Dr. Narayan Dutt Shrimali Dr. Narayan Dutt Shrimali (1933-1998) *Paramhansa Nikhileshwaranand ascetically *Academician *Author of more than 300 books Mantra Tantra Yantra Vigyan:#3 PART(NARAYAN / PRACHIN / NIKHIL-MANTRA VIGYAN) Rejuvenating Ancient Indian Spiritual Sciences - Narayan | Nikhil Mantra Vigyan formerly Mantra Tantra Yantra Vigyan is a monthly magazine containing articles on ancient Indian Spiritual Sciences viz.
Monday, May 10, 2010
Why the suffering in this life I've got pain?
दुख ही दुख अगर पाया है तो बड़ी मेहनत की होगी पाने के लिए, बड़ा श्रम किया होगा, बड़ी साधना की होगी, तपश्र्चर्या की होगी! अगर दुख ही दुख पाया है तो बड़ी कुशलता अर्जित की होगी! दुख कुछ ऐसे नहीं मिलता, मुफ्त नहीं मिलता। दुख के लिए कीमत चुकानी पड़ती है।
आनंद तो यूं ही मिलता है; मुफ्त मिलता है; क्योंकि आनंद स्वभाव है। दुख अर्जित करना पड़ता है। और दुख अर्जित करने का पहला नियम क्या है? सुख मांगो और दुख मिलेगा। सफलता मांगो, विफलता मिलेगी। सम्मान मांगो, अपमान मिलेगा। तुम जो मांगोगे उससे विपरीत मिलेगा। तुम जो चाहोगे उससे विपरीत घटित होगा। क्योंकि यह संसार तुम्हारी चाह के अनुसार नहीं चलता। यह चलता है उस परमात्मा की मर्जी से।
अपनी मर्जी को हटाओ! अपने को हटाओ! उसकी मर्जी पूरी होने दो। फिर दुख भी अगर हो तो दुख मालूम नहीं होगा। जिसने सब कुछ उस पर छोड़ दिया, अगर दुख भी हो तो वह समझेगा कि जरूर उसके इरादे नेक होंगे। उसके इरादे बद तो हो ही नहीं सकते। जरूर इसके पीछे भी कोई राज होगा। अगर वह कांटा चुभाता है तो जगाने के लिए चुभाता होगा। और अगर रास्तों पर पत्थर डाल रखे हैं उसने तो सीढ़ियां बनाने के लिए डाल रखे होंगे। और अगर मुझे बेचैनी देता है, परेशानी देता है, तो जरूर मेरे भीतर कोई सोई हुई अभीप्सा को प्रज्वलित कर रहा होगा; मेरे भीतर कोई आग जलाने की चेष्टा कर रहा होगा।
जिसने सब परमात्मा पर छोड़ा, उसके लिए दुख भी सुख हो जाते हैं। और जिसने सब अपने हाथ में रखा, उसके लिए सुख भी दुख हो जाते हैं।
जिसे तुम जीवन समझ रहे हो, वह जीवन नहीं है, टुकड़े-टुकड़े मौत है। जन्म के बाद तुमने मरने के सिवाय और किया ही क्या है? रोज-रोज मर रहे हो। और जिम्मेवार कौन है? अस्तित्व ने जीवन दिया है, मृत्यु हमारा आविष्कार है। अस्तित्व ने आनंद दिया है, दुख हमारी खोज है।
प्रत्येक बच्चा आनंद लेकर पैदा होता है; और बहुत कम बूढ़े हैं जो आनंद लेकर विदा होते हैं। जो विदा होते हैं उन्हीं को हम बुद्ध कहते हैं। सभी यहां आनंद लेकर जन्मते हैं; आश्र्चर्यविमुग्ध आंखें लेकर जन्मते हैं; आह्लाद से भरा हुआ हृदय लेकर जन्मते हैं। हर बच्चे की आंख में झांक कर देखो, नहीं दीखती तुम्हें निर्मल गहराई? और हर बच्चे के चेहरे पर देखो, नहीं दीखता तुम्हें आनंद का आलोक? और फिर क्या हो जाता है? क्या हो जाता है? फूल की तरह जो जन्मते हैं, वे कांटे क्यों हो जाते हैं?
