीं रहता और फलस्वरूप वह नग्न ही रहने लग जाता है, कदाचित वह भैरवी उसी का जीता-जागता प्रमाण थी। मुझे पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीमुख से सुनी एक एनी घटना का स्मरण हो आया। घटना यह थी, कि -
महावीर स्वामी कभी अपनी वस्त्रहीनता की स्थिति में कहीं पहुंचे तो लोगों ने उनसे पूछा - 'आप नग्न क्यों हैं?'
उत्तर में उन्होंने कहा - 'नग्न मैं नहीं हूं, आप हैं, क्योंकि आपकी आंखों में 'नग्नता' अनुभव करने का भाव है।'
मैं जितनी बार उस भैरवी को 'नग्न' देखता, उतनी ही बार मुझे पूज्यपाद गुरुदेव की उक्त बात स्मरण आ जाती और मुझे एक तमाचा सा लगता। इन्हीं उहापोहों में मैं पुनः निद्रामग्न हो गया।
दुसरे दिन की प्रातः से मेरे पास कोई भी काम नहीं था, क्योंकि पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा था, कि साधना का अगला क्रम वे वहीं आकर बतायेंगे। कोई गृहकार्य भी नहीं था, फलतः मैं घूमने निकल पडा और प्रकृति के विविध रूपों को निहारता रहा। दोपहर हो जाने पर आकर भोजन किया और पुनः वही घूमना व् प्रकृति को निहारना। रात्रि में पुनः भोजन और विश्राम। धीरे-धीरे यही मेरी दिनचर्या हो गई। मुझे लगने लगा, कि मेरा बचपन ही वापस आ गया है। कोई चिंता नहीं, कोई दायित्व नहीं और धीरे-धीरे मैं पुनः किलकारी मार कर हंसने की अपनी पुरानी आदत में लौट आया।
भैरवी के चेहरे पर निरन्तर बनी रहती एक गरिमामय स्मित मुझे एक अभय देती थी। वह साक्षात मातृस्वरूपा ही थी। मैंने अपने साधक जीवन में ऐसी भी स्त्रियां एवं साधिकाएं देखी थी, जो तथाकथित रूप से नारी सुलभ लज्जा ढोते हुए भी घोर कामुक एवं घृणित लगती थीं दूसरी और यह भैरवी थी, जो पूर्णतया नग्न होते हुए भी गरिमामय और मातृवत थीं। मेरा उससे कोई वार्तालाप नहीं होता था, और ऐसा ही लगता था, कि मैं कोई अबोध शिशु हूं, जो बोलना नहीं सीख पाया हो, इसके उपरांत भी 'संवाद' हो ही जाता था।
भैरवी - भाग ४
मेरे संस्कार यद्यपि प्रबल होते थे। वह 'स्त्री' है मन में ऐसा भी भाव आता था, उसके स्पर्शित भोजन को ग्रहण करने में भी संकोच होता था, किन्तु उसके सामने मैं सब कुछ भूल जाता था। मन में मैंने मान लिया था, कि इस स्थिति में पूज्य गुरुदेव ने ही रखा है, अतः उचित-अनुचित का निर्धारण भी वे ही कर लेंगे और मैं सर्वथा द्वन्द्व रहित हो गया।
इन्हीं दिनों के बीच जब एक दिन मैं कहीं से घूम कर लौटा, तो पाया, कि पूज्यपाद गुरुदेव उस भैरवी के समक्ष विद्यमान हैं और उस दिन उस भैरवी के चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था, जैसे कोई छः-सात माह की बच्ची अपनी माता को पास पाकर दुबक जाती है। मैंने उन्हें प्रणाम किया और एक ओर हट कर बैठ गया।
दोनों में पता नहीं क्या मूक संभाषण हो रहा था, कि सहसा जैसे कोई सम्मोहन टूटा और पूज्यपाद गुरुदेव की गुरु गंभीर वाणी गूंज उठी- "अच्छा अनुगुज्जनी! मैं इसे लेकर जा रहा हूं।" उसने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और मैं पूज्यपाद गुरुदेव के साथ वापस आ गया।
कई दिनों तक मेरे मन में यह रहस्य बना रहा, कि इस प्रकार मुझे उस भैरवी के सान्निध्य में रखने का पूज्यपाद गुरुदेव का क्या अभिप्राय हो सकता है, किन्तु समझ न सका, अंततोगत्वा मैंने एक दिन साहस करके पूछ ही लिया। उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव के मुख मण्डल पर एक स्निग्ध स्मित छा गई।
उन्होनें बताया- वह वास्तव में श्यामा साधना का प्रथम चरण था और यह अनुभव कराना था, कि स्त्री का एक पक्ष मातृरूपेण भी होता है।
मैंने हलके से प्रतिरोधात्मक स्वर में कहा - "किन्तु गुरुदेव! उन पूर्व के दृढ़ नियमों के उपरांत इतनी बन्धनहीनता? मैंने इतने दिन पता नहीं क्या-क्या भक्ष्य-अभक्ष्य खाया होगा, उसका कैसे प्रायश्चित करूं?"
उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव केवल एक सूत्र बोलकर मौन हो गए - "जब तू पालने में पडा रहता, तो क्या अपनी मां से उसकी शुचिता-अशुचिता का प्रश्न पूछता?"