जरूर कहीं हमारे जीवन की पूरी शिक्षण की व्यवस्था भ्रांत है। हमारा पूरा संस्कार गलत है। हमारा पूरा समाज रुग्ण है। हमें गलत सिखाया जा रहा है। हमें सुख पाने के लिए दौड़ सिखाई जा रही है। दौड़ो! ज्यादा धन होगा तो ज्यादा सुख होगा। ज्यादा बड़ा पद होगा तो ज्यादा सुख होगा।
गलत हैं ये बातें। न धन से सुख होता है, न पद से सुख होता है। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धन छोड़ दो या पद छोड़ दो। मैं इतना ही कह रहा हूं, इनसे सुख का कोई नाता नहीं। सुख तो होता है भीतर डुबकी मारने से। हां, अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में धन हो तो धन भी सुख देता है। अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में दुख हो तो दुख भी सुख बन जाता है। जिसने भीतर डुबकी मारी, उसके हाथ में जादू आ गया, जादू की छड़ी आ गई। वह भीड़ में रहे, तो अकेला। वह शोरगुल में रहे, तो संगीत में। वह जल में चलता है, लेकिन जल में उसके पैर नहीं भीगते।
यह मैं नहीं कह सकता कि ये दुख अगर मिल रहे हैं तो पिछले जन्मों के हैं। पिछले जन्मों के दुख पिछले जन्मों में मिल गए होंगे। परमात्मा उधारी में भरोसा नहीं करता। अभी आग में हाथ डालोगे, अभी जलेगा, अगले जन्म में नहीं। और अभी किसी को दुख दोगे तो अभी दुख पाओगे, अगले जन्म में नहीं। यह अगले जन्म की तरकीब बड़ी चालबाज ईजाद है, बड़ा षड्यंत्र है, बड़ा धोखा है।
अगर अभी प्रेम करोगे तो अभी सुख बरसेगा और अभी क्रोध करोगे तो अभी दुख बरसेगा। सच तो यह है, क्रोध करने के पहले ही आदमी क्रोध से भस्मीभूत हो जाता है। दूसरे को जलाओ, उसके पहले खुद जलना पड़ता है। दूसरे को दुख दो, उसके पहले खुद को दुख देना पड़ता है।
ये पिछले जन्मों के दुख नहीं हैं। अभी जो कर रहे हो, उसी का परिणाम है। पहले तो मेरी बात सुन कर चोट लगेगी, क्योंकि सांत्वना नहीं मिलेगी। लेकिन अगर मेरी बात समझे तो छुटकारे का उपाय भी है। तो खुशी भी होगी। अगर इसी जन्म की बात है तो कुछ किया जा सकता है। यही मैं कह रहा हूं कि अभी कुछ किया जा सकता है।
सुख छोड़ो! सुख की आकांक्षा छोड़ो! सुख की आकांक्षा का अर्थ है-बाहर से कुछ मिलेगा, तो सुख। बाहर से कभी सुख नहीं मिलता। सुख की सारी आकांक्षा को ध्यान की आकांक्षा में रूपांतरित करो। सुख नहीं चाहिए, आनंद चाहिए। और आनंद भीतर है।
तो भीतर जितना समय मिल जाए, उतना भीतर डुबकी मारो। जब मिल जाए, दिन-रात, काम-धाम से बच कर, जब सुविधा मिल जाए, पति दफ्तर चले जाएं, बच्चे स्कूल चले जाएं, तो घड़ी दो घड़ी के लिए द्वार-दरवाजे बंद करके-घर के ही नहीं, इंद्रियों के भी द्वार-दरवाजे बंद करके-भीतर डूब जाओ। और धीरे-धीरे सुख के फूल खिलने शुरू हो जाएंगे-महासुख के! और वे ऐसे फूल हैं जो खिलते हैं तो फिर मुर्झाते नहीं हैं।
Monday, February 15, 2010
अनुशासन स्वतंत्रता साधन है & अनुशासनहीन स्वतंत्रता अति दु:खदायी है?,
जो व्यक्ति स्वतंत्र हैं, उन्हें यह खेद है कि उनमें अनुशासन नहीं। वे बार-बार प्रतिज्ञा करते हैं कि वे कुछ संयम में रहेंगे। जो व्यक्ति नियंत्रण में रहते हैं, वे उसके समाप्त होने का इंतजार करते हैं। अनुशासन अपने आप में अंत नहीं, एक साधन है। उन व्यक्तियों को देखो जिनमें जरा भी अनुशासन नहीं है, उनकी अवस्था दयनीय है। अनुशासनहीन स्वतंत्रता अति दु:खदायी है। और स्वाधीनता के बिना अनुशासन से भी घुटन होती है। सुव्यवस्था में नीरसता है, अव्यवस्था तनावपूर्ण होती है। हमें अपने अनुशासन को अजाद व स्वतंत्रता को अनुशासित करना है। जो व्यक्ति हमेशा साथियों से घिरे हैं, वे एकांत का आराम ढूंढते हैं। एकांत में रहने वाले व्यक्ति अकेलापन अनुभव करते हैं और साथी ढूंढते हैं। ठंड में रहने वाले लोग गर्म स्थान चाहते हैं। गर्म प्रदेश में रहने वाले ठंड पसंद करते हैं। जीवन की यही विडंबना है। प्रत्येक व्यक्ति संपूर्ण संतुलन की खोज में है। संपूर्ण संतुलन तलवार की धार की तरह है। यह सिर्फ आत्मा में ही पाया जा सकता है। आत्मा के एकांत में बुद्ध शिखर पर नहीं हैं, बल्कि शिखर उनके नीचे है। जो शिखर पर ऊपर जाता है, वह फिर नीचे आता है। पर शिखर उसको ढूंढता है जो और ऊपर, अपनी अंतरात्मा में स्थित है। शिव को चंद्रशेखर कहते हैं, जिसका अर्थ है वह मन जो शिवमय है- इंद्रियों के परे, त्रिगुणातीत और सर्वदा शिखर के ऊपर है। लोग दावतों और उत्सवों के पीछे भागते हैं। पर जो उनके पीछे नहीं भागता, दावत और उत्सव, जहां भी वह जाए, उसके पीछे चलते हैं। जब तुम दावतों के पीछे भागते हो, तुम्हें अकेलापन मिलता है। जब तुम आत्मा के साथ एकांत में रहते हो, तुम्हारे चारों ओर उत्सव होते हैं। संघर्ष का अंत जब तुम शांतिपूर्ण वातावरण में होते हो, तुम्हारा मन संघर्ष पैदा करने के लिए बहाने ढूंढता है। प्राय: छोटी-छोटी बातें बडी हलचल मचाने के लिए पर्याप्त हैं, क्या आपने गौर किया है? स्वयं से यह प्रश्न करो: क्या तुम हर परिस्थिति में शांति देखते हो या इस चेष्टा में रहते हो कि मतभेदों को बढाकर अपना मत प्रमाणित करो? जब तुम्हारा जीवन संकट में होता है तब तुम्हें यह शिकायत नहीं होती कि दूसरे तुमसे प्रेम नहीं करते हैं। जब तुम भयरहित और सुरक्षित होते हो, तब तुम चाहते हो कि लोग तुमको पूछें। कुछ व्यक्ति दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ही लडाई-झगडे उत्पन्न करते हैं। नकारात्मकता का बीज और संघर्ष करने की तुम्हारी प्रवृत्ति का अंत केवल साधना द्वारा ही संभव है। शिव और कृष्ण एक ही हैं अनंत के विविध गुण हैं और विशेष गुणों के अनुसार वे नाम ग्रहण करते हैं। उन्हें देवता कहते हैं। देवता तो सिर्फतुम्हारी ही परम-आत्मा की किरणें हैं, तुम्हारे विस्तृत हाथ। वे तुम्हारी ही सेवा में रहते हैं-जब तुम केंद्रित होते हो। जैसे एक अंकुरित बीज से जड, स्कंध व पत्तियां निकलती हैं, वैसे ही जब तुम केंद्रित होते हो, तब तुम्हारे जीवन में सभी देवी-देवताओं का प्रकटीकरण होता है। देवता तुम्हारी संगत में बहुत आनंदित होते हैं, पर तुम्हें उनसे कोई लाभ नहीं। जिस तरह सूर्य के उज्ज्वल प्रकाश में सभी रंग समाए रहते हैं, उसी तरह सभी देवता तुम्हारी विशुद्ध आत्मा में समाए हैं। परम-सुख उनकी श्वास है, वैराग्य उनका वास। वैराग्य के दाता हैं शिव- वह परम चेतना जिसमें भोलापन है, जो आनंदमय है, सर्वव्यापी है। कृष्ण शिव की बाह्य अभिव्यक्ति हैं और शिव कृष्ण के आंतरिक मौन। ईश्वर का ग्यारहवां आदेश जब तुम अकेले हो तो भीड में रहना अज्ञानता है। ज्ञान-प्राप्ति है भीड में भी अकेले रहना। भीड में सभी के साथ एकता महसूस करना बुद्धिमता का लक्षण है। जीवन के प्रति ज्ञान आत्मविश्वास लाता है और मृत्यु का ज्ञान तुम्हें निडर बनाता है, आत्मकेंद्रित करता है। भय क्या है? पृथकता, अलगाव का भय। कुछ व्यक्ति केवल लोगों की भीड में ही उत्सव मना सकते हैं, और कुछ सिर्फएकांत में, मौन में, ख्ाुशी मना सकते हैं। मैं तुमसे कहता हूं-दोनों करो। एकांत में उत्सव मनाओ, लोगों के साथ भी उत्सव मनाओ। शांति का उत्सव मनाओ, शोरगुल का भी उत्सव मनाओ। जीवन का उत्सव मनाओ, मृत्यु का भी उत्सव मनाओ। यही ग्यारहवां आदेश है। जो झरना ऊपर की ओर जाता है तुम केवल पानी का गिरना देखते हो। तुम यह नहीं देखते कि सागर कैसे बादल बन जाता है-यह तो एक रहस्य है। परंतु बादल का सागर बनना प्रत्यक्ष है, सुस्पष्ट। संसार में बहुत कम लोग तुम्हारी आंतरिक उन्नति को पहचान सकते हैं, परंतु तुम्हारा बाहरी आचरण ही सबको नजर आता है। कभी चिंतित नहीं हो कि लोग तुम्हें समझते नहीं। वे सिर्फ तुम्हारे भावों की अभिव्यक्ति को देख सकते हैं! |
Wednesday, January 6, 2010
प्रेम क्यां है ? प्रेम ज्ञान है वही जो परम सत्य है जो परम सत्य है वही इश्वर है
मेरा संदेश छोटा-सा है- ''प्रेम करो। सबको प्रेम करो। और ध्यान रहे कि इससे बड़ा कोई भी संदेश न है, न हो सकता है।''
मैंने सुना है : एक संध्या किसी नगर से एक अर्थी निकलती थी। बहुत लोग उस अर्थी के साथ थे। और, कोई राजा नहीं, बस एक भिखारी मर गया था। जिसके पास कुछ भी नहीं था, उसकी बिदा में इतने लोगों को देख सभी आश्चर्य चकित थे। एक बड़े भवन की नौकरानी ने अपने मालकिन को जाकर कहा कि किसी भिखारी की मृत्यु हो गई है और वह स्वर्ग गया है। मालकिन को मृतक के स्वर्ग जाने की इस अधिकारपूर्ण घोषणा पर हंसी आई और उसने पूछा : ''क्या तूने उसे स्वर्ग में प्रवेश करते देखा है?'' वह नौकरानी बोली, ''निश्चय ही मालकिन! यह अनुमान तो बिलकुल सहज है, क्योंकि जितने भी लोग उसकी अर्थी के साथ थे, वे सभी फूट-फूट कर रो रहे थे। क्या यह तय नहीं है कि मृतक जिनके बीच था, उन सब पर ही अपने प्रेम के बीज छोड़ गया है?''
प्रेम के चिन्ह- मैं भी सोचता हूं, तो दीखता है कि प्रेम के चिन्ह ही तो प्रभु के द्वार की सीढि़यां हैं। प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा तक जाने वाला मार्ग ही कहां हैं? परमात्मा को उपलब्ध हो जाने का इसके अतिरिक्त और क्या प्रमाण है कि हम इस पृथ्वी पर प्रेम को उपलब्ध हो गये थे! पृथ्वी पर जो प्रेम है, परलोक में वही परमात्मा है।
प्रेम जोड़ता है, इसलिए प्रेम ही परम ज्ञान है। क्योंकि, जो तोड़ता है, वह ज्ञान ही कैसे होगा? जहां ज्ञाता से ज्ञेय पृथक है, वहीं अज्ञान है।
ध्यान क्या है ?
ध्यान क्या है ?
ध्यान-सादक लिंची अपने गुरु के पास गए और पूछा--मैं अपने मन को कैसा
बनाऊं, जिससे सत्य को जान सकूँ? गुरु हंसने लगे और बोले--प्रिय ! तुम
अपने मन को कैसा भी बनाओ, सत्य को नहीं जान सकोगे. शिष्य का चेहरा उदास हो
गया. उसे बड़ी निराशा हुई. दु:खी स्वर से उसने फिर प्रश्न किया--क्या मैं
सत्य को नहीं जान सकूंगा? मुस्कराते हुए गुरु बोले--वत्स ! यह मैंने नहीं
कहा कि तुम सत्य को जानने में योग्य नहीं हो. तो फिर मुझे क्या करना
चाहिए--लिंची ने जिज्ञासा के स्वर में पूछा ? गुरु कहा--यदि सत्य को
जानना चाहते हो तो अपने साथ मन को लेकर मत चलो. मन को यहीं छोड़ दो. मन
सत्य क नहीं जान सकता. उसका मौन होना अपेक्षित है. अमन की अवस्था में ही
सत्य की झांकी मिलती है.