उनके एक ही वाक्य से मेरे मस्तिक्ष के सभी बंद कपाट खुल गए। यह केवल मातृत्व का अनुभव कराना ही नहीं था, अपितु इस बात का भी बोध कराना था, कि अंततोगत्वा मैं वही अशक्त बालक ही हूं। मैंने तत्क्षण इस बात को स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि पिछले कई दिनों में मैं समझ ही गया था, कि पोषण तो वही जगज्जननी ही करती है, भले ही किसी भी रूप में करे। अतः मन में किसी भ्रम अथवा आचार-विचार का दृढ़ धारण रखने से कोई लाभ नहीं।
पूज्यपाद गुरुदेव के इस सूत्र को आधार बनाकर जब मैंने आत्मविवेचन किया, तो मेरे समक्ष साधना जगत के कई रहस्य इस प्रकार खुलते चले गए, जिस प्रकार किसी ग्रन्थ के पन्ने एक हल्के से स्पर्श से ही खुलते चले जाते हैं। इस गहन आत्मविवेचन के पश्चात मेरे समक्ष उनके चरणों में लौट जाने के अतिरिक्त न तो कोई प्रणाम-मुद्रा थी और न ही अश्रु-प्रवाह के अतिरिक्त कोई पूजन सामग्री। ऐसे अर्ध्य निवेदन के पश्चात जब मैंने उनसे निवेदन किया, कि वे कृपा करके इस ज्ञान को सार्वजनिक क्यों नहीं करते, जिससे अनेक साधक अपने जीवन को धन्य कर सकें, तो उत्तर में उनका पुनः संक्षिप्त वचन था- "मैं किसी नूतन विवाद को जन्म नहीं देना चाहता।"
पूज्यपाद गुरुदेव के इस कथन में वेदना छूपी थे, क्योंकि समाज अपनी आघातकारी प्रवृत्ति के सामने उनके ज्ञान का मूल्यांकन करने की धारणा तक नहीं बना पा रहा है, जिसका और कोई परिणाम हो या न हो, किन्तु साधना के अनेक रहस्य, अनेक भावभूमियां लुप्त हो जायेंगी, इसका ही खेद है। जब उनकी सामान्य क्रियायों पर ही आलोचना-प्रत्यालोचना की बाढ़ आती रहती है, तो इस प्रकार की क्रियायों का सार्वजनकीकरण करने पर तो पता नहीं क्या-क्या आरोप लग जायेंगे! महावीर स्वामी की वाणी में कहें, तो सत्य यही है, कि नग्न तो समाज है।"
मुझे एक घटना याद आती है, कि जब वर्ष १९९० में वाराणसी नगर में महाशिवरात्रि पर्व का आयोजन एवं शिविर लगा था, तब वहां के कुछ बुद्धिजीवियों ने कैसा विरोध प्रकट किया था। यज्ञ स्थल को घेर कर प्रदर्शन, गुरुदेव के निवास स्थान पर जाकर अपशब्द कथन एवं धमकियों के बाद भी जब वे साधना शिविर को भंग करने में असफल रहे, तो उन्होनें स्थानीय अखबारों का सहारा लिया, जिसमें अत्यन्त अश्लील भाषा में जो कुछ छापा, उसे मैं यहां वर्णित कर ही नहीं सकता। यह वही नगर है, जिसने युगपुरुष परमहंस स्वामी विशुध्वानन्द जी पर वेश्यागामी होने तक का आरोप लगाया था।
किन्तु यह भी सत्य है, कि समाज जब तक भैरवी साधना या श्यामा साधना जैसी उच्चतम साधनाओं की वास्तविकता नहीं समझेगा, तब तक वह तंत्र को भी नहीं समझ सकेगा, तथा, केवल कुछ धर्मग्रंथों पर प्रवचन सुनकर अपने आपको बहलाता ही रहेगा।
पूज्यपाद गुरुदेव की आज्ञा को ध्यान में रखकर इसी कारणवश मैं भैरवी साधना की पूर्ण एवं प्रामाणिक साधना विधि प्रस्तुत करने में असमर्थ हूं, किन्तु मेरा विश्वास है, कि कुछ साधक ऐसे होंगे ही, जो साधना के मर्म को समझते होंगे तथा व्यक्तिगत रूप से आगे बढकर उन साधनाओं को सुरक्षीत कर सकेंगे, जो हमारे देश की अनमोल थाती हैं।
साधनाएं केवल साधकों के शरीरों के माध्यम से संरक्षित होती है, उन्हें संजो लेने के लिए किसी भी कैसेट या फ्लापी या डिस्क न तो बन सकी है, न बनेगी। आशा है, गंभीर साधक इस बात को विवेचानापूर्वक आत्मसात करेंगे।
- एक शिष्य
-मंत्र-तंत्र-यंत्र पत्रिका, अप्रैल १९९६
4 comments:
Main shayad ek nastik hun aajkal but aapne bahot accha likha or isse padh kar mere man me koi vasna nai aayi or beshak shayad main ek nastik hun per apni culture ki acchi cheezo per mujhy garv hai.
Thanks for writing this here.
Main shayad ek nastik hun aajkal but aapne bahot accha likha or isse padh kar mere man me koi vasna nai aayi or beshak shayad main ek nastik hun per apni culture ki acchi cheezo per mujhy garv hai.
Thanks for writing this here.
Mein ek bharavi sadhak hu mujhe Bhairavi Devi k baare mein aur jaankari chahiye aur unke mantro k baare mein bhi agar aap meri sahaayta kare ge to mere liye accha hoga
nice achha laga jai gugu dev jai mata di
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