एक सन्त से किसी ने जिज्ञासा की--ध्यान क्या है? उसका उत्तर बड़ा संयमित,
सटीक और सत्य था. उसने कहा--जो सबसे निकट है, उसमें होना ही ध्यान है. जब मैं
कहीं नहीं होता हूं तब अपने आप में होता हूं. स्वयं में होना ही ध्यान
है. किसी पहंचे हुए साधक की संक्षिप्त परिभाषा में इसे इस प्रकार समझा जा
सकता है--"जाणे सो ही आत्मा, जावै को मन जाण"--जो जानता है वह आत्मा है
और जो ठहरता नहीं, वह मन है. उस जानने वाले में रहना, यही ध्यान है.
अध्यवसाओं/सूक्ष्मतम चित्त वृत्तियों की स्थिरता ध्यान है. वृत्तियों की
तरंगे चित्त हैं. आचार्य कहते है--जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं, जं चलं तयं
चित्तं"
ज़ेन साधक इसी सत्य दिशा का संकेत करते हैं. वे कहते हैं--ढो नोट् सेएक्,
इङ् योउ तन्ट् ओट् सेएक्, स्टोप्. खोजो मत, अगर खोजना चाहते हो तो रुक जाओ. खोज
करना मनका काम है. खोजने से व्यक्ति और चेतना की दूरी पाटी जा सकती.
प्लेटो अनेक वर्षों के बाद जब सुकरात के पास पहुंचा तब भी वह वैसा ही था
जैसा गया था. सुकरात ने कहा--"तुम जिन्दगी भर भी खोज करते रहोगे तब भी
उसे नहीं पा सकोगे, क्योंकि वह खोज का विषय नहीं है. इसलिए खोज करना छोड़
दो. "
कबीर की दृष्टि भी यही है. उन्होंने कहा है --ध्यान तो सहज योग है. वह करने
की क्रिया से सर्वथा दूर है. साधक असहजावस्था से बचता रहे तो जीवन की
सहजता स्वत: स्फुरित हो जाती है. उनके शब्द हैं--
"सहज सहज सब कोई कहे, सहज न चोन्हे कोय.
जो सहजे साहिब मिले, सहज कहावे सोय."
सब कोई सहज-सहज की रट लगाते हैं किन्तु सहज का बोध कोई नहीं करते. वही
सहजावस्था है, जिसमें आप बिना किसी प्रयत्न के अपने भीतर विद्यमान
आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं. इसी विचार को एक साधक ने
छन्द में यों बांधा है--
"सहजे-सहजे सहजानन्द, अन्तर्दृष्टि परमानन्द.
जहां देखो वहां आत्मानन्द, सहजे छुटे विषयानन्द.."
जब साधक अपनी सहज दशा में प्रवेश पा जाता है तब विषयों का रस स्वत; विरस
हो जाता है. अन्तर दृष्टि खुल जाती है. सर्वत्र आत्मानन्द का स्रोत फूट
पड़ता है. भगवान् महावीर के शब्दों में इसे संवर-ढहर जाना कहते हैं. वे
कहते हैं--अकम्मेजाणइ पासई"-- जो कुछ नहीं करता, वही जानता और देखता है.
करने में कर्तव्य का अहं गिरता नहीं है,"मैं" जीवित रहता है. "मैं" की
बाधा को तोड़ने के लिए शान्त, कुछ भी न करना अमोघ उपाय है.
समता और ध्यान
भगवान् महावीर ने इसकी साधना के लिए साधना के लिए सूत्र दिया सामायिक का.
सामायिक प्रश्न से मुक्त है. ध्यान में जहां प्रश्न खड़ा होता है कि
ध्यान किसका करें? कैसे करें? आदि. वहां सामायिक में ऐसा कुछ नहीं है.
सामायिक समता के पूर्ण अभ्यास से निष्पन्न अवस्था है. जहां मन न इधर
झुकता है और न उधर, वह बीच में ठहर जाता है. संतुलित हो जाता है.राग और
द्वेष दोनों से मुक्त स्थिति का नाम सामायिक है और वह है--अपनी आत्मा.
समता और ध्यान एक हैं. समता और ध्यान-दोनों अभिन्न हैं. समता को साध लेने
पर ध्यान साध जाता है और ध्यान को साध लेने पर समता मता सध जाती है.
गुरु के पास एक व्यक्ति संन्याल लेने आया. गुरु ने संन्यास का सूत्र देते
हुए कहा--"जाओ, सामने जो कब्रें दिखाई दे रही हैं, एक-एक को गाली देकर
आओ. शिष्य कुछ समझ नहीं सका. गुरु का आदेश था. गया. गाली देकर पुन: लौट
आया. गुरु ने कहा--एक बार फिर जाओ. इस बार सबकी स्तुति करके आओ. आदेश का
पालन कर पुन: चला आया. गुरु ने पूछा--बोलो, तुम जब गालियां देकर आये थे
और सतुति करके आये थे तब उन्होंने कोई उत्तर दिया? उन पर कोई प्रतिक्रिया
हुई? शिष्य ने कहा--न कोई उत्तर था और न कोई प्रतिक्रिया ? गुरु ने
संन्यास-सूत्र देते हुए कहा--`अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में
सदा-सर्वत्र सम रहना, यही सन्यांस है."
जीवन द्वन्द्व है. इस द्वन्द्व में से गुजरने की कला है समता. जिसके पास
समता का शस्त्र नहीं है, वह द्वन्द्वो पर विजयी नहीं बन सकता. योगवित्
आचार्य हेमचन्द्र साधक को सूचित करते हुए कहते हैं--साधक को समता का
सहारा लेकर योग-मार्ग पर आरूढ़ होना चाहिए. समता को बिना साथ लिए जो
ध्यान का प्रारम्भ करता है, वह अपनी आत्मा को विडंबित करता है. आगे कहते
हैं--समत्व के बिना ध्यान नहीं है और ध्यान के बिना समत्व नहीं है. चेतना
के स्थिरीकरण में दोनों की उपादेयता है, अत: दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.
योगनिष्ठ आचार्य शुभचन्द्र ने समत्व का मूल्यांकन करते हुए लिखा
है--विश्वद्रष्टा ऋषियों ने साम्य को सर्वोत्कृष्ट ध्यान कहा है. मैं
मानता हूं, जितना भी शास्त्रों का विस्तार है, वह इसी की अभिव्यक्ति के
लिए है.
योग-वशिष्ठ में भी `शम' की महिमा का जो वर्णन किया है, वह इसी भावना का
परिपोषक है. शम कौन होता है? उसके विस्तार का संक्षिप्त सार है--जो न
प्रसन्न होता है और न अप्रसन्न. समस्त स्थितियों में जिसका मन संतुलित
रहता है. गीता में स्थितप्रज्ञ के लक्षणों में भी हमें इसका स्पष्ट दर्शन
होता है--
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्त्य प्राप्य शुभाशुभम्.
नाभिनन्दति न च द्वेष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता..
जो व्यक्ति सर्वत्र स्नेहरहित है, उस-उस शुभ तथा अशुभ (वस्तुओँ) को
प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, वह स्थितप्रज्ञ होता
है.
असत् का त्याग
उपरोक्त प्रतिपादन से ध्यान की वास्तविक स्थिति अपरिचित नहीं रहती .
ध्यान का मूल प्रतिपाद्य है-विवेक. विवेक का अर्थ है--जागृति के अभाव में
चेतना की जो दूरी बढ़ गई है उसे पाट देना, असत् के सथ जो सम्बन्ध हो गया
है, उसे मिटा देना और असत् में जो आस्था दृढ़तम हो गई है, उसके मूल को
हिला देना. जब तक असत् का आकर्षण नहीं टूटता, तब तक ध्यान का कार्य फलित
नहीं होता. सत् के मिलन में सबसे बड़ी बाधा असत् का व्यामोह ही .एक का
आकर्षण दूसरे का नाश है.
असत् यानि जो स्थिर नहीं है, शाश्वत नहीं है. ऐसी वस्तुओं, व्यक्तियों
और परिस्थितियों में अपनी चेतना को उलझाये रखना सबसे बड़ा अज्ञान है. जब
तक उसका त्याग नहीं होता तब तक सम्यक् साधन की उपादेयता भी सिद्ध नहीं
होती. क्योंकि बाह्रा आकर्षण और पद-प्रतिष्ठा का मोह अनुचित उपायों से
व्यक्ति को मुक्त नहीं होने देता. हिंसा, असत्य, दूसरों की बुराई, कसी को
नीचा दिखाने का भाव आदि-आदि वृत्तियां व्यक्ति को छोड़ नहीं पातीं. जो
जाने वाला है, विमुक्त होने वाला है, पकड़ने पर टिक नहीं पाता, उसके पीछे
समय, श्रम, और शक्ति का व्यय कर कोई व्यक्ति सुखी कैसे हो सकता है? साधक
को यह निर्णय कर लेना चाहिए कि मुझे किससे प्रेम करना है? असत् और सत्
दोनों को साथ लेकर चलने की भूल उसे नहीं करनी चाहिए. दो घोड़ों पर सवार
होकर कोई भी घुड़सवार सुरक्षित नहीं पहुंच सकता.
लोकैषणा (यश, प्रतिष्ठा, पद आदि की आकांक्षा), वित्तैषाणा और पुत्रैषणा
में आकृष्ट व्यक्ति साधना का दम्भ कर सकता है किन्तु साधना से उसका कोई
प्रयोजन नहीं रहता. सभी प्रकार की कामनाएं साधक के लिए वर्जनीय हैं.
योगजन्य सिद्धियों और चमत्कारों का मोह भी उसमें नहीं होना चाहिए.
सिद्धि-मार्ग में वे भी विध्न हैं. उनकी शाश्वतता भी कहां है? साधक के
सामने सत्य का ही ध्येय रहना चाहिए.
दो प्रकार के साधक
व्यक्ति बुद्धि और अव्यक्त बुद्धि की दृष्टि से साधकों की दो श्रेणियां
हो जाती हैं. जो व्यक्त हैं, उनके लिए साधना के सामान्य प्रयोगों की
अपेक्षा नहीं रहती. थोड़े से हिलाते ही उनकी नींद टूट जाती है या किसी
विशिष्ट निमित्त को पाकर स्वत: शीघ्र ही जग जाते हैं. जैसे ही वस्तु-सत्य
की मीमांसा करते हैं, देखते हैं और जान लेते हैं, उसी क्षण अवास्तविकता
से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लेते हैं. उनके लिए सिर्फ यथार्थ बोध
पर्याप्त होता है. ध्यान के साथ ही आचरण की घटना घट जाती है. वे हेय से
असंगत होकर स्वयं के संग में स्थित हो जाते हैं. स्व-स्थिति ही ध्यान है.
व्युत्पन्न--व्यक्त साधकों के लिए विचार-विवेक प्रयाप्त है. उनके लिए
कैसे बैठना, कैसे ध्यान करना, किसका करना, कौन-कौन से आल-~म्बनों को
ग्राहण करना आदि सब गौण होते हैं. वे सहजतया असत्--विनाशी वस्तुओं का
तादात्म्य तोड़कर स्वयं में उतर जाते हैं. राग-द्वेष आदि अवस्थाएं सब मनकृत
हैं. आत्मृ-तत्त्व से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है. इसलिए वे भी उन्हें बांध
नही सकती. आचार्य अमितगति ने इसका बड़ा सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया
है--ध्यान करने के लिए पाषाण की शिला, कुश या पृथ्वी के आसन की आवश्यकता
नहीं है. विद्वानों के लिए वह आत्मा ही स्वयं पवित्र आसन है, जिसने क्रोध
आदि कषाय व इन्द्रिय-वासना रूपी शत्रुओं का संहार कर दिया है. हे मित्र !
आत्म-ध्यान के लिए न किसी आसन की, न किसी लोक-पूजा की और न किसी संघ में
मिलने की आवश्यकता है. जिस किसी भी तरह अपने ह्रदय से बाह्रा वस्तुओं कि
वासना निकालकर अपने ही स्वरूप में प्रतिफल लीन रहना, यही ध्यान एवं समाधि
है"--
"न संस्तरोस्श्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो यो फलको विनिर्मित:.
यतो निरस्ताक्षकषायविद्विष:, सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मत:..
न संस्तरो भद्र ! समाधि-साधनं, न लोक-पूजा न च संघमेलनम्.
यतस्ततोस्ध्यात्मरतो भवानिशं, विमुछय सर्वामपि बाह्मावासनाम्..
योग-वशिष्ट के जनक, बलि, प्रह्लाद आदि प्रकरणों में इसी सत्य का दर्शन
होता है. प्रह्लाद अपने पिता , प्रपितामह आदि पूर्वजों की सूर्खता पर
हँसता है. वह सोचता है--कैसे थे वे लोग, जो भोग, राज्य आदि बन्धनों में
गिरकर आत्म-वैभव से वंचित रह गए. जिन्होनें अपने को नहीं जाना, उन्होंने
सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया. इस प्रकार बड़े गहन चिन्तन में उतर कर, वह
स्वयं प्रतिष्ठित हो जाता है.
ध्यान का द्वार उनके लिए सहजतया अनावृत हो जाता है, जिन्हें वर्तमान जीवन
से सर्वथा असंतोष हो गाया है, संसार के नश्वर स्वरूप की जिन्होंने अच्छी
तरह से अनुभव कर लिया है और प्रत्येक सुख के पीचे छिपे दु:ख को देख लिया
है. आत्म-दर्शन की तीव्र प्यास जिनमें जागृत हो जाती है वे उसकी खोज के
लिए निकल पड़ते हैं. अव्युत्पन्न/अव्यक्त बुद्धि के व्यक्तियों की
संख्या सर्वदा से अधिक रही है. बिना किसी प्रेरणा व माध्यम के उनके जीवन
में सहजतया कोई परिवर्तन नही होता. निमित्त के मिलने पर भी अनेक लोग
स्वाभाविक/यथार्थ विचार से बहुत दूर रहते हैं. यथार्थ का विचार करना भी
मार्ग पर अग्रसर होने का एक उपाय है. लेकिन जो विचार नहीं करते हैं उनके
लिए वह मार्ग कैसे खुलेगा ? अव्यक्त व्यक्ति जब निमित्त पाकर जागृत होते हैं
तब उनके लिए साधना की अपेक्षा होती है. साधना के विभिन्न प्रयोग उन लोगों
के लिए हैं. साधना में वे मन्दगति होते हैं. मल, विक्षेप और आवरण भी उनके
अधिक होते हैं. इस सबकी शुद्धि के लिए पहले उन्हें अनेक उपायों और
सामान्य प्रयोगों से गुजरना होता है. तब कहीं उनका ध्यान का मार्ग
प्रशस्त होता है. वे उसके योग्य बन जाते हैं. साधना में उनकी गति तेज हो
जाती है.
ध्यान क्यों ?
ध्यान क्यों?--इसका उत्तर एक प्रकार से नहीं दिया जा सकता. मनुष्य विविध
रुचि वाले हैं. उनकी विविधता के पीछे छिपा है--अतीत का संस्कार या
पूर्वोपार्जित कर्म. कर्म की औदयिक, क्षायोप-~शमिक व क्षायिक अवस्था के
कारण मनुष्य की वृत्तियां रूपान्तरित होती हैं. कर्म की औदयिक अवन्था में
प्राणी, स्वंय के निकट नहीं रहता. वह अपने से दूर रहता है. उसकी
चिन्तनधारा राग, द्वेष, मोह, वासना, ईर्ष्या, लोभ आदि भावों की और
प्रवाहित रहती है. कर्मों के आवरणों के हटने पर चित्र का रूझान
अन्तर्मुखी बनता है. दृष्टिकोण में परिवर्तन आता है. भावधारा निर्मल बनती
है. सात्विक भावों का अभ्युदय होता है. उसका चिन्तन पवित्र बनता है.
उसमें "मैं कौन हूँ" की जिज्ञासा उभरती है. यही जिज्ञासा लक्ष्य की दिशा
में उसे उत्प्रेरित करती है.
कर्म के उदयकाल में प्राणियों का रहन-सहन और दृष्टिकोण भौतिकता प्रधान
होता है. काम, क्रोध, अहंकार, ममत्व, स्वार्थ आदि क्षुद्रतम भावों का
प्राबल्य रहता है. उस स्थिति में "ध्यान क्यों" का संभवत: प्रश्न ही खड़ा
नहीं होता. यह प्रश्न कर्म की अनावृत स्थिति में खड़ा होता है. अनावरण
दशा में भी बड़ा तारतम्य रहता है. वह अवस्था भी सर्वथा मोह से शान्त नहीं
होती. मोह शुद्ध अवस्था का बाधक है. इसलिए ध्यान को भी अनेक व्यक्ति
शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक शान्ति के लिए मेडिशन की तरह इस्तेमाल करते
हैं. उनकी दृष्टि शरीर से उपर नहीं उठती.
आज का व्यक्ति कायिक व्याधियों और मानसिक आधियों का शिकार है. मनोकायिक
रोगों का फैलाव तीव्रता से बढ़ रहा है. जितना अधिक पदार्थवादी दृष्टिकोण
बनता है, उतना ही अधिक व्यक्ति परेशान दिखाई देता है. उस परेशानी से बचने
कि लिए वह विविध प्रकार की ड्रेग्स नशीली औषधियों का सेवन करता है. उनसे
उसे राहत मिलती है, किन्तु पूर्णरूपेण नहीं. बेचैनी शान्त नहीं होती. वह
औक उग्र रूप धारण करती है. उस उग्रता के शमन के लिए आदमी योग के पास जाता
है. योग शीरीरिक, मानसिक और भावात्मक तनावों से मुक्ति देता है. इसलिए
अनेक व्यक्तियों की दृष्टि इन्हीं के लिए बन जाती है. वे ध्यान को
स्वास्थ्य और मानसिक शान्ति के लिए प्रयुक्त करते हैं. जब कि ध्यान का यह
मूलभूत उद्देश्य नहीं है. मोह की उच्चतर क्षायोपशमिक अवस्था में ही कुछेक
साधक ध्यान के मौलिक उद्देश्य को पकड़ पाते हैं. ध्यान का प्रमुखतम ध्येय
है--आत्म-साक्षात्कार. अपने आपको, देखना या अनुभव करना ही ध्यान की मुख्य
देन है. इसलिए कहा है--आत्म-~ध्यानरतिर्ज्ञेयं, विद्वत्ताया परं
फलम्--पांडित्य का परम फल है--आत्म-ध्यान में अनुरक्त होना.
शुद्धात्मा का ध्यान ही साधक को जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, शोक से पार
करता है. "शोकं तरति आत्मवित्" श्रुति का कथन है कि आत्मवेवा पुरुष ही
शोक को तरता है. भगवान् महावीर ने कहा है--
"जत्रम दुक्खं, जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य.
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो..
यह संसार दु:ख-बहुल है जिसमें प्राणी शोक, क्लेश, आदि को प्राप्त हो रहे
हैं. उस दु:ख का रूप है--जन्म, जरा, मृत्यु और रोग. आत्मा का ध्यान इनसे
मुक्ति देता है. इसलिए उच्चकोटि के साधक का ध्येय आत्मा के अतिरिक्त अन्य
कुछ नहीं होता. सन्त दादू के पास "रज्जब" पहुँचे. वे दूल्हे की पोशाक में
थे. दादू ने उस मुसलमान युवक को देखा. चेहरे पर शांति और ज्ञान-पिपासा की
झलक देखी. दादू ने सोचा--यह जीव संसार से पार उतरने योग्य हैं. रज्जब की
और वे एकटक निहारते रहे. रज्जब की आत्मा भी इस स्नेह-दर्शन से तृप्त हो
गई. जब कुछ बातचीत हुई तो दादू के मुख से यह वाणी निकली--
व्यक्तियों को वस्तु मत बनाओ
हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं। न तो हम पदार्थ के जगत में रहते हैं और न हम स्वर्ग के, चेतना के जगत में रहते हैं। हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं। इसे ठीक से, अपने आस-पास थोड़ी नजर फेंक कर देखेंगे, तो समझ में आ सकेगा। हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं-वी लिव इन थिंग्स। ऐसा नहीं कि आपके घर में फर्नीचर है, इसलिए आप वस्तुओं में रहते हैं; मकान है, इसलिए वस्तुओं में रहते हैं; धन है, इसलिए वस्तुओं में रहते हैं। नहीं; फर्नीचर, मकान और धन और दरवाजे और दीवारें, ये तो वस्तुएं हैं ही। लेकिन इन दीवार-दरवाजों, इस फर्नीचर और वस्तुओं के बीच में जो लोग रहते हैं, वे भी करीब-करीब वस्तुएं हो जाते हैं।
मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो चाहता हूं कि कल भी मेरा प्रेम कायम रहे; तो चाहता हूं कि जिसने मुझे आज प्रेम दिया, वह कल भी मुझे प्रेम दे। अब कल का भरोसा सिर्फ वस्तु का किया जा सकता है, व्यक्ति का नहीं किया जा सकता। कल का भरोसा वस्तु का किया जा सकता है। कुर्सी मैंने जहां रखी थी अपने कमरे में, कल भी वहीं मिल सकती है। प्रेडिक्टेबल है, उसकी भविष्यवाणी हो सकती है। और रिलायबल है, उस पर निर्भर रहा जा सकता है। क्योंकि मुर्दा कुर्सी की अपनी कोई चेतना, अपनी कोई स्वतंत्रता नहीं है। लेकिन जिसे मैंने आज प्रेम किया, कल भी उसका प्रेम मुझे ऐसा ही मिलेगा-अगर व्यक्ति जीवंत है और चेतना है, तो पक्का नहीं हुआ जा सकता। हो भी सकता है, न भी हो। लेकिन मैं चाहता हूं कि नहीं, कल भी यही हो जो आज हुआ था। तो फिर मुझे कोशिश करनी पड़ेगी कि यह व्यक्ति को मिटा कर मैं वस्तु बना लूं। तो फिर रिलायबल हो जाएगा।
तो फिर मैं अपने प्रेमी को पति बना लूं या प्रेयसी को पत्नी बना लूं। कानून का, समाज का सहारा ले लूं। और कल सुबह जब मैं प्रेम की मांग करूं, तो वह पत्नी या वह पति इनकार न कर पाएगा। क्योंकि वादे तय हो गए हैं, समझौता हो गया है; सब सुनिश्चित हो गया है। अब मुझे इनकार करना मुझे धोखा देना है; वह कर्तव्य से च्युत होना है। तो जिसे मैंने कल के प्रेम में बांधा, उसे मैंने वस्तु बनाया। और अगर उसने जरा सी भी चेतना दिखाई और व्यक्तित्व दिखाया, तो अड़चन होगी, तो संघर्ष होगा, तो कलह होगी।
इसलिए हमारे सारे संबंध कलह बन जाते हैं। क्योंकि हम व्यक्तियों से वस्तुओं जैसी अपेक्षा करते हैं। बहुत कोशिश करके भी कोई व्यक्ति वस्तु नहीं हो पाता, बहुत कोशिश करके भी नहीं हो पाता। हां, कोशिश करता है, उससे जड़ होता चला जाता है। फिर भी नहीं हो पाता; थोड़ी चेतना भीतर जगती रहती है, वह उपद्रव करती रहती है। फिर सारा जीवन उस चेतना को दबाने और उस पदार्थ को लादने की चेष्टा बनती है।
और जिस व्यक्ति को भी मैंने दबा कर वस्तु बना दिया, या किसी ने दबा कर मुझे वस्तु बना दिया, तो एक दूसरी दुर्घटना घटती है, कि अगर सच में ही कोई बिलकुल वस्तु बन जाए, तो उससे प्रेम करने का अर्थ ही खो जाता है। कुर्सी से प्रेम करने का कोई अर्थ तो नहीं है। आनंद तो यही था कि वहां चैतन्य था। अब यह मनुष्य का डाइलेमा है, यह मनुष्य का द्वंद्व है, कि वह चाहता है व्यक्ति से ऐसा प्रेम, जैसा वस्तुओं से ही मिल सकता है। और वस्तुओं से प्रेम नहीं चाहता, क्योंकि वस्तुओं के प्रेम का क्या मतलब है? एक ऐसी ही असंभव संभावना हमारे मन में दौड़ती रहती है कि व्यक्ति से ऐसा प्रेम मिले, जैसा वस्तु से मिलता है। यह असंभव है। अगर वह व्यक्ति व्यक्ति रहे, तो प्रेम असंभव हो जाएगा; और अगर वह व्यक्ति वस्तु बन जाए, तो हमारा रस खो जाएगा। दोनों ही स्थितियों में सिवा फ्रस्ट्रेशन और विषाद के कुछ हाथ न लगेगा।
और हम सब एक-दूसरे को वस्तु बनाने में लगे रहते हैं। हम जिसको परिवार कहते हैं, समाज कहते हैं, वह व्यक्तियों का समूह कम, वस्तुओं का संग"ह ज्यादा है। यह जो हमारी स्थिति है, इसके पीछे अगर हम खोजने जाएं, तो लाओत्से जो कहता है, वही घटना मिलेगी। असल में, जहां है नाम, वहां व्यक्ति विलीन हो जाएगा, चेतना खो जाएगी और वस्तु रह जाएगी। अगर मैंने किसी से इतना भी कहा कि मैं तुम्हारा प्रेमी हूं, तो मैं वस्तु बन गया। मैंने नाम दे दिया एक जीवंत घटना को, जो अभी बढ़ती और बड़ी होती, फैलती और नई होती। और पता नहीं, कैसी होती! कल क्या होता, नहीं कहा जा सकता था। मैंने दिया नाम, अब मैंने सीमा बांधी। अब मैं कल रोकूंगा, उससे अन्यथा न होने दूंगा जो मैंने नाम दिया है।
कल सुबह जब मेरे ऊपर क्रोध आएगा, तो मैं कहूंगा, मैं प्रेमी हूं, मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए। तो मैं क्रोध को दबाऊंगा। और जब क्रोध आया हो और क्रोध दबाया गया हो, तो जो प्रेम किया जाएगा, वह झूठा और थोथा हो जाएगा। और जो प्रेमी क्रोध करने में समर्थ नहीं है, वह प्रेम करने में असमर्थ हो जाएगा। क्योंकि जिसको मैं इतना अपना नहीं मान सकता कि उस पर क्रोध कर सकूं, उसको इतना भी कभी अपना न मान पाऊंगा कि उसे प्रेम कर सकूं।
लेकिन मैंने कहा, मैं प्रेमी हूं! तो कल जो सुबह क्रोध आएगा, उसका क्या होगा अब? उस वक्त मुझे धोखा देना पड़ेगा। या तो मैं क्रोध को पी जाऊं, दबा जाऊं, छिपा जाऊं, और ऊपर प्रेम को दिखलाए चला जाऊं। वह प्रेम झूठा होगा, क्रोध असली होगा। असली भीतर दबेगा, नकली ऊपर इकट्ठा होता चला जाएगा। तब फिर मैं एक झूठी वस्तु हो जाऊंगा, एक व्यक्ति नहीं। और यह जो भीतर दबा हुआ क्रोध है, यह बदला लेगा। यह रोज-रोज धक्के देगा, यह रोज-रोज टूट कर बाहर आना चाहेगा। और तब स्वभावतः, जिसे प्रेम किया है, उससे ही घृणा निर्मित होगी। और जिसे चाहा है, उससे ही बचने की चेष्टा चलने लगेगी।
सेक्स एक शक्ति है, उसको समझिए।
सेक्स एक शक्ति है, उसको समझिए। |
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हमने सेक्स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने में भयभीत होते हैं। हमने तो सेक्स को इस भांति छिपा कर रख दिया है जैसे वह है ही नहीं, जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब कि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में और कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है, उसको दबाया है। दबाने और छिपाने से मनुष्य सेक्स से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि मनुष्य और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाया है। शायद आपमें से किसी ने एक फ्रेंच वैज्ञानिक कुए के एक नियम के संबंध में सुना होगा। वह नियम है: लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट। कुए ने एक नियम ईजाद किया है, विपरीत परिणाम का नियम। हम जो करना चाहते हैं, हम इस ढंग से कर सकते हैं कि जो हम परिणाम चाहते थे, उससे उलटा परिणाम हो जाए। |